और प्रत्येक की नियति थोड़ी-थोड़ी भिन्न है। इसलिये ऊपर से आरोपित कोई भी आचरण धर्म नहीं हो पाता। धर्म की आधारशिला यही है- अंतः स्फूर्ति हो। और यही भूल हो गई है। और इसी भूल को मैं सुधारना चाहता हूँ।
बहुत बार धार्मिक चेतना का जन्म हुआ है, लेकिन ज्योति खो गई। बुद्ध में जला दीया और बुझ गया। महावीर में जला और बुझ गया। दीया जलता रहा है, बार-बार जलता रहा है। परमात्मा मनुष्य से हारा नहीं। मनुष्य हारता गया और परमात्मा की आशा नहीं टूटी है। परमात्मा ने फिर -फिर कोशिश की है- मनुष्य तक पहुँचने की, मनुष्य को खोज लेने की। मनुष्य कितने ही गहन अंधकार में हो, उसकी किरण आती रही है, उसका इशारा आता रहा है। लेकिन कहीं कोई एक बुनियादी भूल होती रही। इस भूल को समझोगे, तो मैं क्या करना चाहता हुँ वह तुम्हें स्पष्ट हो जायगा। उस भूल को सुधारने की ही तरफ सारा आयोजन है।
भूल ऐसी हुई- सहज है, होनी ही चाहिए थी, बचा नहीं जा सकता था, इसलिए जिनसे हुई उन्हें दोष नहीं दे रहा हुँ करार। होनी ही थी, अपरिहार्य थी। महावीर को ध्यान उपलब्ध हुआ। स्वभावतः ध्यान व्यक्ति के आचरण को बदल देता है। बदलेगा ही। अगर ध्यान आचरण को न बदलेगा तो कौन बदलेगा?
सब बदल जाता है। ध्यान के साथ ही उठना-बैठना, सोना-जागना, सब बदल जाता है। लेकिन हमें ध्यान तो दिखाई पड़ता नहीं, वह तो अंतर्तम में घटता है, वैसी तो आँख हमारे पास नहीं, वैसी गहरी तो परख हमारे पास नहीं। हमें दिखाई पड़ता है आचरण। आचरण बाहर है। आचरण ध्यान का बहिर-अंग है। ध्यान के साथ आचरण रूपांतरित होता है, लेकिन हमें दिखाई पड़ता है आचरण रूपांतरित होता हुआ। स्वाभाविक, हमारे अहंकार की भाषा में, जहां हम कर्ता बने बैठे है, यह प्रतिध्वनि उठती है कि हम भी ऐसा ही आचरण बना लें। हम भी महावीर जैसे हो जाएं। बस वहीं भूल हो जाती है।
महावीर की अहिंसा स्वतः स्फूर्त, तुम्हारी अहिंसा ऊपर से आरोपित। दोनो में जमीन-आसमान का भेद हो गया। महावीर की अहिंसा पैदा हो रही है भीतर जन्म प्रेम के कारण। तुम्हारी अहिंसा पैदा हो रही है नरक के भय के कारण, स्वर्ग के लोभ के कारण। महावीर में न तो नरक का भय है, न स्वर्ग का लोभ है। महावीर में कैसा नरक का भय? कैसा स्वर्ग का लोभ? नरक का भय और स्वर्ग का लोभ ही तो संसार की दशा है, सांसारिक चित्त की आकांक्षा है। कष्ट न हो, सुख हो, यही तो नरक और स्वर्ग। दुःख से बचूं और सुख को पा लूं, दुःख कभी न आए और सुख ऐसा आए कि कभी न जाए, यही तो सांसारिक मन की मनोकांक्षा है, यही तो महत्त्वकांक्षा है। कहो इसे वासना, तृष्णा, या और कोई नाम दो।
महावीर में कोई न तो नरक का भय है, न स्वर्ग की कोई आकांक्षा है। चित्त शांत हो गया, चित्त मौन हो गया, तरंगे उठती नहीं अब, समाधि फलित हुई है, वहां केवल साक्षीभाव रह गया है, वहां केवल द्रष्टा विराजमान है। इस द्रष्टा में कोई तरंग नहीं है- कोई विचार नहीं, कोई वासना नहीं, कोई तृष्णा नहीं। न कहीं जाना है, न कुछ होना है। कोई भविष्य नहीं, कोई अतीत नही। सब ठहर गया है। संसार ठहर गया है।
इस ठहरेपन का नाम कृष्ण ने कहा-स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई है। स्थिर धी, जिसकी धी स्थिर हो गई है। जैसे कोई दीया जलता हो ऐसे स्थान में जहां वायु का कोई झोंका न आए, निर्वात भवन में दीया जलता हो, कोई कंप न उठता हो, लहर न उठती हो, ज्योति अकंप हो।
इस अकंप ज्योति का परिणाम यह है कि महावीर के जीवन में अहिंसा है। यह प्रेम का प्रतिफल है। यह भीतर जो बोध हुआ है, यह जो अनुभव हुआ है जीवन का, इस जीवन के अनुभव के साथ ही सारा जीवन सम्मानित हो गया है। यह मेरा ही जीवन है। इसमें कहीं भेद नहीं है। जब भी तुम किसी को मारते हो, अपने को ही मारते हो। और जब भी किसी को दुःख देते हो, अपने को ही दुःख देते हो। ऐसा महावीर को दिखाई पड़ा है। क्योंकि मैं ही हूं। पत्थर में, पहाड़ में, चांद-तारो में एक का ही विस्तार है। ऐसी प्रतीति का परिणाम है अहिंसा।
