सौभाग्यशाली व्यक्तियों के ही गृहस्थ जीवन में पूर्ण माधुर्य, आनन्द और उल्लास रहता है। वस्तुतः जीवन अनेक रसों का एक पुंजीभूत स्वरूप होता है। इसी हेतु अधिकांश साधकों की इच्छा रहती है कि उसे श्रेष्ठ संस्कारवान संतान प्राप्त हो, नारियों में यह चिंतन विशेष कर होता है, वे अपने जीवन में इन सभी चिंतनो के प्रति अधिक सजग व चिंतित रहती हैं।
किन्तु ऐसी स्थिति में जहां संतान संस्कारों के अभाव में गलत मार्ग का चयन कर लेती हो, वह अनेक अर्नगल क्रियाओं में संलिप्त हो जाये और उससे बड़ी बात माता-पिता का सम्मान ना करती हो। ऐसी स्थितियां अत्यधिक कष्टदायक होती हैं। जिस पुत्र के कंधों पर प्रोढ़ावस्था का भार था, जब वह ही हाथ छुड़ा कर भागता हो, तो फिर माता-पिता किस के सहारे जीवन यापन करें। इन सब क्रियाओं से केवल सामाजिक आलोचना ही नहीं वरन् माता-पिता की पीड़ा दोहरे स्तर पर होती है। बाह्य पीड़ा का तो फिर भी एक बार निदान संभव हो सकता है, किन्तु इसकी जो अन्तसः पीड़ा पल- प्रतिपल जीवन में मथती रहती है, उसका व्याख्यान करना संभव ही नहीं होता। पुरुष के लिये ऐसी स्थितियां फिर भी इतना अधिक पीड़ादायक नहीं होती हैं। किन्तु इसके विपरीत स्त्री के लिये यह स्थिति बहुत पीड़ादायक होती है।
वास्तव में नारी के लिये सौभाग्य संतान से वंचित होना, उसे किसी दुर्भाग्य से कम नहीं प्रतीत होता और यह स्थिति तो किसी भी स्त्री के जीवन में घटित हो सकता है। क्योंकि आन्तरिक पीड़ा प्रत्येक नारी में एक समान होता है। सांसारिक व्यक्ति के पास सभी भोग-विलास के साधन भू-भवन, धन-लक्ष्मी, वाहन सुख, कार्य-व्यापार सर्वश्रेष्ठ रूप में है, परन्तु यदि संतान उसकी सुसंस्कारवान नहीं है तो उक्त सभी सुख के साधन नरक स्वरूप है। संतान के कुसंस्कारी होने से न केवल माता-पिता वरन कुल व संतान का भी नाश होता है।
इन स्थितियां का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इन कारणों में तंत्र प्रयोग, गृह दोष, पितृ दोष अथवा पूर्वजन्म कृत दोष आदि आते हैं। आधुनिक युग में माता-पिता की धारणा यही रहती है कि मेरी संतान येन-केन प्रकारेण अधिक से अधिक धन संचय की क्रिया करे।
इन सभी भावों के कारण संतान नास्तिक व अनेक कुपथगामी क्रियाओं की ओर अग्रसर हो जाती है। इसका प्रभाव वर्तमान में जगह-जगह खुल रहे वृद्धाश्रम इसके साक्ष्य हैं। यदि ऐसे में भी आज का व्यक्ति जाग्रत नहीं हुआ और अपनी संतान को श्रेष्ठ चेतनावान सुसंस्कारों से आपूरित नहीं कर पाता है, तो उसे भविष्य में अनेक दुष्कर परिणाम भोगने ही पड़ेगें।
ऐसे में हमे प्रारम्भ में ही ऐसे उपाय करने होगें, जो हमारी संतानों को श्रेष्ठ सुसंस्कार से आपूरित कर सके। जिन परिवारों में पुत्र-पुत्रियां सुसंस्कावान व माता-पिता की आज्ञाकारी स्वरूप में है तो वह परिवार सर्वश्रेष्ठ धनाड्य है और इसी से आने वाली अनेक-अनेक पीढि़यों का नाम प्रेरणा स्वरूप में ऐतिहासिक बन जाता है।
मूलतः यह दीक्षा सौभाग्य शक्ति युक्त सुसंस्कारवान संतान प्राप्ति की है। संतान सम्पन्न दम्पत्तियों के लिये इस दीक्षा का महत्व सर्वोपरि है, साथ ही संतान प्राप्ति में भी यह दीक्षा पूर्ण प्रभावशाली है, जो संतान प्राप्ति के साथ-साथ गर्भस्थ में ही संतान को सुसंस्कारवान निर्मित करने में सहायक है।
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