अर्थात् ‘श्री’ ही मूल रूप से लक्ष्मी है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में नाम के आगे ‘श्री’ लिखा जाता है, जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जो सभी तरह के ‘श्री’ शक्ति से युक्त हो।
ब्रह्मा, विष्णु, शिवात्मिका त्रिशक्ति स्वरूप में लक्ष्मी को ही महादेवी कहा गया है। ‘श्री सूक्त’ जिसे ‘लक्ष्मी सूक्त’ भी कहा जाता है, इसमें लक्ष्मी की श्री रूप में सोलह भावों में प्रार्थना की गई है, उस लक्ष्मी की प्रार्थना की गई है, जो वात्सल्यमयी है, धन-धान्य, संतान सुख देने वाली है, जो मन और वाणी के दीपक को प्रज्ज्वलित करती है, जिनके आने से दानशीलता प्राप्त होती है, जो वनस्पति और वृक्षों में स्थित है, जो कुबेर, इन्द्र और अग्नि आदि देवता को तेजस्विता प्रदान करने वाली है, जो जीवन में कर्म करने का ज्ञान कराती है, कर्म भाव के फलस्वरूप जीवन के प्रति सम्मोहन, आकर्षण शक्ति स्थित होती है, जिनकी कृपा से मन में शुद्ध संकल्प और वाणी में सत्यता आती है, जो शरीर में तरलता और पुष्टि प्रदान करने वाली हैं, उस श्री को जीवन में स्थायी रूप से आत्मसात करने के लिए साधनात्मक क्रियाओं का आश्रय लेना पड़ता है। इस सूक्त में धन के साथ शुद्ध संकल्प, शुद्ध विचार, शारीरिक पुष्टता, प्राकृतिक सौन्दर्य, ओज-तेज, आरोग्यता संतान सुख की कामना गई है। इसके विपरीत यदि जीवन में धन है लेकिन तृष्णायें यथावत हैं, मानसिक रूप से मलिनता है तो वहां लक्ष्मी श्री स्वरूप में चिर-स्थिर नहीं रहती। लक्ष्मी श्री स्वरूप में वहीं स्थायी रूप से रहती है, जहां लक्ष्मी की इन 9 शक्तियों की चेतना व्याप्त हो।
जिस व्यक्ति में लक्ष्मी की इन नौ कलाओं का विकास होता है, वहीं लक्ष्मी चिरकाल के लिये विराजमान होती है।
विभूति- दान रूपी कर्तव्य जहां विद्यमान होता है अर्थात दान, सेवा इत्यादि सुकर्म लक्ष्मी की विभूति नामक पीठिका है।
नम्रता- व्यक्ति में जितनी नम्रता होती है, उसे लक्ष्मी उतना ही श्रेष्ठ स्वरूप में निर्मित करती है।
कान्ति- जब विभूति और कान्ति दोनों कलायें साधक में पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं, तो वह तीसरी कला कान्ति का पात्र हो जाता है, उसके चेहरे पर तेज-ओज का समावेश हो जाता है।
तुष्टि- इन तीनों कलाओं की प्राप्ति होने पर तुष्टि नामक चतुर्थ कला का आगमन होता है, वाक् सिद्धि, कुशल व्यवहार, श्रेष्ठ व्यक्तित्व और सद्गुणों का विकास होता है।
कीर्ति- यह लक्ष्मी की श्रेष्ठतम कला है, जो शुद्ध-सात्विक मनोभाव का स्वरूप है। इससे साधक के मनोभाव में पवित्रता व शुद्धता आती है।
सन्नति- कीर्ति साधना से लक्ष्मी की छठी कला सन्नति मुग्ध होकर विराजमान होती है।
पुष्टि- इस कला द्वारा साधक के जीवन में पुष्टता आती है अर्थात् साधक शारारिक, मानसिक, आर्थिक व आध्यात्मिक रूप से पुष्ट होकर सन्तुष्टि अनुभव करता है।