लेकिन बाहर से जिन्होंने देखा, उन्हें तो यह प्रतीति दिखाई नहीं पड़ी कि प्रेम का आविर्भाव हुआ है कि एकत्म-बोध हुआ है, कि परमात्मा की अनुभूति हुई है, कि समाधि फली है- यह तो कुछ भी न दिखा। उन्हें देखा कि महावीर पैर फूंक-फूंक कर रखते है, चींटी भी न मर जाये। पानी छान कर पीते है। कच्चा फल नहीं खाते। पका फल जो वृक्ष से अपने से गिर जाए। कच्चे फल को तोड़ो तो पीड़ा तो होगी। कच्चा है, अभी जुड़ा है, अभी टुटने का क्षण नहीं आया है। इसलिये महावीर पके फल का ही भोजन लेते हैं।
यह तो महावीर के भीतर की अंतर्दशा का बहिर्प्रतिफलन है। हम जो बाहर से देखते है, उनको लगता है कि यह आदमी पैर फूंक-फूंक कर रखता है, रात करवट भी नहीं लेता है कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाये, गीली भूमि में नहीं चलता क्योंकि गीली भूमि में कीटाणु होते है, पानी छान कर पीता है, रात भोजन नहीं करता, हमें ये बातें दिखाई पड़ी। हमने इस पर सारा धर्म खड़ा कर लिया। बस धर्म झूठा हो गया। महावीर का धर्म पैदा हुआ था समाधि से, ध्यान से। हमारा धर्म पैदा हुआ है महावीर को बाहर से देखने से। हमने सोचा , चींटी पर पैर न पड़े, पानी छान कर पीओ, रात भोजन न करो, हिंसा मत करो, मांसाहार मत करो- बस हम भी उसी अवस्था को उपलब्ध हो जायेंगे जिसको महावीर हुए है।
ध्यान रहे यह सूत्रः भीतर के अनुसार बाहर को चलना पड़ता है, बाहर के अनुसार भीतर नहीं चलता। भीतर मालिक बैठा है, बाहर तो सब छाया है।
ऐसा समझो, मैं जहां जाता हूँ, मेरी छाया भी मेरे पीछे आती है। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि मेरी छाया जहां जाए, उसके पीछे में जाऊं। छाया तो जाएगी कहां? छाया छाया है। तुम मेरी छाया को कहीं ले जाओगे, उससे तुम मुझे न ले जा सकोगे। लेकिन अगर तुम मुझे ले जाओं तो छाया भी चली जाएगी। छाया को जाना ही होगा। महावीर के भीतर तो समाधि फली, आचरण में छाया झलकी। हमने छाया पकड़ी। वहीं धर्म झूठा हो गया।
फिर तुम महावीर जैसे नहीं हो। कोई महावीर जैसा नहीं है। इसलिये तुम्हारे ऊपर आचरण जबर्दस्ती हो गया। उससे तुम्हारे भीतर तालमेल भी नहीं बैठा। जबर्दस्ती होने के कारण तुम दुःखी और उदास हो गए। दुःखी-उदास होने के कारण धर्म का उत्सव समाप्त हो गया। धर्म रूग्णाचित लोगों की बात हो गई। धर्म ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सताने में रस लेते है, या फिर ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सता कर तुम्हारा सम्मान लेते है।
तुम चाहते हो, उपवास वाले को हम सम्मान देंगे-क्योंकि तुम्हारी धारणा है, जो उपवास करेगा वह महावीर जैसा हो जायेगा। निश्चित महावीर ने उपवास किए थे। लेकिन किए थे, यह कहना महावीर के संदर्भ में ठीक नहीं, उपवास हुए थे। मुनि कर रहा है। बस वहीं फर्क हो गया। होने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है। भीतर ऐसी तल्लीनता बंध गई थी कि कभी-कभी उपवास हो गया था। याद ही न आई थी। मुझसे भी हुए है, इसलिए तुमसे कहता हूँ। मैने कभी उपवास नहीं किया, लेकिन हुए जरूर। कभी ऐसी बंध गई लौ भीतर कि याद ही न आई बाहर भोजन करने की। मन ऐसा मुग्ध हुआ भीतर कि बाहर के सारे द्वार-दरवाजे अपने से बंद हो गए। उपवास हुआ। पता भी नहीं चला कब हो गया। जब टूटा तभी पता चला। जब भीतर की चेतना फिर बाहर लौटी, तब याद आया कि दो दिन निकल गए है, भोजन नहीं हुआ।
फिर उपवास करने वाले लोग है। वे थोप लेते है उपवास को। वे जबर्दस्ती शरीर को सता लेते है फिर उनके सताने में एक ही रस हो सकता है-भीतर का तो कोई रस नहीं है- अब उनके सताने में एक ही रस हो सकता है, उनके अहंकार को बाहर से आदर मिले, सम्मान मिले। कोई कहे कि तपस्वी है, कोई घोषणा करे कि महात्मा है।
तो धर्म, जो स्वभाव है, वह धीरे-धीरे आचरण का रूप ले लेता है। वह नीति बन जाता है। धर्म का पतन है नीति। नीति धर्म नहीं है। और ध्यान रहे, धार्मिक व्यक्ति नैतिक होता है, लेकिन नैतिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। अंतस के पीछे आचरण चलता है, आचरण के पीछे अंतस नहीं चलता।
