प्रवृत्तियों का यह संघर्ष मनुष्य के मन में चला करता है तथा उसका मन इन संघर्षों के मध्य चलता रहता है, वर्षों इसी द्वन्द्व में अटका रहता है। जब उसमें ज्ञान, बौद्धिकता तथा विवेकशीलता का उदय होता है तब वह प्रवृत्तियों से विलग होने की चेष्टा करता हैं, उसका यही प्रयास निवृत्ति की ओर झुकाव का द्योतक है। व्यक्ति धीरे-धीरे संयमित और नियमित वृत्तियों के द्वारा निवृत्ति मार्ग पर चल कर आध्यात्मिक जीवन को स्वीकारता है। आध्यात्मिकता तथा सात्विकता के द्वारा वह मोक्ष की ओर ही प्रवृत्त होता है। धार्मिक तथा आध्यात्मिक आधार पर वह आत्मनिष्ठ तथा एकनिष्ठ होकर परमात्मा अथवा परब्रह्म की प्राप्ति की ओर बढ़ता है। मोक्ष प्राप्ति का उसका उद्देश्य जीवन तथा मृत्यु के बंधन से तथा संसार के आवागमन के भंवर से मुक्ति पाना, पूर्णरूपेण आध्यात्मिक तथा धार्मिक होने पर ही सम्भव कहा गया है।
आत्मा तथा परमात्मा का तादात्मय ही मोक्ष तथा परमानन्द की चरमानुभूति है। जीव ब्रह्म में लीन होकर तथा आवागमन के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। आत्मा सीमित है तथा परमात्मा असीम। इसकी प्राप्ति की एकात्मकता स्थापित करना है। अतः मोक्ष परम ज्ञान और आनन्द की वह अवस्था है, जिसमें जीव(आत्मा) अपने परमब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है, मोक्ष की प्राप्ति उसे उसी स्थिति में हो सकती है जब उसमें सात्विकता का विकास हो जाये। सत्व, रज एवं तम प्रवृत्तियां मनुष्य को प्रभावित करती हैं। जब मनुष्य की बुद्धि सात्विक वृत्ति से आवृत होती है तब वह विभिन्न विरोधी प्रवृत्तियों से विलग हो कर सात्विकता के मार्ग का अनुसरण करती है। यही सात्विक मार्ग मनुष्य को मोक्ष की ओर आकृष्ट करता है। सांख्यशास्त्री कहते हैं, कि व्यक्ति पूर्णरूपेण अकर्त्ता एवं अनभिज्ञ है। ऐसी परिस्थितियों में क्रियाओं का कर्त्ता पुरूष न हो कर प्रकृति होती है। मनुष्य की बुद्धि तथा मन प्रकृति के द्वारा संचालित होते हैं, तो प्रकृति माया है, जब मनुष्य को सात्विक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब उस पर से माया का आवरण हट जाता है और उसकी मुक्ति या कैवल्य की स्थिति हो जाती है। यही प्रकृति और पुरूष का सम्बन्ध है।
गीता के अनुसार जो पुरूष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा किया हुआ देखता है अर्थात् इस बात को समझ लेता है, कि प्रकृति से उत्पन्न हुये सम्पूर्ण गुणों में देखते हैं तथा आत्मा का अकर्त्ता देखता है वही वास्तविक रूप में देखता है।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।
वस्तुतः प्रकृति तथा पुरूष के परस्पर सम्बन्ध से ही सम्पूर्ण जगत की स्थिति है। यही गीता का कथन है-
क्षेत्रक्षेत्रसंयोगात्तद्विद्वि भरतर्षभ।।
व्यक्ति जब प्रकृति की शोभा व उसकी सुन्दरता पर मुग्ध एवं मोहित हो जाता है तब वह आध्यात्मिक एवं उच्चकोटि के ज्ञान द्वारा इसकी वास्तविक स्थिति को ज्ञात कर लेता है तब वह उसके साथ तादात्मय स्थापित करता है और प्रकृति उसकी सहचरी बन जाती है ब्रह्म अथवा परमात्मा से आत्मा का सम्मिलन ही मोक्ष है।
आत्मज्ञान की पूर्णता ही ब्रह्म की निकटता है, जो कि मोक्ष भी है। अन्तस की अज्ञानता तथा भ्रामकता मनुष्य के लिए ब्रह्म प्राप्ति में अवरोधक है। अतः इस अज्ञानता का जब नाश हो जाता है तब वास्तविक अर्थों में ज्ञान की प्राप्ति होती है और इसे ही मोक्ष कहा जाता है। जो व्यक्ति निश्चयपूर्वक अन्तरात्मा में ही सुख पाता है ऐसा योगी परब्रह्म के साथ एकीभूत होकर शान्त ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है-
योऽन्तः सुखान्तरायस्त थान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।
काम, क्रोध से रहित, विजित चित्त पर ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार कर चुके ज्ञानी पुरूषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा है-
काम क्रोध वियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्म निर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।
