उदर के जितने भी रोग हैं, सबके सब असंयम और आहार-विहार की गड़बड़ी से ही पैदा होते हैं। खासतौर से अनियमित मल-मूत्र त्यागने, अनियमित भोजन-पान करने, पूरी नींद न लेने, पानी कम पीने, मानसिक चिन्ता करने, अप्राकृतिक और तली-भुनी चीजें खाने, भूख से ज्यादा खाने, बिना भूख के खाने, भूख से बहुत कम खाने, बिना चबायें खाने, उत्तेजक दवाइयों के सेवन करने, नियमित रूप से कोई व्यायाम न करने तथा कभी-कभी उपवास न करने से कोई न कोई उदर रोग अवश्य हो जाता है।
इस बार एक ऐसे रोग का वर्णन किया जा रहा है, जिसका सम्बन्ध बड़ी आंत से है। दूषित आहार-विहार का सेवन करने से जब दस्तों की शिकायत हो जाती है, तब प्रत्येक पीडि़त का फर्ज बनता है कि वह अतिसार यानी दस्त रोग की विधिवत चिकित्सा कराये ताकि वे सारे कारण दूर हो जायें, जिनसे रोग उत्पन्न हुआ है। लेकिन रोगी यहां भी लापरवाही का दामन पकड़े रहता है और ज्योंही थोड़ा सा आराम दिखाई देता है, वह इलाज छोड़कर फिर से पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। उधर उदर में पनना रोग आधी-अधूरी चिकित्सा से नष्ट हो पाता और बचा हुआ रोग धीरे-धीरे अपनी गोटें बड़ी आंत में फिट करने लगता है, नतीजतन बड़ी आंत में छोटे-छोटे घाव बनने लगते हैं।
और एक नया और अधिक कष्टकारी रोग वृणात्मक वृहदान्त्र शोथ यानी अल्सरेटिव कोलाइटिस की उत्पत्ति होती है। अल्सरेटिव कोलाइटिस की शुरुआती अवस्था में आंतों में दर्द, पीड़ा और खून मिला मल तेजी से आता है। मल में जब लाल या पुराना काला खून मिला हुआ दिखाई दे तब यह अल्सरेटिव कोलायटिस का ही लक्षण होता है। यदि मल त्याग हो जाने के बाद लाल खून की बूदें टपकने लगें अथवा खून की महीन पिचकारी सी छूटे तब यह खूनी बवासीर का लक्षण होता है। अल्सरेटिव कोलायटिस में खून मिला मल निकलता है। बड़ी आंत की श्लेष्म कला में सूजन आने पर तीन तरह की बीमारी हो सकती है।
1- जब सूजन बहुत ज्यादा हो- उग्रश्लेष्मल शोथ।
2- जब सूजन लम्बे समय से हो- जीर्णश्लेषमल शोथ।
3- जब सूजन के साथ घाव भी हो- व्रणयुक्त वृहद आंत्रशोथ।
यह देखा गया है कि इस रोग में किसी तरह के ऐसे विषाणु, जीवाणु नहीं मिलते जिनकी वजह से रोग पनपा है। जबकि मरोड़, टाइफाइड, आंतों के कैंसर आदि रोगों में रोगों के बाद ऐसे लक्षण दिखाई देते हैं।
कारणः अल्सरेटिव कोलाइटिस प्रायः 20-40 साल की उम्र के दरम्यान स्त्री-पुरुषों में उभरता है। 60 साल के बाद यह रोग बहुत कम मामलों में पाया जाता है। यह रोग क्यों होता है, इस बारे में कोई निश्चित कारण तो नहीं हैं, लेकिन मानसिक तनाव, रोग निवारण क्षमता में कमी हो जाना आदि इसके कारण हो सकते हैं। माना जाता है कि जठर के उपदंश की तरह यह रोग भी शारीरिक की अपेक्षा मानसिक ज्यादा होता है। वे लोग जिन्हें तनावों के मध्य काम करते रहना पड़ता है, इस रोग की चपेट में ज्यादा आते हैं।