तो धर्म का अर्थ है स्वभाव और प्रत्येक में थोड़ा भेद है। इसलिये प्रत्येक की धर्म की यात्रा थोड़ी भिन्न होगी। व्यक्ति को ध्यान में रखना। लेकिन जब बाहर से आचरण के नियम बनाए जाते है, तो फिर कोई ध्यान में नहीं रखा जाता। बाहर से जो नियम बनाए जाते है, वे तो सभी के लिए एक से होंगे। उनमें फिर किसी का ध्यान न रखा जायेगा। वे व्यक्ति के अनुकूल नहीं होते, व्यक्ति को ध्यान में रख कर नहीं होते, सार्वजनीक होते है। सभी सार्वजनीक नियम घातक होते हैं।
इसलिये मैं यहां किसी को कोई नियम नहीं दे रहा हूँ, सिर्फ बोध दे रहा हूँ। आँख दे रहा हूँ, आचरण दे रहा हूँ। इशारे दे रहा हूँ, जड़ मंतव्य, वक्तव्य नहीं दे रहा हूँ। उपदेश दे रहा हूँ, आदेश नहीं दे रहा हूँ। समझने की क्षमता दे रहा हूँ, फिर जीना तुम अपने ढंग से। चंपा, चंपा के ढंग से खिलेगी और कमल, कमल के ढंग से खिलेगा। कमल पानी में खिलेगा और चंपा को पानी में खिलाना चाहोगे-मार डालोगे, सड़ा डालोगे। और कमल को चंपा की जगह खिलाना चाहोगे-कैसे खिलेगा?
इतने ही भेद है व्यक्तियों में। खिलना सबको है। खिलने का अर्थ एक ही है। परम अवस्था में जो खिलाव होता है, वह तो एक ही है, लेकिन उस तक पहुँचने की जो यात्राऐं है, वे बड़ी भिन्न है।
और फूलों के रंग अलग होंगे, फूलों के ढंग अलग होंगे, फूलों की गंध अलग होगी-खिलाव एक होगा। उस खिलाव का नाम परमात्मा है। लेकिन और सब अलग होगा।
जो लोग बाहर से नियम और आचरण बनाते है, उन्हें यह बात याद ही नहीं रह जाती। फिर आचरण के नियम इतने महत्त्वपूर्ण हो जाते है कि हर एक को उन नियमों के अनुसार होना चाहिये।
ऐसा समझो कि दर्जी ने कपड़े पहले बना लिए। उसने एक हिसाब से कपड़े बना लिए। उसने पता लगा लिया कि पूना में औसत लंबाई कितनी है। सब आदमियों की लंबाई नाप ली गई, औसत लंबाई पा ली उसने, औसत मोटाई पा ली उसने। अब इस औसत में बड़ा धोखा है। इसमें छोटे बच्चे भी है, इसमें बड़े-बूढे भी है, इसमें लंबे आदमी भी है, इसमे ठिगने आदमी है, इसमें मोटे आदमी है, इसमें दुबले आदमी है- इसमें सब तरह के आदमी है। इन सबका हिसाब लगा लिया, सबका जोड़ लिया, सबकी लंबाई जोड़ ली, फिर सबका भाग दे दिया, सबकी मोटाई जोड़ ली और सबका भाग दे दिया, फिर औसत आदमी के कपड़े बना लिए।
अब औसत आदमी कहीं होता नहीं, खयाल रखना। औसत आदमी सिर्फ गणित में होता है, जीवन में नहीं होता। अब औसत आदमी आ गया। इस औसत आदमी की ऊँचाई चार फीट छह इंच। उसने कपड़े तैयार कर लिये। इस औसत आदमी की एक मोटाई है, उसने कपड़े तैयार कर दिए। अब तुम गए, तुम औसत आदमी नहीं हो। तुम छह फीट के लंबे आदमी हो। चार फीट छह इंच के कपडे़ है। वह कहता है, तुम गलत हो। तुम औसत से भिन्न! तुम नियम के विपरीत! आओ तुम्हे मैं छांट दूं।
या हो सकता है, तुम चार ही फीट के हो, ठिगने हो बहुत, तो वह कहता है, आओ तुम्हें जरा खींचतान कर बड़ा कर दूं, कपड़े महत्त्वपूर्ण हो गए, आदमी का कोई ध्यान न रहा।
मेरे लिए व्यक्ति का मूल्य है। मेरा मन व्यक्ति के प्रति परम सम्मान से भरा है। मैं तुम्हारे लिए कोई कपडे़ नहीं बनाता। तुम्हें बिना सिला कपड़ा दे रहा हूँ। तुम अपने कपडे़ बना लेना। वह बिना सिला कपड़ा समझ है। फिर समझ के अनुसार तुम अपने कपड़े बना लेना। कपड़े तुम्हें बनाना!किसी और के आधार पर बनाए गए कपडे़ कभी तुम्हें ठीक न आएंगे- या तो ढीले होंगे, या चुस्त होंगे, या लंबे होंगे, या छोटे होंगे, कुछ न कुछ गड़बड़ रहेगी, और तुम हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी बेचैन मालूम होते है। महावीर का कपड़ा पहने हुए है। महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। बैठे है आँख बंद किए, आंख बंद नहीं होती और बड़ी घबड़ाहट भी हो रही है कि यह मैं क्या कर रहा हूँ! कोई देख न ले! कोई क्या कहेगा? पागल न समझे! या तुम मंदिर में पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो- और प्रार्थना में तुम्हारा हृदय नहीं है। लेकिन कर रहे हो, तुम्हारे परिवार में होती रही है। तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हो। धर्म झूठा हो जाता है औपचारिकता में।
