मुख्य बात यह है कि अनेक माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा जल्दी पूरी हो ऐसा सोचकर उसे ढ़ाई साल की उम्र में ही स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं। उस समय बच्चा यह भी समझने में असमर्थ रहता है कि उसे भूख लगी है, प्यास लगी, जिसके कारण वह उसमें चिड़-चिड़ापन आ जाता है। बच्चे को स्कूल में दाखिल करने का सही समय साढ़े तीन साल से चार साल के बीच है, इस समय बच्चा अपनी जरूरतों को समझने लगता है और अपनी बातों को समझाने में सक्षम हो जाता है।
और इस यानि 3-5 से 4 साल के बच्चे हल्का- फुल्का बोलना सीख जाते है और स्कूल जाने को तैयार होते है। पूर्व में बच्चों को 5 साल के उम्र में स्कूल भेजा जाता था, जो बिलकुल समय सही था, क्योंकि इस समय तक बच्चा परिपक्व हो जाता है स्कूल जाने व अन्य जरूरतों के लिए और उसमें एक जिज्ञासा भी पैदा होने लगती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से 2-3 वर्ष के बच्चे में सोचने, समझने की शक्ति नहीं आ पाती, इस उम्र से पूर्व बच्चा कहां आ रहा है, कहां जा रहा यह भी समझ नहीं पाता। वास्तव में अभिभावक को अपने बच्चे को प्रवेश दिलाने से पहले गहरा आत्मचिंतन करना चाहिये। साथ में यह भी ध्यान रखें कि 2-3 वर्ष के बच्चे को प्रवेश दिलाने पर उनके व्यवहार में बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। एक बात स्पष्ट समझें बच्चा जितना अधिक परिपक्व होगा, उसका उतना ही खुद पर सेल्फ कंट्रोल होगा और वह उतना ही अधिक सीख और समझ पायेगा।
स्कूल में जाने पर बच्चे को नये अनुभवो, शारीरिक, सामाजिक, व्यावहारिक और एकेडमिक चुनौतियों और अपेक्षाओं में सामंजस्य बिठाना होता है और इनका सामना करना होता है। इसलिए अगर बच्चा इनके लिए तैयार नहीं है और उसे इनका सामना करना पड़े तो इसका बहुत नकारात्मक असर बच्चों पर पड़ता है। उसे स्कूल ओर पढ़ाई से चिढ़ हो सकती है। वह पढ़ाई में कमजोर रह सकता है और उसे अवसाद घेर सकता है। पांच वर्ष पूर्व बालक को जो पढ़ाना है, घर पर ही पढ़ाई हो। परिवार ही विद्यालय की संकल्पना का पालन करना चाहिए। तीन वर्ष का बालक तो औपचारिक शिक्षा के लिए भी कतई तैयार नहीं होता। ना शारीरिक रूप से और न मानसिक रूप से और इस बात को दुनिया के सारे शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक मानते हैं। साइक्लोजिस्ट मानते हैं कि सेल्प कंट्रोल एक ऐसा गुण है, जिसे बच्चों के शुरुआती समय में ही विकसित किया जा सकता है। जिन बच्चों में सेल्फ कंट्रोल होता है, वे फोकस के साथ आसानी से किसी भी परेशानी या चुनौतियों का सामना कर पाते हैं।
इसलिये यदि बच्चे का सही और सुचारु विकास चाहिये तो उसे घर में ही खेल-खेल में सीखने दीजिये, उसका शारीरिक और मानसिक विकास होने दे, यदि यह विकास ठीक रूप से हुआ तो उसे दुनिया की सारी शिक्षा ग्रहण करने में अधिक समय नहीं लगेगा।
एक बच्चे की प्रथम अध्यापक उसकी माँ होती है, जिससे वह बहुत कुछ सीखता है। मां को चाहिये कि वह अपने बच्चे को धीरे-धीरे स्कूल के लिए मानसिक रूप से तैयार करें, साथ ही उसको नैतिक शिक्षा व प्रारम्भिक चीजें सीखाते रहें। प्रारम्भ में अपने बच्चों को ऐसे स्कूल में प्रवेश दिलायें, जहां आपके बच्चे को खुलकर खेलना एवं सहभागी होना सिखाया जाता हो। बच्चे पर पढ़ाई का प्रेशर बिल्डअप करने के बजाय उसे खेल-खेल में सिखाने का प्रयास करें। इस उम्र में बच्चे को किताब, पेंसिल, फ्रूट्स, एनिमस्ल, टॅायज से रूबरू कराये ना कि उसे किताबी कीड़ा बनाने का प्रयास करें।
यह भी ध्यान रखें कि बच्चे को स्कूल में खेल-कूद का स्वतंत्र वातावरण मिले और वह नये-नये दोस्त बना सके, जिससे वह हमेशा स्कूल जाना चाहेगा और धीरे-धीरे शिक्षा के प्रति बच्चे का रुझान बढ़ता जायेगा, इससे उसे आगे के स्कूल में जाने में मदद भी मिलेगा और बच्चा पूरे मन से स्कूल जायेगा और सही रूप में उसका शारीरिक और बौद्धिक विकास भी होता रहेगा। बच्चें को सही उम्र में स्कूल भेजने से उसका भविष्य उज्जवल होता है और वह निरन्तर प्रगति करता रहता है। इसलिये बच्चे के भविष्य को देखते हुये उसे स्कूल के लिए प्रोत्साहित करें ना कि दबाव डालें। साथ ही उसे व्यवहारिक जीवन से ताल-मेल बनाने मदद करें, उसके मन की बात समझने का प्रयास करें, जिससे वह धीरे-धीरे शिक्षा आदि के लिए तैयार हो सके, उसके मन अनुरुप से माहौल दें, ज्यादा प्रेशर या दबाव आपके बच्चे के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। इसलिये उसे मस्ती, खेल-कूद भरे वातावरण में ही सीखने, समझने और पढ़ने दें।
अपने छोटे बच्चे को स्कूल में दाखिल कराने से पूर्व उसे मानसिक व शारीरिक रूप से स्वयं नियंत्रण रखना अवश्य सिखायें, जब आपका बच्चा स्वयं पर नियंत्रण रखना सीख लेता है, तब उसमें किसी भी चीज को सीखने और समझने की क्षमता विकसित हो जाती है और वह स्कूल आदि क्रियाओं से भागता नहीं, बल्कि उसे और अधिक लगन से करने का प्रयास करता है।
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