इसीलिये हमारे संत महात्मा कहते हैं कि जीवन की तीव्र इच्छायें धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति को पूर्ण शांतता के साथ जीवन में उतारने की क्रिया करनी चाहिये। संसार रूपी नदी को पार करना हो तो निरन्तर पुरूषार्थ रूपी क्रिया में सलंग्न रहना चाहिये। क्रोध के द्वारा जीवन की दिशा को श्रेष्ठता ओर पूर्णता की और गतिशील नहीं किया जा सकता। जीवन में दशा उसी की खराब होती है जिसे सही दिशा नहीं मिलती और सही दिशा के लिये जीवन में पुरूषार्थ का भाव निरन्तर बना रहे और सही गुरू अपने साधक, शिष्यों को पुरूषार्थ रूपी चेतना और चिंतन दे कर निरन्तर और निरन्तर जीवन में श्रेष्ठता और पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। सही अर्थो मे भाव विचार के साथ क्रियात्मक चिंतन और कर्म की निरंतरता रहना आवश्यक है। मात्र केवल विचार करने से, योजनायें बनाने से अथवा इच्छायें या मनोकामनायें व्यक्त करने से ही अभिलाषाये पूर्ण नहीं हो पाती है। वर्तमान को जिस तरह से सीचोंगे उसी तरह से पौधा और वृक्ष निर्मित होगा और उसी अनुरूप मिठास अथवा कड़वाहट पूर्ण फल की प्राप्ति होगी अर्थात् इन सभी स्थितियों के लिये कर्म का भाव प्रमुख है और उसी के अनुरूप क्रियात्मक स्थिति प्राप्त होती है।
यह भी विचार करे कि जैसे जीवन के समय बीतते गये, वैसे ही यह समय भी बीत जायेगा और क्या आगे भी इसी तरह की स्थिति रहेगी? क्या जीवन में केवल उम्र बढ़ने के अलावा और कोई वर्तमान स्थितियों में बदलाव या प्रगति की स्थिति प्राप्त हुई अथवा क्या जीवन में सुस्थितियां आ सकेगी और इन सुस्थितियों की प्राप्ति के लिये कोई भी योजना और उस योजना को पूर्ण करने की एकरूपता और निरन्तरता का भाव जीवन में रहा है इस पर विचार करना और मनन करना आवश्यक है। ऐसा करना इसीलिये आवश्यक होता है क्योंकि जब जीवन में सुस्थितियों के निर्माण के लिये न तो कोई रूप रेखा होती है न ही कोई क्रियात्मक भाव चिंतन होता है। जीवन एक ROUTINE LIFE की तरह ही व्यतीत होता जा रहा है। इसी के कारण से जीवन सामान्य सा बना रहता है, न तो हममें कर्म का भाव होता है और न ही अपने प्रति समर्पण का भाव होता है। केवल और केवल सपने बुनते रहते है, ये सपने कैसे पूरे होंगे? जब कि वास्तव में जिस भी व्यक्ति में कर्म के प्रति समर्पण का भाव होता है तो उसे जीवन में पूर्णता और शांति मिलती ही है। उसका अहंकार नष्ट होता जाता है। समर्पण की भावना रहने से नम्रता बनी रहती है और मनुष्य विपत्ति के समय जब संघर्ष करके थक जाता है, जब उसे कोई उपाय व मार्ग नहीं सूझता तब अन्ततः वह प्रभु या गुरू की शरण में जाता है और यही भावना और धारणा बनती है कि गुरू ही मेरा भार पार करेंगे। इस तरह जब गुरू के प्रति समर्पण भाव आता है तो उसी समय से जीवन में पूर्णता मिलनी प्रारम्भ हो जाती है और जीवन क्रियात्मक इच्छाओं की पूर्णता प्राप्ति के लिये गुरू के द्वारा निरन्तर शक्ति प्राप्त होती रहती है, ऐसा लगता है कि मेरी पीठ मजबूत है मेरे पीछे भी किसी का सहारा है।
मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण होने से नाग भी कण्ठहार बन गया और मीरा को जो विष पिलाया गया वह भी अमृत में परिवर्तित हो गया। महाभारत युद्ध से पूर्व द्रौपदी चीरहरण के समय वह अपने पाण्डवों के बल पर गर्वित थी और जब भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गई तब श्रीकृष्ण ने उसकी लाज बचाई। इसीलिये जब व्यक्ति देवता या गुरू को प्रणाम कर समर्पित होता है जो उसके सिर पर पड़ी पाप की गठरी स्वतः गुरू चरणों में गिर जाती है एवं गुरू स्वयं उसका योग और क्षेम वहन करते हैं। अतः समर्पण एक गुप्त शस्त्र है जो सदा साधक के साथ रहता है। समर्पण भाव से ही चित्त शुद्ध होता है। जब तक अहं भाव रहता है तब तक चित्त शुद्ध नहीं होता, अर्थात् जीवन मे अहं भाव से ही मन अनेक अनेक दिशाओं की ओर गतिशील रहता है और जब मन अनेक दिशाओं की ओर अग्रसर रहेगा तो कोई भी इच्छा, भावना धारणा को मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है।