ध्यान करने वाला आदमी मुनि होता है। मुनि का अर्थ होता है, जो मौन सीखने गया, जो मौन होने गया। वह ध्यानी का ही एक रूप है। लेकिन ध्यानी होने गए थे, और दूसरी चीजों में उलझ गए। गए थे राम भजन को, ओटन लगे कपास, और वे कहते है, फुर्सत नहीं मिलती! यही तो दुकानदार कहता है कि फुर्सत नहीं मिलती। और यही अगर मुनि कहे कि फुर्सत नहीं मिलती ध्यान को……..! क्योंकि और नियम ऐसे है। उन नियमो में ही झंझट खड़ी हो जाती है। उन नियमों में ही सारा समय चला जाता है। थोड़ा-बहुत समय बचता है, वह उपदेश में लगनाा पड़ता है।
खुद पाया नहीं है, उपदेश क्या दे रहे हो? किसको दे रहे हो? खुद भटके हो, औरों को भटकाओगे? यह तो सुनिश्चित पाप है। यह बड़े से बड़ा पाप है कि तुमने न जाना हो और किसी को तुम उपदेश दो। इससे बड़ा पाप और क्या होगा? एकाध दिन अगर रात पानी पी लो, तो मैं नहीं समझता इतना बड़ा पाप है, कि एकाध दिन भूख लग आए और रात एकाध फल खा लो, तो कोई इतना बड़ा पाप है! मगर बिना जाने, बिना अनुभव किए तुम सैकड़ों लोगों को समझा रहे हो, मार्ग दे रहे हो, चला रहे हो-जिन मार्गो पर तुम कभी चले नहीं-इससे बड़ा पाप क्या होगा?
तुम देखते हो, जिस आदमी के पास डॉक्टर का प्रमाणपत्र नहीं है और वह दवाइयां बांटता हो, तो खतरनाक है। मगर उसकी दवाइयां तो ज्यादा से ज्यादा शरीर को नुकसान पहुँचा सकती है। लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, ये मार्गदर्शन दे रहे है। इनकी औषधियां जन्मों-जन्मों तक तुम्हें भटका सकती है। भटका रही है। और इन्हें ग्लानि भी नहीं पड़ती, इन्हें अपराध का भाव भी नहीं पकड़ता, क्योंकि ये सिर्फ नियम का पालन कर रहे है। साधु को कहा गया है कि उसे इतना उपदेश तो देना ही चाहिये, उसे इतने नियम का पालन कर रहे है। साधु को कहा गया है कि उसे इतना उपदेश तो देना ही चाहिये, उसे इतने नियम तो पालन करने ही चाहिये, उसे इतने बजे उठ जाना चाहिये, उसे इतने बजे मलमूत्र विसर्जन को जाना चाहिये, उसे इतना अध्ययन करना चाहिये, उसे इतना शास्त्र का पाठ करना चाहिए। इसी सबमें उलझा डाला है।
मैं तुम्हें कोई आचरण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देना चाहता हूँ। मैं तुम्हें समस्त सिद्धांतो से स्वतंत्रता देना चाहता हूँ। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूँ। तुम मेरी बात समझना।
स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता कि मैं तुम्हें उच्छृंखल बनाना चाहता हूँ। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूँ। मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा जीवन मूल्यवान है। इसको ऐसे मत गंवा देना। इसे हर किसी की बात मान कर मत गंवा देना। इसे हर किसी के कपड़े पहन कर मत गंवा देना। तुम्हारा जीवन कीमती हैं। परमात्मा तुमसे पूछेगा, क्या किया जीवन का? तो तुम उत्तरदायी होओगे, तुम्हारे मुनि महाराज नहीं, और न तुम्हारे साधु, और न तुम्हारे महात्मा,कोई उत्तर नहीं देगा, तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। तुम्हारे लिए तुम्हें जी रहे हो, तुम्हारे लिए तुम्हीं मरोगे, और तुम्हारे लिए उत्तरदायी हो। इसलिए अपने जीवन को इस ढंग से जीना कि तुम उत्तर दे सको।
और कौन निर्णय करेगा कि तुम कैसे जीओ? तुम कब उठो, क्या खाओ, क्या पीओ- कौन निर्णय करेगा? किसी को हक भी नहीं है। यह गुलामी छूटनी चाहिये।
मेरे लिए धर्म है स्वभाव की परम स्वतंत्रता। तुम अपना छंद स्वयं बनो। मुक्ति पहले कदम से शुरू हो जानी चाहिए। यह पहला कदम है। और यही मुक्ति बढ़ते-बढ़ते मोक्ष बन जायेगी।