उत्कृष्टि- इस कला से जीवन में जो भी क्षय दोष होता है अर्थात् हानि का योग होता है वह समाप्त हो जाता है और जीवन में केवल वृद्धि ही वृद्धि होती है।
ऋद्धि- सबसे सर्वोत्तम कला जो पीठाधिष्ठात्री है, सभी कलाओ से युक्त यह कला स्वतः ही समाविष्ट हो जाती है।
समुद्र मंथन से चौदह रत्न की उत्पत्ति हुई, जो इस प्रकार से हैं- सर्वप्रथम कालकूट विष, वारूणि (मदिरा) का आविर्भाव हुआ। फिर पारिजात पुष्प तदनन्तर कौस्तुभ मणि, अप्सरा और चन्द्रमा, कामधेनु प्रकट हुए, इसके बाद उच्चैःश्रवा घोड़ा फिर धन्वन्तरि का प्रादुर्भाव हुआ।
फिर पाञ्चजन्य शंख प्रकट हुआ। इसके बाद समुद्र मंथन से श्रेष्ठ रूप में ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष आविर्भाव हुआ। फिर क्षीर सागर से लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुये कमल पर विराजमान और हाथ में कमल लिये थीं। सबसे आखिरी में अमृत का प्रादुर्भाव हुआ।
समुद्र मंथन का मर्म- गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- जिस प्रकार सैकड़ों नदियों का जल अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में विलीन होकर भी समुद्र को विचलित नहीं करते और उसी में समाहित हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य को जीवन में सभी भोग प्राप्त करते हुये विकार उत्पन्न नहीं करने चाहिये। जो ऐसा कर पाता है, वही पुरुष पूर्णता को प्राप्त कर परम शान्ति का अनुभव कर सकता है।
इसी प्रकार मन रूपी समुद्र का मंथन आवश्यक है और मंथन करने के लिये परिश्रम। इतना परिश्रम जितना उस समय देवताओं और राक्षसों ने मंदराचल पर्वत उठाकर मंथन किया था। जब परिश्रम से मंथन होता है और उसके साथ बुद्धि और विचार शक्ति का प्रयोग किया जाता है, तो जीवन में रत्नों की उत्पत्ति होती है और तब साधक अपने जीवन में मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर होते हुए अष्टसिद्धि नवनिधि की चेतना से युक्त होता है।
इसके साथ ही मंथन और परिश्रम करते हुये बल और बुद्धि से जीवन में विषमता रूपी जो विष प्राप्त होता है। उस विष को अर्थात् विपरीत परिस्थितियों को धारण करते हुये भी जो निरंतर क्रियाशील रहता है, उसे ही अंत में पूर्णता रूपी लक्ष्मी व अमृत प्राप्त होते हैं।
जिनके भी जीवन में लक्ष्मी के साथ विभूति, नम्रता, कान्ति, तुष्टि, कीर्ति, सन्नति, पुष्टि, उत्कृष्टि व ऋद्धि की चेतनावान स्थितियां होती हैं, वे ही पूर्ण लक्ष्मीवान बन पाते हैं और उनका जीवन स्वयं के साथ-साथ परिवार और समाज के लिए भी उपयोगी हो पाता है। प्रत्येक साधक को अपने जीवन में लक्ष्मी के इन दिव्य स्वरूपों को पूर्णता से उतारने की क्रिया और जीवन रूपी समुद्र का बल-बुद्धि व कर्मशक्ति के मंथन द्वारा अमृतमय लक्ष्मी सद्गुरुदेव के सानिध्य में पूर्णता से प्राप्त होती है, क्योंकि गुरु ही वो पारस हैं जो सभी प्रकार के ज्ञान, चेतना का प्रतिपादन करते हैं। शिष्य की सुप्त पड़ी चेतना शक्ति को स्पर्श कर स्पंदन प्रदान करते हैं, जिससे साधक-शिष्य में जागृति का भाव आता है और वह इन सभी क्रियाओं से अपने जीवन की अलक्ष्मी, दूषितता, मलिनता आदि स्थितियों से निवृत्त होकर सर्वश्रेष्ठता की ओर बढ़ने लगता है।
