भगवान शिव को आदि देव माना गया है जो अपनी इच्छानुसार मनुष्य को जन्म देते है और जन्म को मृत्यु के रूप में वापस भी ले लेते हैं। इस प्रकार भगवान शिव ही प्रदाता अर्थात् जनक, सृष्टि विनाश कर्त्ता और सृष्टि में जीव को पुनः जन्म देने की अनन्त शक्ति रखते हैं। मूल रूप से भगवान शिव के तीन स्वरूप है। ये तीन स्वरूप है-शिव, रूद्र एवं महेश्वर। शिव तीन प्रकार की आधारभूत ज्ञान शक्तियों को नियन्त्रित करते है, उन्हें संयोजित करते हैं। ये तीन शक्तियाँ हैं ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति एवं क्रिया शक्ति।
भगवान शिव को भोलेनाथ, सदाशिव, शम्भु, पशुपति, महामृत्यंजय, शंकर महामहेश्वर,पंचानन नीलकंठ, अर्द्धनारीश्वर इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया गया है। भगवान शिव ही एक मात्र गृहस्थ देव है जिनका भरापूरा परिवार है। पत्नी, पुत्र, पौत्र घर में पशु-पक्षी इत्यादि सभी कुछ है और इन सब के साथ एक आनन्द का विशेष वातावरण है। शिव को भोलेनाथ कहने वाले एक प्रकार से उनकी आलोचना ही करते हैं। वास्तव में भगवान शिव ही जगत् के कारक है और उनके सम्बन्ध में ब्रह्म स्वयं कहते है-
यह सम्पूर्ण परिदृष्यमान जगत तब उत्पन्न नहीं हुआ था, उस काल में सत्-असत् कुछ भी नहीं था, प्रत्युत अव्यक्त रूप में ही था। उस समय निरन्तर व्यापिरूप ब्रह्ममय तेज उत्पन्न हुआ अर्थात् प्रकट हुआ। वह ब्रह्मतेज स्थूल, सूक्ष्म, शीत और उष्ण आदि कुछ नहीं था। वह सत्यरूप से ज्ञानरूप ही था और अनन्त था। समाधिनिष्ठ योगीगण समाधि में स्थित होकर योगदृष्टि से यानि दिव्यदृष्टि के द्वारा उस तेज-शुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिः का नित्य ही अवलोकन अर्थात् साक्षात्कार किया करते हैं। ज्ञान-विज्ञान को देने वाला ब्रह्मतेज प्रकट हुआ। इसी में माया रूपी शक्ति विद्यमान हो गई। वह माया-बाह्य रूप में भी जो हम शिव का पूजन-अर्चनादि करते हैं, उस शिवलिंग को भी वस्तुतः शिव-शक्ति के ही चिन्ह के रूप में पूजते हैं।
इस लोक में ब्रह्मा से लेकर तिनके तक जो कुछ भी दिखलाई देता है, वह शिव का ही स्वरूप है। इसमें विविध भांति की कल्पना करना मिथ्या एवं व्यर्थ ही है। सृष्टि के पूर्व शिव है तथा इस संसार की रचना के मध्यकाल में भी शिव है और सृष्टि के अन्त में भी शिव ही रहते हैं। जब सर्वशून्य होता है उस समय भी सदाशिव विद्यमान रहते हैं।
अर्थात् ईशान ही समस्त विद्याओं एवं भूतों के ईश्वर है, वे समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते है, सब चराचर जगत में वे समाये हुए हैं, सारा जगत् उनमें समाया हुआ है।
यही शिव-तत्व का सार है, शिव-दर्शन है।
शिव शब्द का अर्थ है कल्याण, शिव ही शंकर है, शं का अर्थ है कल्याण, क का अर्थ है करने वाला अर्थात् शंकर ही कल्याणकारी देव है, ब्रह्म ही शिव है, सृष्टि की उत्पति और पूर्णता शिव में ही है।