फिर, जो अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर समझा गया, पकड़ा गया, वह अनिवार्य रूपेण जीवन-विरोधी था। हो ही गया जीवन-विरोधी। महावीर नहीं थे जीवन-विरोधी, न बुद्ध थे जीवन-विरोधी। कोई ज्ञानी कभी जीवन-विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि इसी जीवन से तो परम जीवन पाया जाता है। यह जीवन तो परम जीवन का द्वार है। इस संसार से ही तो हम सत्य की तरफ जाते है। इस संसार में अगर कांटे भी गड़ते है तो वे कांटे भी तुम्हारे मित्र है, अगर न गड़ते तो तुम कभी सत्य की तरफ न जाते। इस जगत के दुःख सिर्फ दुःख नहीं है, उन दुःखों के भीतर बड़ा आयोजन है, उन दुःखो में बड़े इशारे छिपे है। वे दुःख तुम्हें याददाश्त दिलाने के लिए है। वे दुःख अभिशाप नहीं, वरदान है।
इस लोक में ही परलोक छिपा है। इन्हीं वृक्षों, पौधों, पत्थरों पहाड़ो में परमात्मा छिपा है। इन्हीं लोगों में, जो तुम्हारे पास बैठे है, परमात्मा का आवास है। पड़ोसी में परमात्मा छिपा है। तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे पिता में परमात्मा छिपा है। तुम ऊपर-ऊपर से देखते हो, इसलिए चूक जाते हो। लेकिन ऊपर-ऊपर से देखने के कारण चूक जाओ, तो इस फल को फेंक मत देना, क्योंकि इस फल के भीतर रस छिपा है, जो तुम्हें तृप्त कर सकता था।
लेकिन अड़चन इसलिए आ गई, महावीर समाधि को उपलब्ध हुए, बुद्ध समाधि को-लोगों ने आचरण पकड़ा, लोग आचरण के अनुसार चले। उन्हें भीतर का तो कुछ पता न चला, थोथे हो गए। बाह्य क्रियाकांड में उलझ गए। यतन में उलझ गए, भजन का पता नहीं चला। उसी क्रियाकांड में डूब गए। उससे अहंकार और बड़ा। उससे अहंकार और सूक्ष्म हुआ। और उस अहंकार के कारण उन्हें कुछ भी दिखाई न पड़ा, सब अंधापन छा गया, और अंधेरा हो गया।
जीवन का एक अपूर्व अवसर है। यही अग्नि तुम्हें निखारेगी। इसी अग्नि में निखर कर तुम कुंदन बनोगे। तुम्हारा कचरा भर जलेगा, और कुछ जलने वाला नहीं है। इसलिए भागो मत, भागे तो कचरा बच जायेगा।
प्रेम में गहराई बढ़नी चाहिये। घृणा में गहराई घटनी चाहिये। घृणा से तुम मुक्त हो सको तो सौभाग्य। लेकिन अगर प्रेम से मुक्त हो गए तो दुर्भाग्य।
और मजा यह है कि अगर तुम्हें घृणा से मुक्त होना हो तो सरल रास्ता यह है कि प्रेम से भी मुक्त हो जाओ और तुम्हारे अब तक के साधु-सन्यासियों ने सरल रास्ता पकड़ लिया। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! लेकिन बांस और बांसुरी में बड़ा फर्क है। बांसुरी बजनी चाहिये। बांस से बांसुरी बनती है,लेकिन बांसुरी बड़ा रूपांतरण है। बांसुरी सिर्फ बांस नहीं है। बांसुरी में क्रांति घट गई। तुम अभी बांस जैसे हो, बांसुरी बन सकते हो।
घृणा से भयभीत हो गए लोग। क्रोध से भयभीत हो गए। भाग गए जंगलों में। जब कोई रहेगा ही नहीं पास, तो न घृणा होगी, न क्रोध होगा। यह तो ठीक, लेकिन प्रेम का क्या होगा? प्रेम भी नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा प्रेम-शून्य हो गए, प्रेम रिक्त हो गए। उनके प्रेम की रसधार सूख गई। वे मरूस्थल की भांति हो गए। और वहीं चूक हो गई। परमात्मा तो मिला नहीं, संसार जरूर खो गया। सत्य तो मिला नहीं, इतना ही हुआ कि जहां सत्य मिल सकता था, जहां सत्य को खोजा जा सकता था, जहां चुनौती थी पाने की, उस चुनौती से बच गए। एक तरह की शांति मिली-लेकिन वह मुर्दा, मरघट की। एक और शांति है-उत्सव की, जीवंत, उपवन की।
तुम जीवन को अंगीकार करो, परमात्मा ने जो दिया है, सब अंगीकार करो। उसने दिया है तो कुछ उसमें राज छिपा होगा ही। इस वीणा को फेंक मत देना, इसमें संगीत छिपा है। इसे बांस मत समझ लेना, इसमें बांसुरी बनने की क्षमता है। जल्दी छोड़-छाड़ कर भाग मत जाना। तलाश करना। हालांकि तलाश कठिन है। होनी ही चाहिये। क्योंकि तालाश के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। जो खोजेगा, वह पायेगा। इसी जीवन में खोजना है।
परमात्मा ने संसार बनाया कभी, ऐसा मत सोचो। परमात्मा संसार रोज बना रहा है, प्रतिपल बना रहा है। ऐसा कोई बना दिया एक दफा और खत्म हो गया काम! तो फिर नये पत्ते कैसे आ रहे है? फिर नये फूल कैसे खिल रहे है? फिर चांद तारे कैसे चल रहे है?
