लेकिन जब हम सुनते है, कोई कहे परमात्मा शून्य है, तो लगता है शायद वह कह रहा है, परमात्मा नहीं है। लेकिन अगर ‘नहीं है’ कहना था, तो शून्य के प्रयोग करने की कोई जरूरत ही न थी। सीधा ही कहा जा सकता था, नहीं है। जो नहीं है, उसे नहीं है कहने में कौन सी बाधा थी? जो है, उसे चाहे प्रकट न भी किया जा सके, लेकिन जो नहीं है, उसके सम्बन्ध में तो वक्तव्य दिया ही जा सकता है।
यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस मार्ग को प्रीतिकर समझेगा। गिलास आधा भरा हो, तो कोई कह सकता है, आधा भरा, कोई कह सकता है, आधा खाली। विपरित वक्तव्य है दोनों। अब निश्चित ही भरा और खाली विपरीत सत्य है। लेकिन जिन्होंने देखा है, वे कहेंगे, ये आधे भरे गिलास को कहने के दो ढंग है।
लेकिन बुद्ध कहते है वे ‘शून्य है’। ‘है’ से इनकार नहीं करते। है निश्चित ही, लेकिन शून्य है। और शून्य कहने का कारण यह है, ताकि हम अपने मन की कोई भी धारणायें, वे जो हमारी बुद्धि की जो धारणायें है, जो हमारी कैटेगरीज ऑफ इन्टेलेक्ट है, उन सबको छोड़कर उसकी तरफ चलना। अपने को छोड़कर चलें उसकी तरफ।
परमात्मा को शून्य कहने का अर्थ है कि केवल वे ही उसे जान पायेंगे जो शून्य होने की तत्परता दिखायेंगे। जब वे बिलकुल शून्य हो जायेंगे, तो जान पायेंगे उसे। क्योंकि तब उन दोनों का एक सा स्वभाव मिल जायेगा। एक हारमनी, एक एफीनिटी, दोनों के बीच एक संवाद शुरू हो जायेगा। शून्य है, यह कहने का यह अर्थ है कि वहाँ कोई शब्द नहीं, कोई ध्वनि नहीं, वहाँ कोई रस नहीं। इंद्रियाँ जो भी जानती और पहचानती है, उनमें से वहाँ कुछ भी नहीं। फिर भी वह है।
शून्य कहने का एक कारण और भी है। यह बहुत गहन है। अगर कोई परमात्मा को पूर्ण कहे, तो यह भी सोचा जा सकता है कि और भी पूर्णतर हो सकता है। पूर्ण में और भी कुछ होने का उपाय बना रहता है। लेकिन और शून्य नहीं हो सकता। जब कोई कहता है, परमात्मा शून्य है, तो आखिरी बात आ गई। दो शून्य छोटे और बड़े नहीं हो सकते। ‘शून्य यानी शून्य’।
जब हम कहते हैं, परमात्मा शून्य है, तो तुम ऐसा मत सोचना कि हम केवल संकेत करते है। यह बड़ी हिम्मत का वक्तव्य है। हमें यह नहीं सोचना चाहिये की यह सिर्फ एक संकेत है, शून्य से, और परमात्मा शून्य नहीं है। नहीं, हम कहते हैं, परमेश्वर सत्ता। शून्य ही परमेश्वर की सत्ता है।
जैसे ही हम परमात्मा को पूर्ण कहते हैं, हमारे अहंकार को परमात्मा के साथ मिटाना मुश्किल हो जाता है। वह बढ़ता है। क्योंकि लगता है, परमात्मा को पाकर हम पूर्ण हो जायेंगे। लेकिन जब हम कहते हैं परमात्मा शून्य है, तो उसका अर्थ है कि परमात्मा को पाना हो, तो हमको मिटना पड़े और शून्य होना पड़े।
इसलिये साधक की दृष्टि से परमात्मा को शून्य कहना ही उचित है। दर्शन की दृष्टि से पूर्ण भी कहा जा सकता है, लेकिन साधक की दृष्टि से पूर्ण कहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि साधक बहुत नाजुक हालत में है। सवाल यही है कि अहंकार मिट जाये, तो वह परमात्मा को पाल ले, जो पूर्ण है या शून्य है, जो भी है। लेकिन पूर्ण परमात्मा की कल्पना के साथ अपने को मिटाने का खयाल नहीं आता, बल्कि और अपने बड़े हो जाने का खयाल आता है। ऐसा लगता है कि परमात्मा को पाकर हम और भी मजबूत, और भी विराट, और भी अमृत, और भी दुःख के पार, हम बचे रहेंगे।
इसलिये साधक को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि शून्य परमात्मा का स्वभाव है और जब तक तुम शून्य न हो जाओ, तब तक उसे न पा सकोगे। यद्यपि जो पा लेते है, वे उसे पूर्ण भी कह सकते हैं, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उनकी तरफ से अगर ध्यान रखना हो, तो शून्य कहना ही उचित है। क्योंकि परमात्मा को वही बताना उचित है, जो हमें बनना हो। परमात्मा को ऐसा कोई भी संकेत देना खतरनाक है, जो हमारे मिटने में बाधा बन जाये। मिट जाना है, खाली हो जाना है, तो ही हम उससे भर पायेंगे। तो जो हमें हो जाना है, परमात्मा को वही कहना उचित है।
