शिष्य को नित्य एक बार 24 घण्टे में गुरु का स्मरण, चिंतन, ध्यान व मंत्र जप अवश्य ही करना चाहिए, ऐसा ही शिष्य वास्तव में उच्चता प्राप्त कर पाता है।
शिष्य को चाहिए कि वह निरन्तर गुरु कार्य को प्रगतिशील बनाने और गुरु के कार्य में सहायक की भूमिका निभाने का प्रयास करे।
वास्तविक शिष्य वही हो सकता है, जो अपने जीवन के कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए गुरु सेवा, गुरु कार्य के निमित्त तन, मन, धन किसी ना किसी रूप में कार्य करता रहे।
शिष्य को सदा गुरुदेव से मिलने, उनसे बात करने और उनका सानिधय प्राप्त करते रहना चाहिए।
गुरु शिष्य का समर्पण देखता है, उसके भाव को ग्रहण करता है और उसकी श्रद्धा अनुसार उसके जीवन में सहायक बना रहता हैं।
गुरु शिष्य को कभी भी दण्डित नहीं करते, बल्कि उसके अपराधों और गलतियों को सदा दयालु भाव से क्षमा करते रहते हैं।
शिष्य को सदा अपने ही कर्मों का फ़ल भोगना पड़ता है, गुरु तो शिष्य के कर्म बंधान और कर्म दोष काट कर उसके जीवन को सरल, सुखद और समृद्ध बनाने का एकमात्र चिंतन करते हैं।
शिष्य-गुरु को विस्मृत कर सकता है, परन्तु गुरुदेव कभी भी अपने शिष्य को नहीं भूलते, वे निरंतर उसके जीवन को ऊधर्वशील बनाने का प्रयास करते रहते हैं।
शिष्य की दृष्टि संसार में और स्थूल होती है, इसलिए वह गुरु के वृहद स्वरूप को नहीं समझ पाता है, जिसके कारण उसका चित्त सदा भ्रमित सा बना रहता है।
एक शिष्य के लिए आवश्यक है कि वह गुरुदेव के वृहद स्वरूप का चिंतन करे, जिससे वह गुरुत्व की महिमा का रसपान करते हुए भव-सागर को सहजता से पार कर ले।
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