सूर्य ही समस्त चराचर जगत में प्राणों का संचार करते हैं। सूर्य की उपासना सम्पन्न करने से साधक के व्यक्तित्व में स्वतः ही परिवर्तन आने लगता है और उसके अन्दर अडिगता तथा दृढ़ संकल्प जैसे गुणों का समावेश होने लगता है, वह रोगों से मुक्त हो जाता है और एक अद्वितीय तेजस्विता साधक की देह में समाहित होकर समस्त विषम परिस्थितियों को समाप्त कर देती है।
जिस प्रकार भौतिक जगत में विभिन्न कार्य के सम्पादन के लिये शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसी तरह ऊर्जा शक्ति के सृजन और वर्धन करने के लिये प्राणों को चेतना की आवश्यकता होती है, उसकी सुप्त अवस्था को समाप्त करने की या और अधिक क्रियाशील बनाने की आवश्यकता होती है। शरीर के भीतर अन्न से ऊर्जा सृजन की क्रिया भी प्राणों द्वारा होती है। प्राण ही हमारे क्रिया शक्ति के मूल हैं।
उस प्राण शक्ति को ऊर्जावान और चेतनावान बनाने की क्रिया जब साधक सम्पन्न कर लेता है, तो उसमें एक विशिष्ट परिवर्तन होने लगता है। सूर्य की तेजस्विता ग्रहण करने का तात्पर्य यही है कि हम अपनी प्राण शक्ति को और अधिक सुदृढ़ बना सकें और जब प्राण शक्ति में सुदृढ़ता, मजबूती आयेगी, जब वह शक्ति और ऊर्जा के भण्डार से आपूरित होगा, तो सांसारिक क्रियाओं में स्वतः ही सफलता मिलनी प्रारम्भ हो जायेगी। समस्याओं का निराकरण हमारे प्राण शक्ति की प्रेरणा से निरन्तर प्राप्त होता रहेगा और अधिक निरन्तर उन्नति-प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेगा। सांसारिक जीवन में सुख-सौभाग्य, आनन्द, प्रेम, उल्लास की प्राप्ति करने से सफल होगा।
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