मनुष्य जीवन में प्रतिदिन दानव रूपी ऐसी समस्यायें, बाधायें आती हैं, जिनका शमन हिरण्यकश्यप की ही भांति अस्पष्ट होता है। जिनका कोई ठोस कारण व समाधान नहीं दिखता, ऐसी ही गुप्त अथवा अस्पष्ट समस्याओं से जीवन त्रस्त होता है, जिससे व्यक्ति हताश होने लगता है। सांसारिक जीवन में अनेक तरह के संघर्ष हैं, साथ ही भिन्न-भिन्न समस्यायें भी, इन सांसारिक समस्याओं से जूझने व लड़ने के लिए मनुष्य में अद्भुत क्षमता व जीवट की आवश्यकता होती है, जो नरकेसरी के समान ही ऊर्जामय बनाये।
होलिका अग्नि पर्व जाज्वल्यमान भावों का पर्व है, ऊर्जा शक्ति का दिवस है। आज के आधुनिक युग में भी ऐसी ही अग्नि और गर्जना की आवश्यकता होती है। जिसकी लौ में कुछ भी बुरा, अनीति पूर्ण क्रियायें, अनेक गुप्त अवरोध भस्मीभूत हो जाये और जिसकी गर्जना से छोटी-बड़ी सभी बाधायें अग्नि में समाहित हो जायें। अन्यथा बलिष्ठ व दुष्ट प्रवृत्ति के लोग आपकी अधिकृत वस्तुओं पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लेंगे।
वास्तव में मनुष्य जीवन संघर्षों का एक अविराम क्रम होता है, जिसमें सर्वाधिक प्राण ऊर्जा की आवश्यकता होती है और जिसकी प्राण ऊर्जा सीमित हो अथवा जिसके प्राण ऊर्जा का हनन हो चुका हो, वह आवश्यक नहीं कि जीवित व्यक्तियों की श्रेणी में आता ही हो, क्योंकि केवल श्वास-प्रश्वास चलना ही जीवन नहीं कहा जा सकता।
जबकि मनुष्य के भावों में सिंह के समान गर्जना होनी चाहिए अर्थात् उसमें असीमित प्राण ऊर्जा होनी चाहिये जूझने की, लड़ने की और विजय प्राप्त करने की। नृसिंह तत्व की व्याख्या का यहां तात्पर्य भी यही है कि सांसारिक मनुष्य नृसिंहमय बन सकें और यह भाव जिस साधक में दृढ़ता के साथ होता है, वही जीवन की अनेक विफलताओं को समाप्त कर जीवन में उच्चतम स्थितियों को प्राप्त कर पाता है और निडरता से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है। होली पर्व का भाव भी यही है कि जीवन के भय, डर को समाप्त कर निडर, सक्षम, समर्थ बना जाये और सिंहत्व भावों को आत्मसात कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया जाये।
जीवन से भय, डर, तंत्र-शत्रु बाधा, गोपनीय विरोधाभास की स्थितियों के शमन हेतु नृसिंह भैरव शक्तिपात दीक्षा परम पूज्य सद्गुरूदेव होलिका अग्नि दिवस के तेजमय काल में ही प्रदान करेंगे। जिससे साधक सिंहत्व भावों व तेज, ऊर्जा, प्राण शक्ति, जाज्वल्यमान क्षमता से आपूरित हो सकेगा। साथ ही ऐसे दिव्यतम चैतन्य अवसर पर ऐसी दिव्य दीक्षा ग्रहण करने से जीवन की जड़ता, कर्महीनता, आलस्य, विकार भस्मीभूत होते हैं, जिससे अग्नि ताप के माध्यय सें दैदीप्यमान जीवन निर्मित होता है और साधक प्रत्येक क्षेत्र में सफलता के उच्चतम सोपान को प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है।
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