जिस प्रकार पुष्प में गंध, चन्द्र में शीतलता, सूर्य में प्रभा सिद्ध है, उसी प्रकार शिव में शक्ति भी सिद्ध है, शक्ति को किसी भी रूप में कहा जाए, उमा, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्माणी, इन्द्राणी, महाकाली इत्यादि सब शिव के साथ ही निहित हैं। शिव पुरूष रूप है तो उमा स्त्री स्वरूप, शिव ब्रह्म है तो उमा छाया, शिव चन्द्र है तो उमा तारा, शिव यज्ञ है तो शक्ति दोनों की संयुक्त रूप से ही आराधना की जाती है। लिंगाकार रूप में भी शिव और शक्ति का समन्वित रूप लिंग और वेदी के रूप में प्रकट होता है।
शिव सृष्टि के पुरूष तत्व को स्पष्ट करते हैं और उनके ऊपर नृत्य करती हुई स्त्री शक्ति का स्वरूप है तथा ब्रह्माण्ड की उत्पति भी शिव और शक्ति संयोग से ही हुई है। जब प्रकृति अपना कार्य करती रहती है तब शिव शांत रहते हैं और जब शक्ति तीव्र हो जाती है तब शिव जाग्रत होते हैं। शिव संहिता के अनुसार जीव प्रत्येक पुरूष के शरीर में तथा स्त्री के शरीर में विद्यमान रहता है और यह जीवन हजारों प्रकार की इच्छाओं से ढका हुआ रहता है। इस जीव में तथा देह में एक विशेष सम्बन्ध है जो कि उसके कर्मो के कारण जुड़ा रहता है। और उसी के अनुसार मनुष्य सुख और दुःख प्राप्त करता है। जो जीव सद्कार्य करता है उसे इस जन्म में आनन्द और शान्ति की प्राप्ति होती है और जो मनुष्य अपने कर्मो के बन्धन बांधता रहता है उसे किसी भी प्रकार से शांति प्राप्त नहीं हो सकती। यह जीव तथा मनुष्य की आत्मा के बीच का सम्बन्ध, शिव और शक्ति का सम्बन्ध है। जब मनुष्य इनका सहयोग कर अपनी आन्तरिक शक्ति को पहचान जाता है तब वह कर्म बन्धन से मुक्त होकर तुरीय अवस्था, परामानन्द की अवस्था प्राप्त कर सकता है।
पुराणों के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में एक महान् पुरूष का प्रकटीकरण हुआ जिसे सदाशिव कहा गया। सदाशिव का तात्पर्य है वह महान व्यक्ति जिसने अपना जीवन दूसरों की भलाई के लिए, उन्हें ज्ञान प्रदान करने के लिए समर्पित कर दिया हो। इसलिये शिव को परम आध्यात्मिक गुरू कहा गया है तथा गुरू को शिव कहा गया है क्योंकि शिव और गुरू दोनों का कार्य मनुष्य के ऊपर छाये हुए अन्धकार को हटाकर उसे परम ज्ञान, आत्मीय ज्ञान प्रदान करना है जिससे कि वह स्वयं को समझ सके और इसीलिए शिव ज्ञान के प्रदायक तथा रोग शोक, पीड़ा के नाशक देव कहे जाते हैं।
शिव वैवाहिक जीवन के प्रतीक स्वरूप है क्योंकि शिव तथा पार्वती का विवाह ही सृष्टि का प्रथम विवाह माना गया है और शिव जिनके माता-पिता की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती, उनके द्वारा हिमालय पुत्री पार्वती से विवाह श्रेष्ठतम युग्म के रूप में जाना जाता है जिससे कि मनुष्य अपने जीवन में धर्म के साथ काम भाव को रखता हुआ सृष्टि की रचना और उसके पालन में सहयोगी हो सके।
शिव द्वारा कहे गये सिद्धान्तों को निगम कहा गया है तथा शिव सिद्धांतों को क्रियारूप में परिणित विधियों को आगम शास्त्र कहा गया है।