प्रायः इस रोग को लम्बे समय तक रहने वाला रोग माना जाता है, लेकिन कभी-कभी यह तीव्र रूप से शुरु होता है। अल्सरेटिव कोलाइटिस के शुरुआती लक्षणों में सबसे पहले बड़ी आंत में सूजन आ जाती है, फिर वहां व्रण हो जाता है। जो इलाज कराने पर ठीक भी हो जाता है, लेकिन उस जगह का लचीलापन खत्म हो जाता है और वह कठोर हो जाती है। शुरुआत से लेकर अंतिम स्थिति तक अल्सरेटिव कोलाइटिस को तीन स्थितियों में बांटा जा सकता है।
पहली स्थितिः रोग की पहली स्टेज के दौरान रोगी को इस बात का पता ही नहीं चलता कि रोग ने अपने पैर जमाने शुरु कर दियें हैं। इस समय एकदम धीमी गति से बड़ी आंत में उसका असर होने लगता है। रोगी को ऐसा आभास होने लगता है कि उसके पेट में कुछ न कुछ गड़बड़ जरुर है, वह चिन्तित रहने लगता है, उसकी मलत्याग क्रिया अनियमित होने लगती है।
दूसरी स्थितिः धीरे-धीरे रोग बढ़ता हुआ नयी-नयी परेशानियां पैदा करने लगता है। अब उदर में भारीपन रहता है, थोड़ा-थोड़ा दर्द भी होता है। बड़ी आंत से व्रण रिसने लगता है, जिससे मल में खून लिपटा हुआ आता है, मल चिकनापन लिये होता है। कई बार मल कम और खून तथा श्लेष्मा ज्यादा दिखाई देती है। यदि व्रण मलद्वार तक पहुंचा हों तो पीठ दर्द और मरोड़ होती है।
तीसरी स्थितिः रोग की गम्भीरता तीसरी स्थिति में देखने में आती है। कई रोगियों में तो सीधे-सीधे यही स्थिति आ जाती है। इस समय रोगी को बुखार रहता है, दस्त में खून ज्यादा, भूख नहीं लगती है, वजन घट जाता है। बड़ी आंत वाली जगह पर हाथ रखने से काफी दर्द होता है।
आधुनिक चिकित्सा में ऐसा माना जाता है, कि इस रोग से ग्रसित कोई भी रोगी ठीक नहीं होता है। अधिकतर क्लिष्ट रोगी ही होते हैं। इस रोग को अधिक भयंकर नहीं समझना चाहिये।
अन्यथा जब तक चिकित्सा चलती रहती रोग दबा रहता है। यह रोग प्रबल होकर पुनः पुनः अच्छा हो जाता है। यदि प्रथम वर्ष में रोगी की अवस्था सुधर जाती है, तो यह रोग वर्षों तक भी घातक नहीं होता है।
कोलाइिइस की चिकित्सा में सबसे पहले प्रायः खून बन्द करने वाली दवाइयां दी जाती हैं, जब मल के साथ खून का जाना बन्द हो जाता है, तब रोगी में बढ़ती जा रही कमजोरी भी थम जाती है और रोगी को इलाज में सफलता का विश्वास होने से उसका मानसिक तनाव भी कम होने लगता है। बोलबद्ध पर्पटी, बोलबद्ध रस, शोणितार्गल रस तथा चन्द्रकला रस या विजय पर्पटी आदि दवाईयों के सेवन से मल के साथ रक्त जाना रुक जाता है। इसके लिये इनमें से किसी भी एक औषधि की दो-दो गोलियां चार-चार घंटे पर पानी के साथ लेना चाहिये। यदि ये औषधियां चूर्ण रूप में हों तब इनमें से किसी एक की 1-1 ग्राम मात्रा पानी से चार-चार घंटे पर लें।
