चन्द्रमा मन और मन से सम्बन्धित कार्य, जल, माता, आदर, सम्मान श्री, सम्पन्नता, सर्दी, जुकाम, चर्म रोग, हृदय रोग का कारक ग्रह है। इसका अधिकार सीने पर रहता है और मनुष्य की प्रकृति का अध्ययन चन्द्रमा से ही किया जाता है। चन्द्रमा शीघ्र अपनी गति बदलता है और तुरन्त फल देने वाला या हानि देने वाला ग्रह माना गया है। पूरे महीने में मनुष्य के स्वभाव में जो परिवर्तन होता रहता है उसका कारण चन्द्रमा ही है। इसीलिये मनुष्य अपनी प्रकृति बार-बार बदलता रहता है। जब-जब रोहिणी, हस्त, श्रवण, पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र आते है, तो चन्द्रमा उत्तम फल देता है। गुरू के साथ तो यह उच्च फल देता है। इसके अलावा सूर्य और बुध के साथ भी श्रेष्ठ योग बनाता है।
यात्रा, विवाह, शुभ कार्य, मुहुर्त इत्यादि के लिये चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार ही निर्णय किया जाता है। यह मूल रूप से पश्चिम उत्तर दिशा का स्वामी तथा स्त्री रूप श्वेत, वर्ण, जल तत्व प्रधान ग्रह है। मानव शरीर में जल रक्त रूप में रहता है। इस कारण ब्लड-प्रेशर, हृदय रोग इत्यादि का सम्बन्ध चन्द्रमा से है। स्त्रीत्व ग्रह होने के कारण इस ग्रह की प्रबलता से मनुष्य के स्वभाव में कोमलता, मधुरता, भावना,शील, संकोच इत्यादि गुण आते है। इसके साथ ही शारीरिक पुष्टि, राज्य कृपा, चित्त, माता-पिता तथा सम्पति इत्यादि का अध्ययन इस ग्रह से किया जाता है।
चन्द्रमा की प्रतिकूल स्थिति में व्यर्थ भ्रमण, उदर रोग, जल-कफ, आदि से सम्बन्धित बीमारियाँ होती है। वहीं स्त्री सम्बन्धी रोगों का मूल कारण चन्द्रमा ही है। जन्म कुण्डली में स्थित चन्द्रमा का प्रभाव इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना गोचर में फल देते समय चन्द्रमा की क्या स्थिति है इसका अध्ययन।
रत्न विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा का रत्न मोती है और इसे चाँदी की मुद्रिका में अथवा चाँदी का अर्ध चन्द्र बनाकर उस पर मोती स्थापित कर धारण करना चाहिये। इसे बाएं हाथ की कनिष्ठिका अंगुली में सोमवार को प्रातः चाँदी की मुद्रिका में धारण करना चाहिये।
इस साधना को किसी भी शुक्ल पक्ष के सोमवार की रात्रि में प्रारम्भ किया जा सकता है। रात्रि में स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर, वायव्य दिशा (उत्तर और पश्चिम) के मध्य वाली दिशा की ओर मुख कर आसन पर बैठ जायें। साधना प्रारम्भ करने से पूर्व साधक एक माला गुरू मंत्र जप अवश्य सम्पन्न करे, गुरू से साधना में सफलता के लिये आशीर्वाद प्राप्त करें। अपने सामने चौकी पर एक सफेद वस्त्र बिछा दें। उस पर ‘मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त चन्द्र यंत्र’ स्थापित करें। यंत्र का संक्षिप्त पूजन करने के पश्चात् चंद्र विनियोग करे-
ऊँ अस्य मंगल मन्तस्य विरूपाक्ष, ऋषिः,
गायत्री छन्दः,धरात्मजी भौमो देवता, हृां बीज्म्,
हंसः शक्ति, सर्वेष्ट, सिद्धये जपे विनियोगः।
इसके पश्चात् चन्द्रमा का ध्यान करें-
जपाभं शिवस्वेदजं हस्तपैर्गदाशूल
शक्ति करे धारयन्तम्।
अवंती समुत्थं सुभेषासनस्थं
वराननं रक्तवस्त्रं समीडे।।
ध्यान के पश्चात् चन्द्र गायत्री मंत्र तथा चन्द्र सात्विक मंत्र की एक-एक माला मंत्र जप ‘सफेद हकीक माला’ से करें-
ऊँ अमृतांगाय विùहे कलारूपाय धीमहि तन्नो सोमः प्रचोदयात्।।
ऊँ सों सोमाय नमः।।
अब ‘सफेद हकीक माला’ से निम्न तांत्रोक्त मंत्र की 18 माला नित्य अगले सोमवार तक जप करें।
ऊँ श्रां श्रौं सः चन्द्रमसे नमः।
यह साधना एक सोमवार से अगले सोमवार तक की जाती है। इस दौरान साधक नित्य प्रति चन्द्र तांत्रोक्त मंत्र की 18 माला मंत्र जप करे। साधना की पूर्णता के बाद साधना सामग्री को किसी नदी या सरोवर में प्रवाहित कर दें। साधना काल में साधक को चंद्र स्त्रोत का पाठ करना चाहिये।
चन्द्र स्त्रोत का पाठ करना विशेष फलदायी होता है। अतः साधक को स्त्रोत का पाठ अवश्य करना चाहिये। साधना काल के पश्चात् भी साधक प्रत्येक सोमवार को इस स्त्रोत का पाठ कर सकता है।
ऊँ श्वेतताम्बरः श्वेतपुः।
किरोटी श्वेतधुतिर्दण्डधरो द्विबाहुः।
चन्द्रोऽमृतात्मा वरदः शशांकः श्रेयांसि
मह्मं प्रददातु देवः।।1।।
दधिशंकतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भव्।
नमानि शशिनंसोमंशम्मोर्मुकुटभूषणम्।। 2।।
क्षीरसिन्धुसमुत्पन्नो रोहिणीसहितः प्रभुः।
हरस्य मुकटावास बालचन्द्र नमोस्तु ते।।3।।
सुधामया यत्किरणाः पोषयन्त्योषधीवनम्।
सर्वान्नरसहेतुं तं नमामि सिन्धुनन्दनम्।।4।।
राकेशं तारकेशं च रोहिणी प्रियसुन्दरम्।
ध्यायतां सर्वदोषघ्नं नमामीन्दुं मुहुर्मुहः।।5।।
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