तो यह धारणा तुम्हारी गलत है कि परमात्मा ने सृष्टि की। परमात्मा सृष्टि कर रहा है। और अगर तुम मेरी बात और भी ठीक से पकड़ना चाहो, तो मैं कहता हूँ, परमात्मा सृष्टि की प्रक्रिया है। परमात्मा कोई अलग व्यक्ति नहीं है कि बैठा है और बना रहा है चीजों को। कुम्हार नहीं है कि घड़े बना रहा है नर्तक है- नाच रहा है। उसका नाच उसका अंग है। इन सब फूलों में, पत्तो में, सागरों में, सरोवरों में उसका नाच है, तुमसे, मुझमें, बुद्ध-महावीर में उसका नाच है। उसकी भाव-भंगिमाएं है। उसकी अलग-अलग मुद्राएं है। इनमें पहचानों!
और मैं कोई कारण नहीं देखता हूँ कि कहीं भाग कर जाने की जरूरत है। तुम जहाँ हो, वहीं अगर तुमने हृदयपूर्वक पुकारा तो परमात्मा आता है। असली बात हृदयपूर्वक पुकारने की है। असली बात न तो पवित्रता की है, न शुद्धता की है, न योग की है, न त्याग की है, असली बात इतनी ही है कि तुम परिपूर्ण असहाय होकर, निर-अहंकार होकर, उसके चरणों में गिर जाओ। तुम थोड़े भी बचे, तो रूकावट रहेगी। तुम बिलकुल चले गए, उसी क्षण रूकावट टूट जाती है।
आँखे खुल रही है, धोखा नहीं खा रही है। आँखे पहली बार उपलब्ध हो रही है। धीरे-धीरे ये आँखे और गहराएंगी, इनकी धुंध और कटेगी। तब चित्र की भी जरूरत न रह जायेगी। तब वृक्ष में भी और पत्थर में भी, सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। यह शुरूआत है।
जो गुरू में दिखाई पड़ता है, उसे एक दिन सारे संसार पर फैला देना है। गुरू तो सिर्फ द्वार है इसलिये नानक ने बिलकुल ठीक मंदिर को नाम दिया-गुरूद्वारा। वह मुझे पंसद है। गुरू द्वार है। उससे तो सिर्फ विराट आकाश की तरफ यात्रा शुरू होती है।
शुभ हो रहा है। ऐसी ही आँखे चाहिए। ऐसी ही आँखो को दर्शन होता है। ऐसी ही आँखो को दृष्टि उपलब्ध होती है।
एक भिक्षु ने पूछा अपने गुरू को, मैंने सुना है कि समस्त बुद्ध और समस्त बुद्धों के धर्म, एक ही संक्षिप्त सूत्र से पैदा हुए है। वह सूत्र क्या है?
सद्गुरू ने कहा, सदा घूमता रहता वह, सदा प्रवाहमान! उसे पकड़ा नहीं जा सकता। वह ठहरता ही नहीं। वह सदा गतिमान। वह सदा गतिमान। उसे रोका नहीं जा सकता। और कोई तर्को के द्वारा भी उसको पकड़ा नहीं जा सकता है और कोई शब्द उसे प्रकट करने में समर्थ भी नहीं हैं।
स्वभावतः भिक्षु ने पूछा, तब मैं उसे किस तरह ग्रहण करूं? और किस तरह आत्मसात् करूं?
और किस तरह अपने भीतर सम्भालूँ? कैसे उसे अपनी आत्मा में वास करने को पुकारूँ?
