कलश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। इसे शान्ति और सृजन का संदेश वाहक कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि सभी देवता कलश रूपी पिण्ड में समाष्टि होते हैं तथा सभी देव स्वरूपों को कलश के माध्यम से एक ही केन्द्र में स्थापित कर पूजन, भोग अर्पित करने हेतु कलश की स्थापना की जाती है। कलश सभी देव शक्तियों, तीर्थों आदि का संयुक्त प्रतीक है। वेदोक्त मंत्र के अनुसार कलश के मुख में विष्णु, कण्ड में रूद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं। कलश के मध्य में मातृ शक्तियां विद्यमान हैं। कलश में समस्त सागर, सप्त द्वीप, पृथ्वी, गायत्री, सावित्री, शान्ति कारक तत्व, विश्वदेव, सभी पितृदेव एक साथ निवास करते हैं। कलश की पूजा से सभी देवगण, मातृ शक्तियां, पितृ गण प्रसन्न होकर साधना, पूजा, हवन को निर्विघ्न व सुचारू रूप से संचालित कर पूर्णता प्रदान करते हैं, साथ ही उनका आशीष भी प्राप्त होता है।
कलश में पवित्र जल भरा रहता है। इसका मूल भाव यह है कि हमारा मन भी जल की तरह शीतल, स्वच्छ एवं निर्मल बना रहे। हमारे शरीर रूपी पात्र हमेशा श्रद्धा, संवेदना, तरलता एवं सरलता से भरे रहें। इसमें क्रोध, मोह, ईर्ष्या, घृणा आदि की कुत्सित भावनायें ना जाग्रत होने पाये। कलश के ऊपर आम्र पत्र होता है, उसके ऊपर मिट्टी के दीपक में केसर से रंगा हुआ अक्षत रहता है। जिसमें यह भावना होती है कि परमात्मा यहां अवतरित होकर हम अक्षत स्वरूप अविनाशी जीवात्माओं एवं पंचत्व की प्रकृति को शुद्ध करें। दिव्य ज्ञान को धारण करने वाली हमारी आत्मा आम्र पत्र की तरह सदा हरियाली (सुख-भोग) युक्त रहे।
कलश में डाली जाने वाली दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प इस भावना को दर्शाती है कि हमारा जीवन दूर्वा (दूब) के समान जीवनी शक्ति, कुश जैसी प्रखरता, सुपारी के समान स्थिरता, पुष्प जैसा उल्लास एवं द्रव्य के समान सर्वगुणों से युक्त हो सके। कलश को सूत से बांधने के पीछे यही भाव-चिंतन होता है कि हमारा जीवन आदर्शवादी सिद्धांतो से अनुबंधित हो और हम इस बंधन के माध्यम से स्वयं को अनुशासन की डोर में बंधे रहे हैं। कलश के ऊपर का नारियल देह रूपी जीवात्मा में स्थापित सभी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां हमें जल के समान सुसंस्कारों से संस्कारित होने की प्रेरणा प्रदान करती है।
कलश पर स्वस्तिक का चिन्ह चार युगों का प्रतीक है। यह मनुष्य की अवस्था बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था का भी प्रतीक है, जिसका तात्पर्य है कि हम चारों अवस्थाओं में ईश्वर के चिंतन-मनन, ध्यान आदि में रत रहें और कलश के सामने प्रज्ज्वलित दीपक की ज्योति से हमारी अज्ञानता समाप्त हो, कलश स्थापना पर उक्त भावनाओं का चिंतन करना चाहिए जिससे जीवन में सुख-समृद्धि, प्रेम, उल्लास की प्राप्ति होती है।
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