अपनी दुष्प्रवृतियों तथा अज्ञानताओं से रहित होने की सच्ची अनुभूति होती है और तभी परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। इसके साथ ही अपनी इन्द्रियों, मन और बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वतः ही प्राप्त हो जाता है-
यतेन्द्रियमनो बुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।
इस प्रकार ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है-
ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति।
मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है, कि वेदों का ज्ञान प्राप्त करें, धर्मानुसार पुत्रों को उत्पन्न करें, शक्ति के अनुरूप यज्ञों का अनुष्ठान करें, तत्पश्चात् मोक्ष का निवेशन करें-
अधीत्यविधिवद्वेदान्पुत्रंश्चोत्पाद्य धर्मतः।
इष्ट्वा च शक्तितोयज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्।।
मनु के अनुसार तीनों ऋणों- देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण को पूर्ण करके ही व्यक्ति को अपना मन मोक्ष में लगाना चाहिये। इन ऋणों का शोध किये बिना मोक्ष का सेवन करने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है-
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः।।
विष्णु पुराण के अनुसार सभी कार्यों अर्थात सभी आश्रमों के कार्य सम्पादित करने के पश्चात ही ब्रह्मलोक अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है-
मोक्षाश्रमं यश्चरते यथोक्तं। शुचिस्सुखं कल्पित बुद्धियुक्तः।
अविन्धनं ज्योतिरेव प्रशांतः स ब्रह्मलोकं श्रयते द्विजातिः।।
वायु पुराण में कहा है, कि अंतिम आश्रम का अनुवर्ती व्यक्ति शुभ तथा अशुभ कर्मों का त्याग कर जब अपना स्थूल शरीर छोड़ता है तब वह जन्म-मृत्यु एवं पुनर्जन्म से पूर्णतः मुक्त हो जाता है-
अवस्थितो ध्यानरतिः जितेन्द्रियः। शुभाशुभे हित्य च कर्मणी उभे।।
इदं शरीरं प्रविमुच्च शास्त्रे। न जायते म्रियते वा कदाचित्।।
ब्रह्माण्ड पुराण तथा वायु पुराण में उल्लेख मिलता है, कि मोक्ष प्राप्ति के लिये यति धर्म का पालन करते हुए मित्र ज्योति के पुत्रों ने अपने को ब्रह्म में लीन किया था- यतिधर्मवात्येह ब्रह्मभूयाय ते गताः।
कर्म तथा ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष प्राप्त करने के लिये एक अन्य साधन भक्ति का मार्ग है। गीता में इस विषय को लेकर विशद चर्चा की गई है तथा भक्ति को अपेक्षाकृत श्रेयस्कर माना गया है। भक्ति मार्ग में मनुष्य ब्रह्म के सगुण रूप की परिकल्पना करके उपासना करता है और अपने को पूर्ण रूप से ब्रह्म की सेवा में समर्पित कर देता है। ब्रह्म ही जीव का सब कुछ हो जाता है- स्वामी, गुरू, माता, पिता, सखा आदि। उसके साकार रूप की उपासना होती है तथा उस तक पहुँचने के लिये अपार भक्ति की जाती है। मनुष्य अपनी सब इच्छाओं को त्याग कर तथा फल की आकांक्षा किये बिना अपने को ईश्वर के प्रति उत्सर्ग कर देता है, ऐसी स्थिति में वह सुख-दुःख, ऊंच-नीच, अच्छा-भला तथा जन्म-मृत्यु सभी भूल जाता है, यही सच्ची भक्ति है।
मोक्षाकांक्षी व्यक्ति के लिये रागद्वेष, लोभ-मोह पर नियंत्रण, अहिंसा का पालन अत्यन्त ही आवश्यक है। इन कर्त्तव्यों का पालन करने से वह अपनी आत्मा को शुद्ध, उदात्त एवं दिव्य बना कर ही मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकेगा।
विष्णु पुराण में भी कहा गया है, कि मोक्ष के आकांक्षी व्यक्ति को शत्रु-मित्र सभी से समभाव रखते हुये कभी किसी प्राणी से द्रोह न करें। मत्स्य पुराण काम के त्याग पर भी बल देता है। मनु ने भी कहा है-
एवं संन्यस्य कर्माणि स्वकार्यपरोस्पृहः।
संन्यासेनापहत्यैनः प्राप्नोति परमांगतिम्।।
अर्थात् ‘स्पृहाहीन समभाव वाला व्यक्ति निश्चित रूप से आत्मज्ञान प्राप्त करता है एवं अपने लक्ष्य प्राप्ति में सफल होता है। अन्ततः उसे परमगति अर्थात् मोक्ष प्राप्त होती ही है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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