जरुरत पड़ने पर दो या तीन प्रकार की औषधियों का सेवन भी एक साथ कराया जा सकता है। जब मल के साथ रक्त का गिरना रुक जाता है तब दवाई की मात्रा कम कर दी जानी चाहिये। आयुर्वेदिक चिकित्सा में पर्पटी के योग बहुत उपयोगी पाये गये हैं। इनसे शरीर को ताकत भी मिलती है।
रक्त बन्द हो जाने के बाद इलाज की अगली स्टेज शुरु होती है और वह है व्रणों के भरने की। इसके लिये ईसबगोल, बेलगिरी, कुटज का मिश्रण दिन में कई बार पानी के साथ देना चाहिये। ऐनिमा का उपयोग भी किया जाता है। राल, माजूफल, मोचरस, गोंद, इन्द्रजौ, गूलर की छाल आदि का काढ़ा बनाकर उसका ऐनिमा लेने से अल्सरेटिव कोलाइटिस धीरे-धीरे मिटता चला जाता है।
अल्सरेटिव कोलाइटिस में लाभकारी औषधिायां कुटज की छाल और बीज (इन्द्रजौ) ये दोनों ही कोलाइटिस रोग में बहुत उपयोगी रहते हैं। कुटज की छाल का चूर्ण या इन्द्रजौ का चूर्ण अथवा इन दोनों के चूर्ण का मिश्रण करके 3-3 ग्राम दिन में तीन बार पानी के साथ दें। कुटज घनवटी की 2-2 गोलियां दिन में तीन बार (सुबह-दोपहर-शाम) पानी या छाछ के साथ दें। भोजन के बाद 25 मिलीकुटजारिष् ट समान मात्रा में पानी मिलाकर लेना भी लाभकारी है। रोग की तीव्रता के अनुसार कुटज चूर्ण, कुटज घनवटी और कुटजारिष्ट तीनों का सेवन एक साथ भी किया जा सकता है।
बेल के सूखे फल का चूर्ण दिन में तीन बार तीन-तीन ग्राम की मात्रा में पानी के साथ लेना उपयोगी रहता है।
गूलर (उदुंबर) की छाल का काढ़ा बनाकर पीना या उसका एनिमा लेना उपयोगी रहता है।
अल्सरेटिव कोलाइटिस में उपयोग शतावरी क्षीरपाक 10-15 ग्राम शतावरी चूर्ण को 200 ग्राम पानी और 200 ग्राम दूध के मिश्रण में मिलायें, साथ स्वादानुसार शक्कर और छोटी इलायची के दाने डालकर धीमी आंच पर पानी जल जाने तक उबालें, बाद में नीचे उतारकर ठण्डा करें। दिन में 2-3 बार तक सेवन करें।
सौंफ 100 ग्राम, छोटी हरड 100 ग्राम, सोंठ 100 ग्राम, ईसबगाल की भूसी 100 ग्राम और मिश्री 300 ग्राम सबको अलग-अलग कूटकर कपड़े से छान कर चूर्ण बनाकर आपस में मिलाकर सुरक्षित रख दें। 3-4 ग्राम दिन में 2-3 बार पानी या मठ्ठे के साथ लेना चाहिये।
एक सेब छील कर इसके चारों तरफ जितनी लौंग आ सकें, चुभो दें। अब इस सेब को चार दिन तक फ्रिज में रख दें। बाद में लौंग निकालकर शीशी में रख दें। जरुरत पड़ने पर भोजन के बाद दोनों समय एक-एक लौंग का सेवन करें।
इससे अमाशय की कमजोरी समाप्त होकर शक्ति मिलेगी। आमाशय की पीड़ा दूर कर स्वस्थ बनाने का उपाय
देशी अजवायन बारह ग्राम, काला नमक तीन ग्राम और हींग 20 ग्राम। सबको बारीक पीसकर शीशी में भरकर सुरक्षित रखें।
सुबह-शाम आधा से एक ग्राम तक हल्का गर्म पानी के साथ लेते रहें।
इसके सेवन से अमाशय की पीड़ा मिटती है। भूख खूब लगने लगती है। गरिष्ठ भोजन भी पच जाता है।
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