





अर्थात् विष्णु के अंश ही धन्वन्तरी हैं जिन्होंने शरीर अर्थात् ‘आयुर्वेद’ शास्त्र की रचना की। भगवान धन्वन्तरीने लोक कल्याण हेतु एक महाग्रंथ की रचना की जिसे ‘धन्वन्तरी संहिता’ कहा जाता है, जिसमें पूरे शरीर विज्ञान की वैज्ञानिक विवेचना करते हुए उससे सम्बन्धित विशद् वर्णन है। इसमें लिखा है कि सोलह कलाओं से युक्त ऐश्वर्यशाली, ज्ञानवान पुरूष, जिसे ‘योगी’ कहा जा सकता है, वह वही हो सकता है जो शरीर से पूर्ण रूप से स्वस्थ हो,जिसमें कोई दोष न हो और ‘अणिमा सिद्धि’ से युक्त हो। स्वस्थ व्यक्ति वही है, जिसकी इन्द्रियां उसके वश में हो, उसका शरीर उसकी इच्छा के अनुसार चले।
पुराणों के अनुसार अमृत प्राप्ति हेतु देवताओं और असुरों ने जब समुद्र मंथन किया तब उसमें से एक अत्यन्त दिव्य कान्ति युक्त आभूषणों से सुसज्जित सर्वांग सुन्दर और तेजस्वी हाथ में अमृत कलश लिये एक अलौकिक पुरूष प्रकट हुए। ये ही आयुर्वेद के प्रवर्त्तक भगवान धन्वन्तरी के नाम से विख्यात हुए। इन का आविर्भाव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को हुआ और इसीलिये इनकी जयन्ती आरोग्य देवता के रूप में प्रति वर्ष कार्तिक पक्ष त्रयोदशी जिसे धन त्रयोदशी कहा जाता है, संपन्न की जाती है।
भगवान धन्वन्तरी ने ही देवताओं के जीवन के लिये और स्वास्थ्य के लिये आयुर्वेद शास्त्र का उपदेश ऋषि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत को दिया। रोग के सम्पूर्ण नाश के लिये भगवान धनवन्तरी द्वारा रचित धनवन्तरी संहिता आयुर्वेद का आधार ग्रंथ है।
भगवान धन्वन्तरी विष्णु के अंश है और उनका मात्र नाम लेने से रोगों का नाश हो जाता है। गरूड पुराण के अनुसार
देवादीनां रक्षणाय ह्यधर्महरणाय च।
दुष्टानां चे दधार्थाय ह्यवतारं करोति च।।
यथा धन्वन्तरीर्वंशे जातः क्षीरोदमन्धने।
देवादीनां जीवनाय ह्ययुर्वेदमुवाच ह।।
विश्वामित्रसुतायै सुश्रुताय महात्मने।।
धन्वन्तरी ने प्रकट होने पर अपने समक्ष उपस्थित भगवान विष्णु का दर्शन किया। भगवान ने उनसे कहा कि तुम अप् अर्थात् जल से उत्पन्न हो, इसलिये तुम्हारा नाम अब्ज होगा। इस पर अब्ज ने कहा कि ‘ भगवान्! मुझे लोक में कोई स्थान प्रदान करें। मेरे यज्ञभाग की व्यवस्था करें।’ प्रभु ने कहा-‘तुम्हारा आविर्भाव देवताओं के पश्चात् हुआ है। देवताओं के ही निमित्त महर्षियों ने यज्ञ-आहुतियों का विधान किया है। अतएव तुम यज्ञभाग के अधिकारी नहीं हो सकते, किंतु अगले जन्म में मातृ – गर्भ में ही तुम्हें आणिमादि सम्पूर्ण सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जायेंगी और तुम देवत्व को प्राप्त हो जाओगे। तुम काशीराज के वंश में उत्पन्न होकर अष्टांग आयुर्वेदशास्त्र का प्रचार करोगे’ इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
तत्पश्चात् भगवान् धन्वन्तरी इन्द्र के अनुरोध पर देवताओं के चिकित्सक के रूप में अमरावती में रहने लगे।
यह धन्वन्तरी भगवान के पूर्व वचनानुसार पुनः अगले जन्म काशीराज दिवोदास धन्वन्तरी हुए। उन्होंने लोककल्याणार्थ ‘धन्वन्तरीसंहिता’ ग्रन्थ की रचना की। आचार्य धन्वन्तरी ने विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत को सौ मुनि पुत्रों सहित आयुर्वेद की शिक्षा दी थी।
आयुर्वेद शास्त्र में धन्वतरी ऋषि द्वारा दिये हुए ज्ञान से ही भारद्वाज, अश्विनीकुमार, सुश्रुत, चरक आदि ऋषियों ने इस धारा को आगे बढ़ाया तथा मनुष्य के जीवन को स्वस्थ एवं निरोग, आन्नद युक्त रखने के लिये विभिन्न उपायों की रचना की।
संसार के सारे चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद से निकले हैं और जो व्यक्ति आयुर्वेद को अपना लेता है वह मानसिक एवं शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है।
