इस सिद्धाश्रम की अलौकिकता और दिव्यता का मूल कारण सतत् गुरूत्वमय चिन्तन है। गुरू से भिन्न कोई विचार, कोई तर्क, कोई विवाद वहां सम्भव ही नहीं है, समस्त वातावरण ही गुरूमय है। सिद्धाश्रम गुरूत्व का पर्याय है, केवल गुरू ही लक्ष्य है, गुरू ही देव है, गुरू ही वहां की आराधना, साधना और अर्चना है।
इस दीक्षा का तात्पर्य है सिद्धाश्रम सौभाग्य शक्ति से युक्त होना, अपने आप में सिद्धाश्रम शब्द ही पूर्णता का घोतक है और यदि किसी दीक्षा को सिद्धाश्रम की चैतन्य रश्मियों के साथ आत्मासात किया जाये तो उसकी व्याख्या ही क्या करना, यह तो सद्गुरूदेव का अथाह प्रेम है कि वे इतनी उच्चकोटि की दीक्षायें साधकों-शिष्यों को प्रदान कर उनके आध्यात्मिक व भौतिक जीवन को पूर्णता प्रदान करते हेतु प्रयासरत रहते हैं। इस दीक्षा से साधक सिद्धाश्रममय चेतना को आत्मसात कर सकेगा। जिसके माध्यम से उसके जीवन की अनेक मनोकामनाओं की पूर्ति हो सकेगी और साथ ही जीवन सौभाग्यम बन सकेगा। साथ ही मनुष्य जीवन का यह उद्देश्य भी होता है कि वह अपनी प्रत्येक मनोकामना पूरी करता हुआ सफल जीवन व्यतीत करे और अंत में सिद्धाश्रम को प्राप्त कर सकें।
इस हेतु परम पूज्य सद्गुरूदेव जी संन्यास दिवस के शुभ अवसर पर सिद्धाश्रम सौभाग्य शक्ति प्राप्ति दीक्षा प्रदान करेंगे। जिससे साधक का जीवन सिद्धाश्रम की चेतना से युक्त होकर सुख-सम्पदा, सौभाग्यमय, सफल भौतिक जीवन, कार्य सफलता, व्यापार वृद्धि, दीर्घायु जीवन, सुस्थितियों की प्राप्ति कर सकेगा। शिष्य जीवन का आधार गुरू होता है। जिनकी उपासना, आराधना से ही शिष्य भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त करता है। यह जीवन का सौभाग्य होता है, की शिष्य अपने सद्गुरू की चेतना आत्मसात कर पूर्णता की ओर आग्रसर हो सके।