सद्गुरू हंसा और उसने कहा, यदि तुम चाहते हो उसे स्वीकार करना, ग्रहण करना और अपने भीतर बसा लेना, तो तुम्हें एक कला सीखनी होगी। कानों से सुनना तुम जानते हो, अब तुम्हें आँखो से सुनना सीखना पड़ेगा।
आँखो से सुनना! चेतना, वही तुझे हो रहा है।
एक दृष्टि, एक नई दृष्टि का जब जन्म होता है, तो बेचैनी भी होती है, परेशानी भी होती है। क्योंकि सब पुराना अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर पुराने से कोई समायोजन नहीं रह जाता। नई दृष्टि का आविर्भाव एक अराजकता पैदा करता है। नई दृष्टि के साथ नये जीवन की शुरूआत है-नई आत्मा की।
शुभ हो रहा है। भयभीत न होना और सोचना भी मत कि क्या मैं धोखा खा रहा हूँ।
मेरा तुम्हारे पास होना और तुम्हारा मेरे पास होना इसीलिए है कि मैं तुम्हें धोखा न खाने दूं। और बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि जब तुम धोखा खाओगे तब तो लगेगा कि सच हो रहा है- क्योंकि तुम्हारी आँखे धोखा खाने की जन्मों-जन्मों से आदी है। उन्होंने धोखा ही खाया है। इसलिये धोखा तो सच लगेगा और बहुत बार इससे उल्टा भी होगा, जब सच होने लगेगा तो तुम्हारा मन कहेगा-कहीं धोखा तो नहीं हो रहा है? इसलिए सद्गुरू की जरूरत है, कि कोई तुम्हें कह सके कि यह धोखा है और यह धोखा हो सकता है। जिससे तुम्हारा मन राजी हो सकता है, उसमें धोखा है। जिससे तुम्हारा मन राजी न हो, बेचैन होने लगे, जिसे तुम्हारा मन आत्मसात न कर सके और जिसके साथ मन सोचने लगे-क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है? मैं पागल तो नहीं हो रहा? कोई भ्रम तो नहीं खा रहा? तब तुम समझ लेना, बहुत संभावना इस बात की है कि सत्य करीब आ रहा है। मन असत्य से इतना रच-पच गया है कि जब सत्य करीब आता है तो उसे धोखे जैसा मालूम होता है।
यहां वैसे भी लोग है, जो पाना सब चाहते है, लेकिन खोना बिलकुल नहीं चाहते। ऐसे भी लोग है, जो बड़ी छोटी-बड़ी बातों में भी मुझसे धोखा कर जाते है।
इस तरह नहीं चलेगा। तुम मुझे धोखा नहीं दे सकोगे- न तुम्हारे आंसुओ से, न तुम्हारे नाच-गान से, न तुम्हारे भजन-कीर्तन से। तुम अगर मेरे साथ हो, तो मेरे साथ होने से जो तकलीफ होती है, उसे भोगना होगा। मेरे साथ होने से जो अड़चन आती है, वह भी झेलनी होगी। तुम्हारे गांव में लोग हंसेंगे, तो वह भी स्वीकार करना होगा। लोग पागल समझेंगे, तो वह कीमत चुकानी है। मेरे साथ अगर पागल होने को राजी नहीं हो, तो यह दृष्टि तुम्हें कभी उपलब्ध न हो सकेगी। तुम अपनी होशियारी से मेरे पास अगर हो, तो खो दोगे, चूकोगे अवसर।
इतना ही कहना है कि इतना प्रेम मैं नहीं सोचता कि अभी तुम्हारे पास होगा। गालियां जरूर देते होओगे, लेकिन प्रेम का तुम धोखा खा रहे हो। प्रेम का तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने को समझा रहे हो कि प्रेम में दे रहे है। जरा गौर से देखना, देने के कारण दूसरे होंगे। देने का मौलिक कारण तो यही होगा कि तुम्हें मेरे साथ झुकना पड़ा है। उसका तुम बदला ले रहे होओगे। और बदला लेने का यही उपाय है। प्रेम से दे रहे हो तो बड़ा अच्छा है। लेकिन प्रेम में देने को सिर्फ तुम्हारे पास गालियां है, कुछ और है? फिर अगर प्रेम से दे रहे हो, और तुम्हारे पास सिर्फ गालियां है, तो मुझे स्वीकार है। लेकिन प्रेम में गाली बचती नहीं। गाली में कहीं न कहीं विरोध है। विरोध को तुम लीप-पोत लेना चाहते हो। मगर तुम्हारे भीतर गाली तो है ही कहीं, तो ही आ रही है।
इस विरोधाभास को खयाल में रखना। जब तक मैं तुम्हें मैं ही दिखाई पड़ू, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। जब तक मैं तुम्हें वह न दिखाई पड़े, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। मैं द्वारा बन जाऊं और वह विराट आकाश तुम्हें मुझमें से दिखाई पड़े। और धीरे-धीरे तुम मुझे भूल जाओ और उस विराट आकाश में लीन हो जाओ- तो ही तुम मेरे पास आए!
मेरे पास आने का मतलब है, मुझसे गुजर जाओ। मेरे पास आने का अर्थ है, मेरी सीढी का उपयोग कर लो। यह द्वार खुला है। इस द्वार से अगर तुम झांके, तो तुम परमात्मा को देख पाओगे।
ठीक हो रहा है, चेतना! यह धोखा नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात घटनी जब शुरू होती है, तो शंकाएं शुरू होती है कि पता नहीं क्या हो रहा है? कोई कल्पना तो नहीं? कोई भ्रमजाल तो नहीं? कोई सपना तो नहीं?
