रक्षा बन्धन के पर्व पर बहिनें अपने भाई के हाथ में रक्षा सूत्र बांधती हैं, जिसका अर्थ है, कि भाई ‘बहिन’ की मान, मर्यादा, यश, प्रतिष्ठा की रक्षा करेगा और बहिनें अपने भाई की लम्बी आयु तथा श्रेष्ठ जीवन और सभी तरह से सम्पन्न जीवन की कामना करती हैं। आधुनिक काल में तो रक्षा बंधन की परिभाषा मात्र यही रह गई है।
जब भी बहिन अपने भाई के हाथ में राखी बाँधती है, तो भाई स्वयं को उसका रक्षक मान बैठता है परन्तु-
क्या वह इतना सक्षम होता है, कि हर मुसीबत से अपनी तथा उसके जीवन की रक्षा कर सके?
यदि वह इतना सक्षम नहीं होता, तो इस पर्व का अर्थ क्या है?
इसका मूल उद्देश्य क्या है?
हमारे महर्षियों ने इस पर्व की रचना मात्र इसी उद्देश्य से तो नहीं की होगी, बल्कि इसकी रचना के पीछे उनका कोई विशेष उद्देश्य रहा होगा। हम लोग इसका मूल उद्देश्य भूलकर इसे केवल धागों का ही बंधन मान बैठे हैं। इस पर्व की रचना के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यह रहा होगा, कि व्यक्ति स्वयं के सम्पूर्ण जीवन की सुरक्षा के साथ ही साथ अपने सम्बन्धियों के जीवन की भी सुरक्षा कर सके।
इस विशिष्ट दिवस पर जो कि रक्षा बंधन के नाम से सुशोभित है, ग्रह-नक्षत्रों का एक विशेष सम्बन्ध स्थापित होता है, जिसके कारण दिव्य शक्तियों से युक्त रश्मियां इस दिवस विशेष में पृथ्वी को आच्छादित कर लेती हैं। इसी कारण ऋषियों ने इस दिवस को एक पावन पर्व के रूप में स्थापित किया, क्योंकि इस विशिष्ट मुहूर्त में यदि अपने इष्ट की अथवा अपने गुरू निर्देशित साधना की जाय, तो वर्ष पर्यन्त सुरक्षा का उपाय प्राप्त होता है।
पूर्व काल की तरह आधुनिक काल में भी व्यक्ति अपनी शारीरिक, आर्थिक व सामाजिक रूप से सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए प्रयत्न करता रहता है और अपने जीवन की सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए उपाय ढूंढता रहता है, इसके लिए वह समस्त प्रकार की आपदाओं को समाप्त करना चाहता है और भौतिक संसाधनों के साथ ही साथ दैवीय सहायता भी प्राप्त करने का प्रयास करता है और इसी कारण वह व्रत, उपवास रखता है, मंदिरों में जाता है, पूजा-पाठ तथा साधनाएं सम्पन्न करता है।
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, कि रक्षा बन्धन की रचना व्यक्ति की असुरक्षा की भावना को समाप्त करने हेतु ही की गई है। इस विशेष दिवस पर व्यक्ति साधना सम्पन्न करके अपने जीवन को दैवीय सुरक्षा प्रदान कर सकता है।
अपने जीवन को सुरक्षा प्रदान करना व्यक्ति का धर्म ही है। यदि व्यक्ति जीवन में अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं करता है, तो स्वाभाविक रूप से उसकी आधी ऊर्जा उन भयास्पद परिस्थितियों से जूझने में ही समाप्त हो जाती है। भयग्रस्त रहने के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व शनै-शनै समाप्त होने लगता है।
यदि भयातुर व्यक्ति में सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो जाये, तो वह साहस कर उन परिस्थितियों से भी जूझ जाता है जिनके विचार से भी कभी उसकी शक्ति क्षीण हो जाती थी।
व्यक्ति सुरक्षा के प्रति कितना अधिक सचेष्ट रहता है, इसका उदाहरण महाभारत जैसे ग्रंथ में स्पष्टता से मिलता है। महाभारत युद्ध का निर्धारण हो चुका था, कौरव और पाण्डव अपनी-अपनी रणनीति तैयार कर रहे थे। कौरवों की ओर महान योद्धा भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि थे, पाडवों की ओर कुछ गिने-चुने व्यक्ति ही थे। श्रीकृष्ण पाण्डवों के पक्ष में थे और वे उन्हें विजय दिलाने के लिये प्रयत्नशील थे। युद्ध के आरम्भ में कृष्ण ने अर्जुन से उसकी रक्षा हेतु साधना सम्पन्न करवाई थी, जिसके कारण उन्हें युद्ध में निरन्तर दैवीय सहायता प्राप्त होती रही और वे युद्ध में विजयी हुए।
साधना द्वारा अपने आपको सुरक्षित करने का विधान अति प्राचीन तथा प्रामाणिक है।
मंत्र जप समाप्त होने पर जलपात्र का थोड़ा सा जल स्वयं पर छिड़क दें तथा बचा हुआ जल किसी पौधे की जड़ में डाल दें। किसी रविवार को माला तथा यंत्र नदी में प्रवाहित कर दें।
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