आज मानव इस प्रकार का जीवन जी रहा है, कि उसे ज्ञात ही नहीं होता है, कि कब उस पर यौवनकाल आता है, कब उसकी शैशवास्था समाप्त हो जाती है, कब वह प्रौढ़ बन जाता है। यदि सर्वेक्षण किया जाए तो मानव के अन्दर का उल्लास, जोश मात्र 30 या 35 वर्ष की अवस्था तक ही रहता है।
लेकिन हम यदि अपने पूर्वजों को देखें, तो वे 100 वर्ष की आयु पूर्ण करके भी थके नहीं, जीवन में निरूत्साहित नहीं हुए।
आखिर क्या कारण है, कि हमारे पूर्वज दीर्घायु होते थे, उनकी कार्य क्षमता आज के व्यक्ति से कही अधिक थी, क्योंकि उनके पास ऐसी चिकित्सा पद्धति थी, जिसका वे प्रयोग कर अपनी बीमारियां ठीक कर लेते थे। ऐसा तो नहीं है, कि वे रोग ग्रस्त नहीं होते थे, रोग तो पहले भी थे। भगवान कृष्ण के दो पुत्रों को कुछ कुष्ठ रोग हुआ था जिसे उन्होंने मंत्रों के माध्यम से समाप्त किया।
आज भी आदिवासी क्षेत्रों में जहां आधुनिक सुविधाएं नहीं पहुँच सकी हैं, वहां पर रोगों का इलाज मंत्रों के माध्यम से तथा उनके अपने प्रयोगो के माध्यम से होता है तथा वे प्रयोग पूर्ण रूप से प्रभावी होते हैं।
लेकिन चिकित्सा विज्ञान इसको स्वीकार कर पाने में असमर्थ है। वह मंत्र शक्ति के उपयोग को भली प्रकार से नहीं जान पाया है। मंत्र तथा साधना बल से जर्जर देह में भी अपने आपको पूर्ण रूप से युवा बना लिया है।
अभी भी कुछ ऐसी साधनाएं है, जिनको सम्पन्न कर आज भी सन्यासी जन शून्य कन्दराओं में रहने के बाद भी स्वस्थ रहते है। उनके पास ऐसी ही साधनाओं में एक अद्वितीय रोग मुक्ति हेतु साधना है, धन्वन्तरी सिद्धि प्रयोग।
जिसे सम्पन्न कर व्यक्ति समस्त प्रकार के रोगों से दूर रह सकता है। यह प्रयोग हमारे ऋषियों की ओर से हमें वरदान स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह प्रयोग एक अत्यन्त उच्चकोटि के योगी के द्वारा प्राप्त हुआ है। उन्होंने बताया कि यह प्रयोग अत्यन्त विलक्षण प्रयोग है। धन्वन्तरी अपने काल के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक व आयुर्वेदज्ञ रहे है। धन्वन्तरी ने अपने काल में भयानक से भयानक रोगों को समाप्त किया है। उन्होंने यह भी बताया है, कि अनेक ऋषियों, सन्यासियों ने इस साधना को सम्पन्न कर अपने आपको निरोगी रखा।
इस साधना को सम्पन्न करने वाला व्यक्ति सदैव ही प्रसन्न और जोशीला तथा उत्साहित रहता है, उसकी कार्य क्षमता बढ़ जाती है तथा रोग उसके पास नहीं फटकते हैं।
इस साधना में आवश्यक सामग्री धन्वन्तरी यंत्र, अश्मिना तथा धन्वन्तरी माला है।
इस साधना को आप धन्वन्तरी जयंती के दिन या फिर कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को यह साधना सम्पन्न करें।
यह एक दिन की साधना है। यह साधना सम्पन्न करने वाला साधक उस दिन तक एक समय अन्न ग्रहण करे तथा फलाहार ले। साधक यदि साधना सम्पन्न करने के लिये एक बार आसन पर बैठे, तो फिर मंत्र जप पूर्ण करके ही आसन से उठे। यदि बीच में उठे, तो पुनः हाथ, पैर, मुंह धोकर ही आसन पर बैठें। साधना करते समय मन एकाग्रचित ही रखे। साधक यथासंभव कम बोले।
साधक जिस स्थान पर साधना करे, उस स्थान को साफ, स्वच्छ करे तथा स्वयं भी स्नान कर पीले वस्त्र धारण करें। साधक स्वयं के लिए भी पीले रंग का ऊनी आसन ले।
पीले रंग का वस्त्र बिछाकर उस पर ‘धन्वन्तरी यंत्र’ को स्थापित करे, यंत्र का पूजन पंचोपचार विधि से करें। यंत्र की बायीं ओर कुंकुम से रंग पर चावल की ढेरी बनाकर, उस पर ‘अश्मिना’ स्थापित करें। अश्मिना का पूजन कर, घी का दीपक लगावें।
धन्वन्तरी का ध्यान करते हुए पुष्प यंत्र पर अर्पित करें-
धन्वन्तरी माला से निम्न मंत्र की नित्य 11 माला यंत्र जप करें-
मंत्र जप अनुष्ठान के पश्चात् साधना सामग्री को एक मिट्टी के पात्र में रख दें, प्रतिदिन एक माला मंत्र जप करें, और अगली त्रयोदशी को जिस दिन साधना समाप्त हो रही हो, उस दिन ही मिट्टी के पात्र में यंत्र, अश्मिना तथा माला रख कर, उसमें दो मुट्ठी चावल रखें और उसे नदी में प्रवाहित कर दें।
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