शुभता धारण करने के तीन सिद्धांत जीवन में सभी शुभ स्थितियों व सर्वमंगलयता को धारण करने के लिए तीन सिद्धांत बताए गए हैं।
संकल्प- संकल्प शक्ति अर्थात् ऐसी मानसिक दृढ़ता कि हर तरह की सम-विषम स्थितियों में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए संकल्प भाव के साथ निरन्तर क्रियाशील रहे।
समय- समय का तात्पर्य है कि सृष्टि में विचरण करने वाले ग्रहों को, अपने जीवन की विषमताओं, दोषों और बाधाओं का पूर्णता से शमन और शोधन करते हुए जीवन की सभी स्थितियों को अपने अनुकूल बनाना।
स्थान- संकल्प और समय के पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण होता है। स्थान-स्थान की विशेषता, किसी भी शुभ स्थिति, चेतना, ज्ञान, ऊर्जा, शक्ति, जाप, साधना के लिए विशिष्ट चैतन्य स्थल का होना अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। जिससे कि साधक-साधिका अपनी कर्म शक्ति द्वारा किए तप की ऊर्जा और उस चैतन्य स्थान की चेतना अपने रोम-रोम में पूर्णता से आत्मसात करने में सफल हो सके। क्योंकि अन्य सामान्य स्थलों पर भूमि दोष, वातावरण में व्याप्त पैशाचिक शक्तियों के कारण तपः शक्ति क्षय होती है। अतः देवालय, पवित्र नदी अथवा श्रेष्ठ रूप में गुरु सानिध्यता की भाव-भूमि हो।
सद्गुरुदेव नारायण व मां भगवती के आशीर्वाद् से कामाक्षी त्रिशक्ति लक्ष्मी साधना महोत्सव कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर में 5-6-7 नवम्बर को सम्पूर्ण गुरु परिवार के सानिध्य में सम्पन्न होगा। इस महोत्सव में कामाक्षी त्रि-शक्ति लक्ष्मी साधना, प्रवचन, हवन, अंकन, पूजन, साधना, दीक्षा आदि की विशिष्ट साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न होंगी। गुरुधाम के चैतन्य, पावन, निर्मल भूमि पर ऐसी साधनात्मक क्रियायें सपरिवार सम्पन्न करने से निश्चित रूप से जीवन में सर्व सौभाग्य का जागरण होता है व जीवन सभी व्याधियों, अभावों से मुक्त होकर विष्णु नारायण लक्ष्मी की चेतना से आप्लावित होता है, जिससे जीवन की अनेक मनोकामनाओं की पूर्ति संभव हो पाती है व जीवन सर्व सुख-लाभ युक्त बनता है।
स्वाती नक्षत्र विघ्नहर्ता गणपति रिद्धि-सिद्धि लाभ स्वरूप में केवल वृषभ, सिंह, कन्या, तुला व कुंभ राशि वाले व्यक्ति के जीवन में यह दीपावली लक्ष्मी पर्व सामान्य लाभ का रहेगा। इनके द्वारा सामान्य लक्ष्मी पूजन करने से लाभ के चौघडि़या में वृद्धि होगी व शीघ्रता से सुकार्यो में पूर्णता प्राप्ति होगी।
