गुरु को निहारना, उनके स्वरूप का चिंतन करना शिष्य का लक्षण होना चाहिए।
शिष्य की प्रत्येक सांस में, रोम-रोम में गुरु रहना चाहिये, उनके शरीर के कण-कण में गुरु व्याप्त होना चाहिये।
शिष्य को चकोर की तरह एकटक गुरु को देखते रहना चाहिए है।
शिष्य, जब भी गुरु का स्मरण करता है तो उसकी आँखों में अश्रुधार प्रवाहित होनी चाहिये।
शिष्य को गुरु में ही सभी देवताओं का दर्शन करना चाहिये।
शिष्य को प्रेम करने की कला आना चाहिये, बिना प्रेम योग, मंत्र, साधना, दर्शन, अध्यात्म निष्प्रयोजन है।
गुरु को देखते ही शिष्य को भाव-विहाल हो जाना चाहिये, नतमस्तक हो जाना चाहिये, यह शिष्य का लक्षण है।
शिष्य के समर्पण की तीव्रता नदी के प्रवाह से भी अधिक तीव्र होनी चाहिये।
शिष्य के लिये संसार के सारे संबंधा तुच्छ, बेमानी और व्यर्थ हैं।
अगर गुरु शिष्य को बिना अपराध किये भी डांटेंगे तब भी किंचित मात्र भी गुस्सा नहीं होना चाहिये क्योंकि वह डांट भी वर में परिवर्तन हो जाता है।
शिष्य के जीभ पर गुरु नाम की रट लग जानी चाहिये जिससे प्राण जाने पर भी नाम को वह नहीं छोड़े, गुरु के नाम में ऐसा विलक्षण माधुर्य है।
शिष्य की अवस्था गंभीर होनी चाहिये अर्थात् वह भोजन और स्त्री विषय में फिसलने वाला न हो।
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