असल में सारा अस्तित्व शून्य से पैदा होता है और शून्य में ही लीन होता है। एक बीज है वृक्ष का, तोड़े और खोजे कि वृक्ष उसमें कहाँ छिपा है। कहीं भी न मिलेगा। पीस डालें, कहीं वृक्ष नहीं मिलेगा। फिर भी इसी बीज से वृक्ष पैदा होता है। यही बीज टूटकर जमीन में बिखर जाता है और अंकुर निकलता है और वृक्ष बन जाता है। लेकिन बीज में खोजने से वृक्ष कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता था।
कहाँ से आता है यह वृक्ष? शून्य से आता है। बीज में तो सिर्फ इस वृक्ष की रूप रेखा होती है, वृक्ष नहीं होता। बीज में तो सिर्फ नक्शा होता है कि वृक्ष कैसा होगा। जैसे कि कोई आर्किटेक्ट एक मकान बनाता है और अपनी फाइल में एक नक्शा दबाकर चलता है। आप उसके नक्शे में रहने की कोशिश मत करना। वह नक्शा सिर्फ ब्लू प्रिंट है। वह सिर्फ रूप रेखा है, जैसा कि मकान बन सकेगा, उसकी सिर्फ रूप रेखा है। वृ़क्ष तो शून्य से आता है, बीज रूप रेखा देता है और वृक्ष निर्मित होता है।
सारा अस्तित्व शून्य से निकलता है और सारा अस्तित्व शून्य में लौट जाता है। जब एक वृक्ष गिरता है और नष्ट होता है, तो पत्ते जमीन में मिलकर सिर्फ मिट्टी हो जाते हैं। वे मिट्टी से आये थे। रूपरेखा खो गयी, सब समाप्त हो गया। सत्तर साल वृक्ष को रहना था, वह बात समाप्त हो गई। मिट्टी अपनी मिट्टी खींच लेती है, पानी अपना पानी वापस ले लेता है, आकाश अपना आकाश मांग लेता है, सूर्य अपनी किरणों को वापस उठा लेता है, हवायें अपनी हवाओं को खींच लेती है। लेकिन वृक्ष कहाँ गया। वह जो जीवन था, जिसने इस मिट्टी को इक्ट्ठा किया था और हवा को बांधा था और जिसने पानी खींचा था आकाश से और सूरज से किरणें ली थीं, वह जो जीवन था, जिसने यह सब संघट किया था, यह सारा आर्गनाइजेशन किया था, वह जीवन कहाँ है? वह शून्य से आया था और शून्य में वापस लौट गया।
परमात्मा को शून्य कहने का कारण है। जो भी दिखाई पड़ता है, वह तो पदार्थ है। जो भी पकड़ में आता है, वह तो पदार्थ है। इस सब दिखाई पड़ने वाले और पकड़ में आने वाले के अतिरिक्त कहीं कोई मूल स्त्रोत जीवन का चाहिये। उसे हम क्या कहें? उसे हम कोई भी नाम देंगे, तो वह पदार्थ जैसा मालूम पड़ेगा। शून्य भर एक शब्द है हमारे पास, जो पदार्थ जैसा मालूम नहीं पड़ता।
इसलिये परमात्मा को शून्य कहा गया है। इसीलिये उसे निराकार कहा है, सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। इसीलिये उसे निर्गुण कहा है, सिर्फ शून्य ही निर्गुण हो सकता है। इसीलिये उसे सनातन कहा है- सदा एक जैसा रहने वाला- सिर्फ शून्य ही सदा एक जैसा हो सकता है।
शून्य संकेत नहीं है हमारा, शून्य उसकी सत्ता है। विराट जगत उसी से पैदा होता है और उसी में लीन हो जाता है। शून्य परमात्मा की सत्ता, उसका अस्तित्व, उसके होने का ढंग है। इसीलिये वह दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिये परमात्मा का दर्शन, ठीक शब्द नहीं है कहना। आँख से तो वह दिखाई नहीं पड़ेगा। कोई भी शब्द उपयोग करेंगे, तो इंद्रियों का होगा। परमात्मा की होती है प्रतीति, होती है अनुभूति, होती है एक्सपीरिएंसिंग, दर्शन नहीं।
परमात्मा तो सिर्फ उन्हें ही अनुभव में आना शुरू होते है, जो विकाररहित हो गये होते है। वह सिर्फ उन्हीं के निकट जाहिर होते हैं, जिनके पास छिपाने को कुछ भी नहीं रह जाता। इसीलिये परमात्मा शून्य है। यह संकेत नहीं उसकी सत्ता है।
जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने परमात्मा को या तो पूर्ण कहा है, या शून्य कहा है। परमात्मा के संबंध में कोई संकेत करने के यो दो ही उपाय है। या तो हम कहें वह पूर्ण है, या हम कहें वह शून्य है।
‘‘शून्य संकेत नहीं, परमात्मा की सत्ता ही है।’’
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