कालचक्र के आगे विवश होकर हमारे किसी आत्मीय का असमय मृत्यु को प्राप्त हो जाना जितना कष्टप्रद परिवार के सदस्यों के लिए होता है, उससे कहीं अधिक कष्टप्रद, असहाय, दुखी मृत्योपरान्त हमारा वह आत्मीय होता है। उसके जीवन का क्षण-क्षण घोर कष्ट व दयनीय स्थिति से गुजरता है। मृत्यु केवल शारीरिक ढांचे की होती है, आत्मीय सम्बन्ध मृत्यु पश्चात् भी जीवित रहते हैं। इसलिए वह आत्मीय अपने स्नेहीजनों के आस-पास भटकता रहता है। चूंकि अकाल मृत्यु में तत्काल मुक्ति अथवा दिव्य लोक की प्राप्ति नहीं होती, यही कारण है कि वह जीवात्मा अनेक कष्टो, दुखों को सहते हुए प्रत्येक क्षण नारकीय समय व्यतीत करता हुआ भटकता रहता है और वह क्षुब्ध, परेशान, दुखी होने पर अपने ही आत्मीय जन को कष्ट पहुंचाने लगता है।
जिससे ऐसे परिवार में जहां किसी व्यक्ति की असमय मृत्यु हुई हो, वहां का वातावरण असामान्य सा दिखता है, एक तनावपूर्ण माहौल, कलह-क्लेश, ईर्ष्या, अधोगति, बाधायें, अवरोध, कठिनाईया, रोग, धनहीनता, असफलता और अजीबो-गरीब घटनाओं का घटते रहने जैसी अनेक क्रियायें देखने, सुनने को मिलती है।
इसका मूल सम्बन्ध उस जीवात्मा की मुक्ति से होता है, जिसमें झांड-फूंक आदि की क्रियाएं किसी भी रूप में पूर्णता सहायक नहीं होती हैं, क्योंकि ऐसी क्रियाओं में हो सकता है कुछ समय के लिए बंधन आदि के द्वारा अनुकूलता मिल भी जाए, लेकिन इसका प्रभाव एक लघु समय-सीमा तक ही सीमित होता है, जिसके उपरान्त भटकती आत्मायें रूष्ट होकर और अधिक उपद्रव करती हैं। इसलिए ऐसी क्रियाओं का सटीक व दीर्घकालिक समाधान करना आवश्यक है, जिसमें उस जीवात्मा के साथ-साथ स्वयं का भी कल्याण हो और जीवन सभी दृष्टि से सुखद, सम्पन्न बन सके।
किसी भी प्रकार के अतृप्त आत्मा के कुप्रभाव को पूर्णता निष्फल करने व अपने पितृ जनों के आत्मशांति हेतु यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावशाली है। इस दीक्षा के माध्यम मृत व्यक्ति को शांति प्राप्त होती है तथा उसका उद्धार संभव हो पाता है और साधक के जीवन में सुख-समुद्धि, धन-धान्य, ऐश्वर्य, उन्नति, पूर्ण आयु, आरोग्यता, वंश वृद्धि, पूर्ण आनन्दमय वातावरण का निर्माण होता है।
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