हम सामान्य जीवन में देखते है कि अधिकतर लोग वस्तुओं के प्रेम में अटक जाते है, धन, सम्पदाओं का प्रेम हमारे लिये धोखा है। सच्चे प्रेम में अहंकार मिट जाता है लेकिन यदि हम जितनी सम्पति संग्रह करेंगे उतना अंहकार हमारा बढ़ता ही जाता है जब दो व्यक्ति एक दूसरे को सच्चा प्रेम करते है तो वह धीरे-धीरे एक जैसे हो जाते है। उनकी आदते, उनका ढ़ंग, उनका व्यवहार यहां तक कि उनका स्वरूप भी एक जैसा होता जाता है और जो व्यक्ति वस्तुओं को प्रेम करते है वह वस्तुओ जैसा हो जाता है। वह मनुष्यों से प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का संबंध होने पर उनकी वस्तुओं में भी भागीदार बनने का भय होता है क्योंकि एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध बनने पर उससे धन या अन्य वस्तुओं की मांग कर सकता है लेकिन पहला व्यक्ति धन व वस्तुओं से प्रेम के कारण ही मनुष्य से घृणा करता है और उसे वस्तुओं के लिये मना कर देता है। मनुष्यों का आपस में प्रेम करना वस्तुओं से प्रेम करने के इस स्तर से ऊंचा स्तर है क्योंकि यह प्रेम अपने ही समान आत्मा से एवं चैतन्य व्यक्ति से करना होता है। जो व्यक्ति मनुष्य से प्रेम करता है वह वस्तुओं से प्रेम नहीं करके उन्हें दूसरों को आसानी से दे सकता है क्योंकि जिसने मनुष्यों से प्रेम कर लिया वह जान लेता है कि वस्तुयें तो बेजान है तथा मनुष्यों का प्रेम जीवन्त है।
वस्तु या धन एक बार समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाता है तथा उसे दोबारा अर्जित करना पड़ता है लेकिन मनुष्य से जितना प्रेम करेंगे तो प्रत्युतर में अधिक-से-अधिक प्रेम तो मिलेगा ही और यह संसार प्रेम आकर्षण के सम्बन्धों की डोरी से बंधा हुआ रिश्तों की बागडोर से सिंचित होता हुआ गतिशील है।
व्यक्ति वस्तुओं से तभी प्रेम करता है जब वह मनुष्यों से प्रेम अर्जित नहीं कर पाता या मनुष्यों से प्रेम करने में सफल नहीं हो पाता, जीवन में जब मनुष्यों से प्रेम मिलना आरम्भ होता है तो मनुष्य वस्तुओं से प्रेम करना छोड़ देता है। वस्तुओं के प्रति उसकी त्याग की भावना बनती है क्योंकि उसे मनुष्य से प्रेम जो मिला। वह अपनी प्रिय वस्तुओं को अपने प्रेमी पर लुटाता है लेकिन मनुष्यों के प्रेम में दोनों तरफ अहंकार होता है वे एक-दूसरे के प्रति विचार रखते है कि यह मुझे समर्पित हो जाये तथा वह स्वयं बचा रहे। दोनों यही विचार रखते है कि वह बच जाये तथा मेरी प्रेमिका, मेरा भगवान, मेरा शिष्य, मेरा गुरू केवल मेरा हो जाय मिट जाये, झुक जाये, समर्पित हो जाये। ऐसा प्रेम दुविधा पूर्ण हो जाता है। व्यक्ति को हमेशा अशांतता मिलेगी, उसकी अशांति भी अपने प्रेमी के लिये ही होगी क्योंकि सभी एक दूसरे को झुकाने के लिये प्रयासरत है स्वयं झुकने के लिये कोई तैयार नहीं है, न ही कोई मिटना चाहता है और समर्पण किये बिना प्रेम पूर्ण नहीं होता, बिना मिटे परम् अनुभूति नहीं होगी।
अगर कभी प्रेम किया है तो उससे दोनों चीजें मिलती है। प्रेम करने वाले व्यक्ति जानते है कि प्रेम करने पर सुख भी मिलता है और दुःख भी। यहीं से ईश्वर की तरफ झुकाव का मार्ग आरम्भ होता है कोई व्यक्ति अत्यधिक प्रेम करता है अपने पुत्र को लेकिन बड़ा होने पर वहीं पुत्र पिता को दुत्कार देता है। दुःख देता है कोई पति अपनी पत्नी को अत्यधिक प्रेम करता है लेकिन वह भी बेवफा निकल जाती है तो उसे दुःख पहुँचता है।