शिव का निराला स्वरूप भक्ति-भावना से प्रेरित होकर शिव भक्तों ने शिव का त्रिनेत्र, त्रिशूल, मुण्डमाला धारण किये रूप में दर्शन किया है, उन्हें दिगम्बर, श्मशानवासी कहा है। किसी भक्त ने शिव को अर्धनारीश्वर माना है, किसी ने शिव को मदनजित समझा। किसी ने शिव को भस्मधारी भी कहा। वास्तव में शिव के त्रिनेत्र, त्रिशूल और उनके मुण्डमाला आदि धारण करने का गूढ रहस्य है।
शिव के त्रिनेत्र, त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान-ज्ञान के बोधक है। तीनों नेत्र, सूर्य चन्द्रमा और अग्नि स्वरूप है। शिव का मुण्डमाला मरणधर्मा प्राणी को सदा-सर्वदा मृत्यु स्मरण कराता है। मृत्यु का स्मरण होते ही मानव सावधान हो जाता है। सावधान होते ही जीवन अपने को दुष्कर्मो से विरत रखने का प्रयास भी कर सकता है। शिव दिगम्बर होते हुए भक्तों के एश्वर्य को बढ़ाने वाले हैं और मुक्त हस्न दान करते रहते हैं। श्मशानसेवी होते हुए भी तीनों लोकों के स्वामी है। अर्धनारीश्वर होते हुए योगीधिराज हैं। मदनजित होते हुए भी सदा-सर्वदा शक्ति (उमा) के साथ रहते है। भस्मधारी होते हुए भी अनेकानेक रत्न राशियों के अधिपति है। वही शिव अजन्मा भी है और वही शिव अनेक रूपों में आविर्भूत भी है, गुणातीत भी है, गुणाध्यक्ष भी है, अव्यक्त भी है और व्यक्त भी है। संयुक्त शिव-शक्ति की उपासना में मानव-जीवन की पूर्ण सार्थकता है और इसमें उसका परम कल्याण भी निहित है।
भगवान शिव को आदि देव माना गया है जो अपनी इच्छानुसार मनुष्य को जन्म देते है और उस जन्म को मृत्यु के रूप में वापस भी लेते हैं। इस प्रकार भगवान शिव ही प्रदाता अर्थात् जनक, सृष्टि विनाश कर्त्ता और सृष्टि में जीवन को पुनः जन्म देने की अनन्त शक्ति रखते हैं। मूल रूप से भगवान शिव के तीन स्वरूप है। ये तीन स्वरूप है-
शक्ति के सहयोग से शक्ति अर्थात् वह ऊर्जा जो शिव को जीवन्तता एवं गति प्रदान करती है, उसके माध्यम से शिव तीन प्रकार की आधारभूत ज्ञान शक्तियों को नियन्त्रित करते हैं, उन्हें संयाजित करते हैं। ये तीन शक्तियाँ हैं 1. ज्ञान शक्ति, 2. इच्छा शक्ति, 3. क्रिया शक्ति।
इस प्रकार शिव तीनों शक्तियों को संचालित करते हुए, मनुष्य को उसका जीवन चलाने का आधार प्रदान करते हैं, क्योंकि शिव आदिदेव है जो मनुष्य के दैहिक रोग, शोक और ताप को मानसिक एवं आध्यात्मिक रूप से समाप्त करते है तथा उनका निद्रायुक्त होना सब प्रकार के विचारों से रहित होकर शांत भाव से शयन है, शोक व ताप से परे है।
इसी प्रकार शिव को काल ही नहीं महाकाल कहा गया है। जो समय की शक्ति को प्रयोग में लाकर उस पर नियन्त्रण रखते हुए नष्टकारी वस्तुओं को नष्ट करते है और आवश्यक वस्तुओं को पुनः शक्ति के सहयोग से उत्पन्न भी करते हैं।
लिंग पुराण के अनुसार भगवान शिव ने अर्द्धनारीश्वर स्वरूप बनाया जिसमें आधा स्वरूप पुरूष रूप में था तथा आधा स्वरूप नारी में था और उसी से ब्रह्माण्ड की उत्पति हुई। शिव सृष्टि के बीज कर्त्ता है, विष्णु उसे धारण करने वाले हैं तथा ब्रह्मा जोड़ने वाले है और इसी रूप में पृथ्वी और प्रकृति ग्रहण करती है तथा उत्पन्न करती है।
