THERMAL PHYSICS के सिद्धान्तों के अनुसार सफेद की अपेक्षा काले रंग की वस्तु अधिक मात्रा में सूर्य की किरणों व ताप आकर्षित करती है। इस बात की जांच प्रयोगशाला में की गई है। दो शीशे के बर्तनों को लिया गया, जिनमें से एक सफेद तथा दूसरा काला था। उन दोनों बर्तनों को सूर्य की धूप में रखा गया। 5 मिनट बाद THERMOMETER से तापमान नापा गया, तो यह पाया गया की काले बर्तन का तापमान सफेद की अपेक्षा 5 डिग्री अधिक था। यदि आप सफेद या काले कपड़े के दो समान टुकडे़ लीजिये और धूप में उन्हें सूखने के लिये रख दें, तो आप देखेंगे कि काला कपड़ा सफेद की अपेक्षा जल्दी सूख जाता है। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है, कि काली वस्तुओं में सूर्य-किरणों को आत्मसात् करने की विशेष शक्ति होती है।
मेधा एवं बुद्धि के लिये जिस गायत्री मंत्र की उपासना की जाती है, वह सूर्य की ही उपासना होती है, क्योंकि सूर्य को बुद्धि और तेजस्विता का भण्डार माना गया है। शिखा के ठीक नीचे बुद्धि का केन्द्र होता है, शिखा अपने काले रंग के कारण सूर्य से मेधा प्रकाशिनी शक्ति का विशेष आकर्षण करके बुद्धि को ऊर्ध्वगामी और उन्नत बनाती है, इसी सिद्धान्त को मानस में रखते हुये शिखा धारण करने का विधान प्रचलित हुआ है।
शिखा के आकार का यदि अध्ययन किया जाये, तो यह एक तरह से सिर के ऊपरी भाग से लगे LIGHTENING CONDUCTOR की तरह है। ELECTROSTATIC के सिद्धान्तों के अनुसार नुकिली वस्तु समतल वस्तु की अपेक्षा अधिक विद्युत आवेश को आकर्षित करती है। इसी सिद्धान्त के अनुरूप ऊंची-ऊंची इमारतों में धातु निर्मित रॉड या LIGHTENING CONDUCTOR लगाये जाते हैं, जिसके द्वारा आकाश से गिरने वाली बिजली गिर कर एन्टीने के माध्यम से भूमिगत हो जाती है और इमारत या आस-पास की आबादी को कोई क्षति नहीं पहुँचाती है।
नुकिली वस्तुओं में विद्युत को आकर्षित करने का गुण अधिक होता है। इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुये शिखा की बनावट उपयुक्त सी लगती है। सूर्य के विकिरण एवं वातावरण में व्याप्त आवेश को शिखा अपने नुकिले होने के कारण सुगमता से आत्मसात कर नीचे ब्रह्मरन्ध्र स्थान तक पहुँचा देती है।
जब साधक साधनात्मक अनुष्ठान, मंत्र जपादि करता है या ध्यान में संलग्न होता है, तो एक अमृत तत्व का सृजन होता है, जो कि शिखा के नीचे स्थित सहस्त्रर में प्रविष्ट हो जाता है। इस अमृत तत्व का केन्द्र सूर्य है, जो कि समस्त तेजस्विता का भण्डार है। साधना काल में उत्पन्न यह अमृत तत्व सहस्त्रर से बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, परन्तु शिखा में लगी गांठ के कारण बाहर नहीं निकल पाता है। शिखा के अभाव में या शिखा में गांठ न लगी होने पर यह अमृत तत्व सूर्य से तो नहीं मिल पाता है, किन्तु अंतरिक्ष में विलीन हो जाता है। इस प्रकार साधनादि क्रिया में उत्पन्न यह ऊर्जा व्यर्थ चली जाती है। शिखा इस ऊर्जा को भीतर ही रोक देने के लिये बांधी जाती है।
विद्युत सिद्धान्त के अनुसार वर्तुलाकार, गोल या आबद्ध वस्तुओं पर विद्युत सहसा संक्रान्त नहीं होती, इसलिये भी शिखा को गोल गांठ देना उचित लगता है, जिससे उत्पन्न ऊर्जा या विद्युत आवेश बाहर वातावरण में निकल कर समाप्त न हो जाये। समाधि के समय अंगुष्ठ और तर्जनी के मेल से वर्तुल बनाना, मुट्ठी बांधना ये सब क्रियाये भी इस विद्युत सिद्धान्त पर आधारित हैं।
संक्षेप में शिखा का कार्य साधक के अन्दर की ऊर्जा को बाहर निःसृत होने से रोकना है एवं सूर्य एवं वातावरण में व्याप्त किरणों को, तेजस्विता को आकर्षित कर आत्मसात करना है। इस दृष्टि से शिखा धारण एवं साधना काल में उसका बंधन अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