इसके विपरीत मेष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, मकर व मीन राशि के जातक को आने वाला नववर्ष शारीरिक-मानसिक पीड़ा, शत्रु बाधा, धन हानि, अकारण भय-डर व क्लिष्ट बीमारी का कुयोग प्रभावोत्पक रहेगा। ऐसे कुयोग के निवारण के लिए साधक को विशेष रूप से अनुकूलता प्राप्ति के लिए पूर्ण चेतना भाव से तांत्रोक्त साधना सिद्धि, पूजा, दीक्षा की क्रिया सद्गुरु सानिध्य में दीपावली महोत्सव में अवश्य करनी चाहिए। क्योंकि वर्ष भर का श्रेष्ठतम महापर्व दीपावली लक्ष्मी आत्मसात का उत्सव है। जिससे समय रहते श्रेष्ठ अमृत काल में कुयोगों की गति को समाप्त किया जा सके।
06 नवम्बर प्रातः काल में कैलाश सिद्धाश्रम-जोधपुर में पहुँचना अनिवार्य है। रूप चर्तुदशी के दिन प्रातः बेला में स्नान, योगा प्राणायाम के बाद अपने इष्ट का पूजन प्रत्येक साधक को व्यक्तिगत रूप से गुरुदेव द्वारा सम्पन्न कराया जायेगा। जिससे कि चर्तुविघ्नहरण स्वरूप में आप युक्त हो सके। अल्पाहार ग्रहण करने के बाद गुरु सानिध्य में लक्ष्मीमय विष्णु स्वरूपा शालिग्राम पूजन, अभिषेक दुर्गा सप्तशती के चैतन्य श्लोकों के साथ दीक्षा प्रदान की जायेगी।
महालक्ष्मी दिवस कार्तिक अमावस्या युक्त महोत्सव पर गुरु पूजन, गणपति पूजन और निखिल स्तवन व श्री सूक्त लक्ष्मी मंत्रों से प्रत्येक साधक द्वारा हवन की क्रिया सम्पन्न की जायेगी। साथ ही त्रिपुर सुन्दरी स्वरूप भगवती शक्ति धन-सम्पदा वृद्धि महालक्ष्मी योग-भोग में पूर्णता प्रदाता कामाक्षी त्रि-शक्ति दीक्षा प्रदान की जायेगी।
इसके प्रभाव से कुग्रह योगों का निस्तारण हो सकेगा और जीवन श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो सकेगा।
जो साधक उक्त राशि के कुप्रभाव से ग्रसित हैं, वे अवश्य पंजीकरण करायें। इसी हेतु पंजीकृत साधको को ही तपोभूमि-कैलाश सिद्धाश्रम में विशेष रूप से आमंत्रित किया गया है।
दीपावली महापर्व वर्ष का श्रेष्ठतम महोत्सव व महापर्व है और इस उत्सव के माध्यम से अपने जीवन को सुस्थितियों की ओर अग्रसर करना चाहते हैं, केवल वे ही आयें साथ ही अपनी समस्याओं के समाधान व मार्गदर्शन हेतु सद्गुरुदेव जी से विस्तृत रूप में बात-चीत कर अपने भाव व्यक्त करें, जिससे गुरु परिवार का आपके प्रति पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो सके।
पूर्व में ही पंजीकरण आवश्यक है, क्योंकि प्रत्येक सामग्री को चैतन्य करना होता है। साथ ही कैलाश सिद्धाश्रम धाम में निखिल नारायण की दिव्यता से आलोकित साधना स्थल जो कि पूर्ण चैतन्य वहां सद्गुरुदेव जी द्वारा स्थापित सभी विग्रहों की पूजा व दर्शन कर सकें। इसीलिये पूर्व में पंजीकरण कराना अनिवार्य है। जिससे कि गुरुदेव के सान्निध्य में सद्गुरु निखिल की चैतन्य भूमि पर साधना, यज्ञ (हवन), मंत्र जाप की क्रिया सम्पन्न होगी। यह महालक्ष्मी दीपावली पर्व आपके जीवन में निश्चिन्त रूप से सहस्र लक्ष्मियों से युक्त हो सकेगा।
समय से पंजीकरण करायें जिससे कि आप ही से सम्बन्धित साधना सामग्री मंत्र सिद्ध चैतन्य की जा सकें।
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