प्रेम में दुःख पाने पर व्यक्ति इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये छोड़ता है वस्तुओं से प्रेम, प्रेमी से प्रेम तथा एक ऐसे सच्चे व्यक्ति के मिलने की चाह अपने मन में संजोये रख कर तलाशता रहता है। यहां पर गुरू की आवश्यकता होती है जो उसे सही मार्ग पर ईश्वर की तरफ ले जा सके तथा गलत मार्ग से हटा कर अपना सानिध्य प्रदान करे। लेकिन गुरू भी सबसे पहले उससे उसका समर्पण ही चाहता है कबीर कहते है-
कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
शीश उतारे भुई धरे, वो पयसे घर माहिं।।
गुरू शिष्य को समझाने की कोशिश करता है कि यह जो दुःख तुम्हें प्राप्त हुआ है इसका कारण तुम स्वयं हो तुम्हारा अहंकार ही इसका कारण है। यह कलह, यह विवाद तुम्हारे प्रेम के कारण नहीं थी। यह अहंकार के कारण थी। क्योंकि वह लड़ाई अंहकार के कारण अपनी बात मनवाना चाहते है। तुम अपनी बात बड़ी रखना चाहते थे, पत्नी स्वयं को सही बताती थी और तुम अपने आपको। अतः दोनों का अहंकार आडे आता है, दोनों चाहते थे कि दूसरा झुक जाये, दूसरा समर्पण कर दें लेकिन अंहकार के कारण कोई झुक नहीं पाया।
सामान्यतया जीवन में अध्यापक को भी गुरू कहा जाता है। लेकिन गुरू और अध्यापक में फर्क है। अध्यापक तुम्हें पढ़ाता है और तुम्हारे अंदर पुस्तकों-पोथियों का ज्ञान भरता रहता है। अपना ज्ञान तुम्हें देता रहता है इससे तुम जानकार बन जाते हो, ज्ञानी हो जाते हो PERFECT बन जाते हो और एक अवस्था आती है कि तुम भी एक अध्यापक के समान कार्य करने लगते हो, अन्य को पढ़ाने लगते हो, परन्तु ध्यान की ओर कभी कदम नहीं बढ़ा पाते। गुरू देता है- ध्यान करने की क्रिया, ध्यान करना गुरू की ही क्रिया है तुम्हें मिटाता है अपने शक्तिपात से, स्पर्श से तथा तुम्हें विवश करता है अध्यात्म के लिये, सोचने-विचारने के लिये, वह जीवन में ऐसी विसंगतियां उत्पन्न करता है कि तुम खाली हो सकों जो कुछ तुम्हारे भीतर ज्ञान है जानकारी है उसे मिटाता है। तुम्हें खाली पात्र बनाता है जिसमें अमृत भरा जा सके।
ज्ञान तो हमे अध्यापक भी करा देते है और जिस स्थिति में हम है उसी स्थिति में करा देते है उसके लिये हमें कोई बड़ी तैयारी नहीं करने पड़ती परन्तु मुश्किल यही है कि अध्यात्मिक क्षेत्र में तभी उतरा जा सकता है जब हमारी आंतरिक व बाहरी तैयारी हो जब हम मिट ही जायें ध्यान में ‘मैं’ मिट जाता है, जब अहम पूर्ण रूपेण मिट जाता है। गुरू के पास आने से तुम इसलिये डरते हो जिसे तुम अपनी सम्पति मान बैठे हो वह सब ज्ञान विचार कुड़े के ढेर जैसा है। गुरू उसी को तुम्हें फेंक देने के लिये कहता है और तुम उसे फेंकने से कतराते हो और जब तक अपने मन रूपी पात्र को खाली नहीं करोगे, उसे धो मांजकर शुद्ध नहीं करोगे, पवित्र नहीं करोगे, पक्का होने के लिये अग्नि में पकोगे नहीं तो तुम्हारा पात्र अशुद्ध एवं कच्चा ही रहे जायेगा और परमात्मा द्वारा दिये गये वरदान, अमृत को तुम आत्मसात् नहीं कर पाओगे और आनंद नहीं उठा पाओंगे। तब तक सही शिष्यता से युक्त नहीं हो पाओगे।
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