मनुष्य में बुराई व कुसंस्कार का भाव चिंतन ऊपर की ओर अर्थात् सदैव मस्तिष्क में बना रहता है और लोभवश मनुष्य बुराई को जल्दी ग्रहण कर लेता है। जब इस अहं भाव से जीवन में असफलता आती है तो व्यक्ति के भीतर और अधिक तीव्रता से ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्यता, क्रोध और अशांति रूपी विष बनते रहते हैं और उसी के प्रभाव से जीवन विषाक्त पूर्ण बन जाता है। कोई वस्तु नीचे पड़ी हो तो उसको उठाने के लिये आपको झुकना ही पड़ेगा। मनुष्य के भीतर अच्छाई हमेशा हृदय भाव में दबी पड़ी रहती है। उसको उठाने के लिये मनुष्य को भीतर झांकना ही पड़ता है और अच्छाई को ग्रहण करने के लिये हृदय की गहराई में उतरना पड़ता है। गुरू, माता, पिता, ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को नीचे झुकना ही पड़ता है।
तानसेन अकबर के दरबार में प्रसिद्ध गायक थे। बैजू बावरा भी संगीत में रूचि रखता था। उसके मन में तानसेन से अधिक प्रसिद्ध गायक बनने की इच्छा प्रकट हुई। तब तानसेन के गुरू के पास संगीत सीखने के लिये गया। गुरू से प्रार्थना की कि मुझे ऐसी शिक्षा दीजिये की मैं तानसेन से श्रेष्ठ गायक बन सकूं। तब तानसेन के गुरू ने कहा कि सबसे पहले तुम तानसेन के प्रति ईर्ष्या को समाप्त करो तथा संगीत के प्रति समर्पित हो। बैजू बावरा ने गुरू के बताये अनुसार वैसे ही किया और तानसेन से अधिक श्रेष्ठ गायक बना। शास्त्रें में कहा गया है कि क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है, लोभ सब कुछ नष्ट करता है, जबकि दुनिया के सभी प्राणी प्रेम के भूखे-प्यासे, सभी प्रेम चाहते है लेकिन बीज क्रोध के बोते हैं। जब कोई बीज क्रोध के या विष के बोयेगा तो प्रेम या अमृत रूपी फल कैसे प्राप्त होंगे। घृणा, क्रोध, द्वेष का नाश होने पर ही प्रेम में वृद्धि होती है।
अहंकारी अपनी विनम्रता को नष्ट कर देता है और विनम्रता नष्ट होते ही व्यक्ति के जीवन का विकास रूक जाता है, ज्ञान की, चेतना की, क्षमता समाप्त हो जाती है। अहंकारी तो बहुत बड़ी भ्रांति में जीता है। अहंकारी की भ्रांति यह है कि जैसे मैं केन्द्र हूँ सारे परिवार का, समाज का, संसार का, जैसे सब मेरे लिये है और मैं किसी का नहीं सब मेरे आधीन है और मै साध्यय हूं इसलिये अहंकारी सोचता है कि मेरे सुख के लिये सभी को दुःखी भी होना पड़े तो भी ठीक है क्योंकि वह केवल और केवल स्वहित के बारे में ही निरन्तर निरन्तर विचार और क्रिया करता रहता है। अहंकारी अपने को ही अस्तित्व का केन्द्र मानता है। विनयशीलता ही जीवन की पूर्णता का मार्ग है, लघुता से ही प्रभुता और श्रेष्ठता आती है। विनयवान का ही सत्य से, ईश्वर से, गुरू से साक्षात्कार होता है सत्य अर्थात इष्टमय, ईश्वरमय, गुरूमय बनने की क्रिया सांसारिक जीवन में मार्गदर्शन बताने हेतु गुरू मित्र, सखा या सारथी स्वरूप होता है। आप अपने गुरू के सामने बिल्कुल खाली हो, क्योंकि आप जानते हो कि सही गुरू वही है जो जैसे आप है वैसा ही वह स्वीकार करे और जब गुरू हर रूप में आपको स्वीकार करता है तो तभी वह नर से नारायण बनाने की क्रिया प्रारम्भ कर सकता है।
केवल गुरू के सामने ही तो आप अपना पाप, अपना अपराध, अपना दुःख, पीड़ा संताप सभी कुछ प्रकट कर सकते है क्योंकि अपने गुरू पर ही पूरा विश्वास होता है और वह इन अभावों को समाप्त करने की क्रिया करता है। गुरू की निरन्तर सानिध्यता से जिसने मैत्री सीखी, जिससे विनय के लिये मांग छोड़ी और जिसने जीवन का सृजनात्मक गति देने के लिये लोभ से विदा ली, उसी ने ही अपने इष्ट या सद्गुरू को प्राप्त किया। उसी के हृदय में गुरू रूपी परमात्मा का कमल खिलता है, उसी के आंखों में गुरू का वास होता है। तभी वह संतमय देवमय स्थिति को अर्थात् पूर्णता की स्थिति को प्राप्त होता है और संत तो वह है जो सहजता को स्वीकार करता है, सदा प्रसन्न रहता है, प्रकृति के अनुरूप चलता है। जिसमें लघुता, सहजता और सरलता होती है।
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