जिस स्थान पर शिखा होती है, उसके नीचे PITUATARY GLAND नामक एक ग्रन्थि होती है। इस ग्रन्थि से एक रस का स्त्राव होता रहता है, जो स्नायुओं द्वारा सम्पूर्ण शरीर में संचरित होकर शरीर को बलशाली बनाता है। शिखा द्वारा इन ग्रन्थियों को अपना कार्य करने में सहायता प्राप्त होती है। इससे मनुष्य दीर्घकाल तक स्वस्थ रहकर जीवन यापन करता है और उसकी ज्ञान शक्ति भी उम्र के साथ अक्षुण्ण बनी रहती है।
संसार के अधिकांश सन्त, महात्मा, आध्यात्मिक पुरूष एवं वैज्ञानिकों (वैज्ञानिक अनुसंधान भी एक ऐसी क्रिया है, जिसमें व्यक्ति एक तरह की ध्यानावस्था में चला जाता है, उसे आस-पास की सुध नहीं रहती है और ऐसी अवस्था में विज्ञान के सैकड़ों अविष्कारक हुये हैं, चाहे वो न्यूटन हों या एलबर्ट आंस्टाईन) को यदि देखें, तो उनके बाल लम्बे और घने ही थे। वस्तुतः शिखा बांधकर लम्बे काल तक साधनारत या अनुसंधान रत रहने से जो शक्ति उत्पन्न होती है, वह क्षीण न होकर शरीर में ही विद्यमान रहती है।
वेदों के प्रसिद्ध पाश्चात्य भाष्यकार MAX MULLR ने, शिखा की उपयोगिता के बारे में लिखा है कि शिखा के द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से शक्ति के प्रवाह को धारण कर सकता है।
SIR CHARLES LUKES के अनुसार ‘शिखा का शरीर के उस अंग से अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध है, जिससे ज्ञान वृद्धि और तमाम अंगों का संचालन होता है। जब से मैंने इस विज्ञान की खोज की है, तब से मैं स्वयं चोटी रखता हूँ,
एक सुप्रसिद्ध विज्ञान वेत्ता ने अपनी पुस्तक में लिखा है, कि किसी वस्तु पर चिन्तन करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ती है। यदि ईश्वर पर चित्त एकाग्र किया जाये, तो मस्तक के ऊपर शिखा के रास्ते ओजः शक्ति प्रकट होती है। परमात्मा की शक्ति उसी पथ से अपने भीतर आया करती है।
डॉ. हाय्वमन के शब्दों में- ‘मैंने भारत वर्ष में रहकर भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया है। यहां के निवासी बहुत काल से सिर पर चोटी रखते हैं, जिसका वर्णन वेदों में है। उनकी बुद्धि की विलक्षणता देखकर में अत्यन्त प्रभावित हूं। सिर पर चोटी या बाल रखना लाभदायक है। मैं खुद भी चोटी रखने का कायल हो गया हूं।’
भारतीय मतानुसार साधारण दशा में जब हमारा शरीर रोम छिद्रों द्वारा ऊष्मा को बाहर फेंकता है, तो उसी समय सुषुम्ना केन्द्रों एवं शिखा स्थान से तेज का स्त्राव होता है।
उसी को रोकने के लिये शिखा बंधन का विधान है, जिससे वह तेज शरीर में ही रूक कर मन, मस्तिष्क व शरीर को अधिक उन्नत बना सके। सुप्रसिद्ध विद्वान DR. I.E. CLARK ने लिखा है- ‘अब मैं चीन गया, तो मैंने देखा की वहां के लोग भी भारतीयों की भांति आधे सिर पर ज्यादा बाल रखते हैं। मैंने जब से इस विज्ञान की खोज की है, तब से मुझे यह विश्वास हो गया है, कि भारतीय शास्त्रों का हर नियम विज्ञान से भरा पड़ा है। चोटी रखना हिन्दुओं का धर्म ही नहीं, सुषुम्ना के केन्द्रों की रक्षा के लिए ऋषि-मुनियों की खोज का विलक्षण चमत्कार है।’
इसी प्रकार मि. अर्ल थामन ने संतउ मैगजीन में लिखा है, कि सुषुम्ना की रक्षा भारतीय जहां चोटी लगा कर करते हैं, वहीं अन्य देशों में इसकी रक्षा लम्बे बाल या हैट लगा कर करते हैं, किन्तु दोनों में चोटी रखना ज्यादा श्रेष्ठ है।
साधनात्मक क्रियाओं को मात्र आंखें बन्दकर नहीं अपितु इन क्रियाओं के महत्व को समझते हुए यदि किया जाये, तो उस क्रिया के प्रति श्रद्धा स्वतः ही उपज जायेगी और श्रद्धा ही तो आधार है सफलता का।
निधि श्रीमाली
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