नहीं, आँखे धोखा नहीं खा रही, आँखे पैदा हो रही है, पहली बार आँखे पैदा हो रही है। दृष्टि का जन्म हो रहा है।
शिष्य जैसे-जैसे गुरू के निकट होता है, वैसे-वैसे पीड़ा भी होती है विरह की, मिलन का सुख भी होता है। हंसी भी आती है, आंसू भी गिरते है। जिंदगी एक नया पर ले लेती है, नये पंख ले लेती है। अब उदासी में भी एक रौनक होती है। अब विरह में मिलन की आभा होती है।
आवाज सुनाई पड़नी शुरू होगी। आँख से सुनी जाती है वह आवाज, ख्याल रखना! क्यों इस झेन फकीर ने कहा कि आँख से सुनोगे तब सुनाई पडे़गा! बात बड़ी बेबूझ है। सुनता आदमी कान से है, आँख से तो नहीं।
एक और फकीर से किसी ने पूछा, बाबा फरीद से किसी ने पूछा कि सत्य और झूठ में कितना अंतर है? उसने कहा, चार इंच का। उस पूछने वाले ने पूछा, सिर्फ चार इंच का? तो फरीद ने कहा, कान और आँख में जितना अंतर है, बस उतना ही।
कान से सदा दूसरे की बात सुनाई पड़ती है, सदा उधार होती है। और कान से सुनी बात पर भरोसा मत कर लेना। उसी के कारण तो लोग शास्त्रों में उलझ गए है, शब्दों में उलझ गए है। वह कान ने सुनी गई बात है। आँख पर भरोसा करना। देखे पर भरोसा करना। सुने पर भरोसा मत करना। सुने का कोई प्रमाण नहीं है कि ठीक हो कि न ठीक हो। सुना सुना है।
इसलिये झेन फकीर ने ठीक कहा कि जब तू आंख से देखने लगेगा, तब देख पायेगा उस परमसूत्र को, जिससे सारे बुद्ध पैदा होते है, सारे बुद्धों के धर्म पैदा होते हैं।
शिष्य की इतनी ही पुकार है, भक्त की इतनी ही पुकार है। भक्त और शिष्य में कुछ भेद नहीं है। जो शिष्य नहीं, वह भक्त नहीं। भक्ति के पाठ गुरू के पास ही सीखे जाते है। भक्ति का चरम फल परमात्मा है, लेकिन भक्ति को पाठ गुरू के पास सीखे जाते है। गुरू पाठशाला है। उस पाठशाला से उत्तीर्ण हुए बिना कोई परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता।
क्या आकांक्षा है शिष्य की? क्या आकांक्षा है भक्त की? बस एक ही कि यह जो उदास रात है, अब टूटे। सुबह हो, किरण फूटे। यह आकांक्षा तो है, यह अभीप्सा तो है लेकिन कोई अधीरता नहीं है, प्रतीक्षा है। प्रार्थना उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन अभीप्सा भी पूर्ण हो और प्रतीक्षा भी पूर्ण हो। जिस दिन मांग भी हो और मांग एक अर्थ में न भी हो। एक तरफ भक्त पुकारता है कि आओ, अब और नहीं सहा जाता। और दूसरी तरफ भक्त कहता है, जब भी आओगे, तब तक प्रतीक्षा करता रहूंगा। तब उसी क्षण घटना घट जाती है।
शुभ हुआ है। पहली दफा आँख खुलनी शुरू हुई है। इस आँख पर भरोसा करो। इस आँख को पूरा बंद करों । इस आँख में पूरी ऊर्जा डाल दो। यही आँख दर्शन है।
सोचने से किसी ने कभी संन्यास लिया है? सोचने वाले संन्यास कैसे ले सकते है? संन्यास और सोचने में विरोध है। संन्यास सोचने की निष्पति नहीं है। संन्यास सोचने का त्याग है। वही अर्थ है संन्यास शब्द काः सम्यक न्यास।
पुराना संन्यास कहता थाः संसार को छोड़ना संन्यास है। मैं तुमसे कहता हूँ, विचार को छोड़ना संन्यास है, क्योंकि विचार ही संसार है। तुम सोच-सोच कर तो कभी न ले पाओगे। यह तो पागलों का काम है। इसमें सोचना इत्यादि कहां? सोच-सोच कर तो तुम बार-बार आओगे और लौट जाओगे।
अब सोचना छोड़ो। संन्यास लो या न लो, मगर सोचना छोड़ो। सोचना छूटते ही संन्यास घटित होगा। और तब संन्यास की महिमा अपार है। अगर तुमने सोच-सोच कर किसी दिन ले भी लिया तो वह दो कौड़ी का संन्यास होगा। सोच-सोच कर लिए गए संन्यास का कोई मूल्य हो सकता है? उससे क्रांति नहीं होगी। तुम वैसे के वैसे रह जाओगे। फिर तुम सोचने लगोगेः क्या फायदा हुआ? संन्यास ले लिया, कुछ तो नहीं हुआ। फिर तुम नाराज होओगे कि सन्यास से कुछ सार नहीं है, क्योंकि मैनें संन्यास ले लिया और कुछ नहीं हुआ।
सन्यास में सार नही है। संन्यास से गहरा सार विचार के त्याग में है। जो विचार छोड़ कर संन्यास लेता है, जो प्रेम में पागल होकर संन्यास लेता है-तो सार है।
सोचो मत। संन्यास मैं तुम्हें दूगा। संन्यास होगा। मगर तुम सोचो मत।
और रही बात, तुम कहते होः ‘आप ऐसा समझाएं कि इस बार बिना संन्यास लिए न जा सकूं।’
उसी आकर्षण को और प्रबल होने दो। यहां खिंचे चले आते हो, धीरे-धीरे और पास आओगे, और पास आओगे।
धार तो है यहां। बिजली सा यह जो मैं कौंध रहा हूँ तुम्हारे सामने, तुम कब तक आँखे चुराओगे?
तुम कब तक भागे-भागे रहोगे? कब तक आँख बंद रखोगे?
आते रहो, जाते रहो! यह घटना घटने वाली है। इसकी मैं भविष्यवाणी किए देता हूँ । संन्यास मेरी तरफ से तो हो ही गया है, इसीलिये तो तुम आते हो। मैने तुम्हें चुन ही लिया है, इसीलिए तो तुम आते हो। तुम्हारी तरफ से देर हो रही है, मेरी तरफ से देर नहीं है।
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