एक बार पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा था कि- हे भगवन! कलियुग में जब मनुष्य को आचार-विचार का ज्ञान नहीं होगा, उसका जीवन विशेष प्रकार के बन्धनों से जकड़ा होगा, अधिकतर लोग धन की कमी से परेशान होंगे, तो क्या आप के तंत्र में ऐसा कोई विधान नहीं है, जिससे दरिद्रता का सम्पूर्ण रूप से नाश हो जाये? तब भगवान शिव ने हंसते हुए कहा कि हे देवी! तुम जानती हो, फिर भी मेरे मुख से सुनना चाहती हो, तो इस दारिद्रयविनाशक कल्प को सुनो! इस कल्प की रचना मैंने की थी, मेरे कहने पर इसे कुबेर को बताया गया और कुबरे धन के अधिपति तथा देवताओं के कोषाध्यक्ष बन गये, यह विद्या दारिद्रय संहत्री यक्षिणी पाप खंडिनी विद्या है।
अर्थात् भगवान शिव ने कहा कि यह विद्या ऐसी है, जिसे जानकर रंक अर्थात् दरिद्र से दरिद्र व्यक्ति भी राजा जैसा धनपति बन जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। जिस प्रकार सांप गरुड़ को देख कर ही भाग जाते हैं, उसका स्पर्श भी नहीं करते, उसी प्रकार इस विद्या से दारिद्रता का स्पर्श भी नहीं होता।
सही रूप से, शुद्ध रूप से, यदि लक्ष्मी की उपासना की जाये तो ऐसा कोई कारण नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्न न हो और साधक फल प्राप्त न कर सके, क्योंकि लक्ष्मी का निवास गृहस्थ साधको के यहां ही है। साधनात्मक क्रियाओं में सबसे बड़ा कार्य तो दृढ़ निश्चय और पूर्ण विश्वास के साथ कार्य करना है, कि मैं यह प्राप्त करके ही रहूंगा, जब यह भाव मन में हो और साथ ही ज्ञान हो, गुरु का निर्देश हो, उनका आशीर्वाद हो, तो मनुष्य तो क्या, देवताओं को भी साधक के मनोनुकूल फल प्रदान करना ही होता है।
दारिद्रय संहत्री धनदा यक्षिणी दीक्षा से जीवन में किसी भी प्रकार का अभाव हो, कष्ट हो, पीड़ा हो, बाधा हो, दुःख हो, दैन्य हो, न्यूनता हो, वह सब एक ही झटके से समाप्त हो जाता है। साथ ही जीवन में निरन्तर धन प्राप्त होता ही रहता है और आय के सैकड़ों स्त्रोत खुल जाते हैं, चाहे वह व्यापार करता हो, चाहे वह नौकरी करता हो। इस प्रकार की सुविधाएं, इस प्रकार के रास्ते अपने आप बन जाते हैं, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते और साधक को जीवन में एक साथ भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
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