अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इन छः का नाम भाग है और ये भगवान के स्वरूप हैं। ऐश्वर्य- उस सर्व वशीकारिता शक्ति को कहते हैं, जो सभी पर निर्बाध रूप से अपना प्रभाव स्थापित कर सके। धर्म- उसका नाम है, जिससे सभी का मंगल और उद्धार होता है। यश- अनन्त ब्रह्माण्ड व्यापिनी मंगल कीर्ति है। श्री- ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पत्तियों का जो एकमात्र मूल स्वरूप महान शक्ति है। ज्ञान- ज्ञान तो स्वयं भगवान का दिव्य स्वरूप ही है। वैराग्य- साम्राज्य, शक्ति, यश आदि में जो स्वाभाविक अनासक्ति है। सर्वकाल की समस्त वस्तुओं के साक्षात्कार को ज्ञानमय चौसठ कला कहते हैं।
श्री कृष्ण प्रकारान्तर से चौसठ कला युक्त है। इनमें से पचास तो उच्चभूमि पर आधारित जीवों में उन्हीं की कृपा से जागृत होते हैं, किन्तु इसके अतिरिक्त पांच गुण ऐसे हैं, जो श्री रूद्र में होते हैं, पांच गुण श्रीपति में प्रकट हैं। किन्तु चार ऐसे गुण हैं, जिनका पूर्ण प्राकट्य केवल मात्र कृष्ण में ही है। वे गुण हैं- लीला माधुरी, प्रेम माधुरी, रूप माधुरी और वेणु माधुरी इन चारों दिव्य गुणों के कारण ही वे मधुराति मधुर हैं।
भारतीय संस्कृति के इतिहास में कृष्ण जैसा अद्भुत व्यक्तित्व कोई दूसरा है ही नहीं, पूरे जीवन सामान्य पुरूष की तरह रहते हुए सृष्टि की धारा बदल दी। आर्यावत में अधर्म का समूल नाश कर शुद्ध धर्म की स्थापना की। सबसे बड़ी बात उन्होंने जीवन में कर्म का सिद्धान्त दिया। अपने जीवन में षोडश कलाओं को सिद्ध कर जीवन में कर्म सिद्धान्त स्थापित कर दिया।
कृष्ण के नाम से आज समस्त विश्व परिचित है। जन-मानस में जो छवि है, वह उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करती है और उनके ईश्वर होने से अथवा उनमें ‘ईश्वरत्व’ के होने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिन कलाओं का आरम्भ ही अपने-आप में ईश्वर होने की पहचान है फिर वे तो चौसठ कला पूर्ण देव पुरूष है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर आज भी ‘कृष्णलीला’, गीता पठन तथा ‘श्रीमद् भागवत’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत कृष्ण के जीवन का विवेचन कर भक्तों के हृदय में सुचेतना का विस्तार किया जाता है।
कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्णरूप से समाहित थे और वे अपने जीवन में षोडश कला पूर्ण होकर ‘योगेश्वर’ कहलाये। जहां उन्होंने प्रेम, त्याग और श्रद्धा जैसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्याभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया तो उस समय कृष्ण ने जो युद्धनीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने-आप में नीति कारक ही था।
कृष्ण ने अपने जीवनकाल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया। अधर्म, व्याभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीवन को उन्होने वध करने योग्य ठहराया, फिर वह चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो और सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक युद्ध ही तो था। कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर, अपने नाना को कारागार से मुक्त करवा कर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया और निर्लिप्त भाव से रहते हुए कृष्ण ने धर्म की स्थापना, सदैव सुकर्म की क्रिया को प्रोत्साहित किया। कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम में पहुँचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर गुरू-सेवा की, साधनाये की और साधना की बारीकियों व अध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया।
श्रीकृष्ण के जीवन का एक-एक क्षण मानव जीवन के लिये प्रेरणादायक है, वे केवल सम्मोहन, वशीकरण, सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं है। वे पूर्ण योगेश्वरमय है, पूर्णता के परिचायक है, जिनकी साधना, उपासना के स्वरूपों को धारण कर साधक अपने आपको योग-भोग से पूर्ण कर सकता है। भोग का तात्पर्य केवल वासना नहीं होता, भोग का तात्पर्य है कि आपके जीवन में कोई अभाव ना हो, आप समाज में पूज्य हो, आपके ज्ञान का स्तर उच्चतम हो, जिससे स्वयं के साथ-साथ जनमानस का कल्याण हो सके।
कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण-दिवस है और भगवान श्रीकृष्ण चौसठ कला पूर्ण व्यक्तित्व स्वरूप में सर्वत्र विद्यमान है। भगवान कृष्ण ने तो कभी भी जीवन में कर्म की राह नहीं छोड़ी उनका जीवन उदाहरण है, उनके जीवन की हर घटना प्रेरणादायक है, इसीलिये उन्हें योगेश्वर कृष्ण कहा गया है।
अतः जो व्यक्तित्व चौसठ कला पूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है। वह पूर्णरूपेण ‘ब्रह्मत्व’ स्वरूप में वन्दनीय बन जाता है।
कृष्ण केवल भक्ति स्वरूप ही नहीं है, उनके तो जीवन, कर्म, उपदेश जो गीता में समाहित हैं के साथ-साथ नीति-अनीति, आशा-आकांक्षा, मर्यादा-आचरण प्रत्येक पक्ष को पूर्ण रूप से समझ कर अपने भीतर उतारने के भाव को आत्मसात् करने हेतु साधनात्मक स्वरूप में योगेश्वर शक्ति युक्त चौसठ कला पूर्ण हिरण्यगर्भ दीक्षा धारण करने से सांसारिक मनुष्य कृष्ण की नीति, आदर्श एवं मर्यादा का चरम रूप पूर्णता से ग्रहण कर सकते है। इस दीक्षा के प्रभाव से व्यावहारिकता से परिपूर्ण दुष्टों के साथ दुष्टता का व्यवहार तथा सज्जनों के साथ श्रेष्ठता का व्यवहार, मित्र और शत्रु की पहचान किस नीति से किस प्रकार किया जाये ऐसी ही चेतनाओं से अपने जीवन को अभीभूत किया जा सकता है।
अतः परिवार के सभी सदस्यों में योगमय चेतना के विस्तार हेतु चन्द्रोदय शक्ति युक्त सोमवार 30 अगस्त को श्रीकृष्ण के अभ्युदय पर्व पर उक्त भावों का 3 बार उच्चारण कर सद्गुरूदेवजी के चित्र के सामने अपनी प्रार्थना व्यक्त करें।
‘योगेश्वर शक्ति युक्त चौसठ कला पूर्ण हिरण्यगर्भ दीक्षा’ इस हेतु अपना फोटो कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर भेजे। शुभ अमृत व लाभ का चौघडि़या मुहुर्त में पूर्ण चेतन्यता से दीक्षा प्रदान की जायेगी।
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