भगवान शिव को कई नामों से सम्बोधित किया जाता है। उनका एक स्वरूप त्रिनेत्र तथा पंचमुख है, उसी स्वरूप में चन्द्रमा का मुकुट धारण किये हुए है। पर्वतों के अधिदेव कहे गये है। प्रस्फुटित अग्नि के स्वरूप बताये गये है। इस प्रकार शिव केवल संहार कर्त्ता देव नहीं है जो केवल जीवों को समाप्त करते हैं क्योंकि जीवन तो मृत्यु के बाद प्रकट होता है। अतः संहार और संरचना दोनों के देव शिव ही कहे गये हैं।
भगवान शिव को मायावी कहा गया है जो संसार में मायावी रचना करते हैं और उस मायावी रचना में मनुष्य को मग्न रखते हैं। इसी प्रकार अपनी मुद्राओं द्वारा तथा अपने यंत्रों द्वारा ब्राह्माण्ड को नृत्य कराते रहते है। पशुपति के रूप में वह उन सब पशुओं के देव हैं जो माया और अज्ञान से घिरे हुए हैं, उनकी रक्षा करते है तथा उन प्राणियों को आत्मिक स्वतन्त्रता की ओर ले जाते हैं। उमापति के रूप में वे प्रेम के देव है और शक्ति के साथ संयोग करते हैं। मनुष्य स्तर पर पुरूष और स्त्री का प्रेम और स्नेह का वातावरण रहता है। विरूपाक्ष रूप में जिसे त्रिलोचन स्वरूप कहा गया है। भगवान शिव तीसरे नेत्र से युक्त जो अत्यन्त तीव्र एवम् विस्मयकारी है, यह तृतीय नेत्र ज्ञान नेत्र भी कहलाता है जिससे प्रेम और अग्नि दोनों एक साथ ऊर्जा के रूप में निकलते रहते है। धूर्जटे स्वरूप में जिसमें भगवान शिव का स्वरूप भस्म लगाये हुये तथा जटायें फैलाते हुए सन्यासी स्वरूप है। उस रूप में शिव संसार में प्रकृति के साथ रहते हुए भी बिल्कुल अलग तथा सब वस्तुओं से परे है जिन्हें संसार के माया मोह इत्यादि प्रभाव नहीं डाल सकते। भगवान शिव को नटराज के रूप में भी जाना जाता है उस रूप में वे हाथ में डमरू तथा पैरों में घुंघरू बांध कर वीर रूप में सिर पर तिलक लगाए हुए जिनके नृत्य से पूरा संसार नृत्यमान रहता है। भगवान शिव को कामदेव को भस्म करने वाला अर्थात् काम को जीतने वाले देव रूप में जाना जाता है। इस प्रकार वह अपनी भोग शक्ति को, इच्छाओं को नियन्त्रित कर उसे क्रिया शक्ति में परिवर्तित कर जो अग्नि प्रकट करते हैं वह अनुशासन और तप कहलाता है और उसी के माध्यम से मनुष्य पूर्णत्व प्राप्त कर सकता है।
भगवान महादेव की महिमा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, उनकी तो केवल पूजा, अर्चना, साधना ही की जा सकती है, जिससे वे हमें आशीर्वाद प्रदान करें। वैसे तो प्रत्येक माह के प्रदोष अर्थात् दोष का निवारण करने वाली शिव तिथि मानी जाती है। इस बार दिनांक 26 फरवरी को महाशिवरात्रि है और इस बार पूरे फाल्गुन मास में शिव साधनाएं सम्पन्न करनी है। जिससे जीवन सत्य से युक्त, सुन्दर और शिवमय बन सकें।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
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