शिष्य निरन्तर गुरु चिंतन करना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। इससे न केवल उसे आधयात्मिक बल प्राप्त होता है, मन शत्रु रहता है अपितु बाहरी दूषित वातावरण भी उसके मन पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल पाते।
गुरु शिष्य से किसी भेंट की अपेक्षा नहीं करता। उसे तो केवल निश्छल प्रेम द्वारा अपना बनाया जा सकता है। एक शिष्य गुरु को धन, यश, प्रतिष्ठा, भेंट आदि द्वारा प्रभावित करने की अपेक्षा श्रद्धा सुमन तथा प्रेमाश्रुओं द्वारा गुरु के हृदय में स्थान बनाने का प्रयास करता है।
शिष्य का एक सर्वोच्च गुण है गुरु में श्रद्धा। केवल गुरु मंत्र जप करने से श्रद्धा प्रमाणित नहीं होती। सच्ची श्रद्धा तो यह है कि शिष्य पर कितनी ही विकट समस्याएं क्यों न टूट पडें वह निडर रहे और मन में अटल विश्वास रखे गुरु जब साथ है तो कुछ उसका अहित नहीं हो सकता। केवल यह कहने से कि मुझे गुरु पर विश्वास है, श्रद्धा व्यक्त नहीं होती। श्रद्धा तो तब व्यक्त होती है जब विषम से विषम स्थिति में भी शिष्य निष्कंप तथा अविचलित बना रह सके।
व्यक्ति शिष्य तब कहलाता है जब वह गुरु के कार्यों को पूर्णता प्रदान करने में अपना तन-मन लगा देता है। गुरु को वह शब्दों द्वारा प्रसन्न करने की अपेक्षा उनके कार्यों में सहायक बनकर उनके हृदय पटल पर अपना नाम सदा के लिए अंकित कर देता है।
शिष्य हर क्षण गुरु को अपने समीप अनुभव करता है, चाहे वह शारीरिक रूप से गुरु से मीलों दूर ही क्यों न हो और जब वह ऐसा अनुभव करता है तो फि़र जीवन में कोई उसका कुछ अहित ही नहीं कर सकता और यही नहीं वह स्वयं भी कुछ गलत कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि तब गुरु स्वंय उसे सही मार्ग पर बराबर अग्रसर करते ही रहते हैं।
शिष्य को नाम या यश प्राप्त करने के लिए गुरु का कार्य नहीं करना चाहिए, उसका नाम हो या नहीं हो, गुरु के हृदय में तो वह शिष्य सबसे प्रिय है जो बिना शोर करे या बिना धामंड के गुरु कार्य में रत रहता है।
शिष्य वह है जो छाया की तरह गुरु के साथ रहे जैसे छाया, आदमी से अलग नहीं हो सकती, आप दो कदम चलेंगे तो छाया भी साथ चलेगी। शिष्य भी ऐसा ही हो और जब भी गुरु आवाज दे वह सामने खडा हो।
उसके अंदर हर समय गुरु के पास रहने की तड़प हो। गुरु की रक्षा के लिए, गुरु की सेवा के लिए, गुरु के दर्द को बांटने के लिए वह हर समय तत्पर हो, तैयार हो।
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