वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र प्रचेता की संतान थे, उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था। बचपन में उन्हें एक दस्यु जाति का व्यक्ति चुरा ले गया था। अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिये वे लूट-पाट, डकैती करने लग गये और इस प्रकार बड़े होने तक वे एक कुख्यात डाकु रत्नाकर बन गये। वे जंगल में रहते और आने-जाने वाले राहगीरों को लूट लेते थे। कई बार वे लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नये शिकार की खोज में थे तब उनका सामना नारदजी से हुआ। रत्नाकर ने लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया। तब नारदजी ने उन्हें रोकते हुये पूछा कि ‘यह पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?’ इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर ने कहा कि यह सब अपने स्वजनों के भरण-पोषण के लिये कर रहा हूं। तब नारद मुनि बोले ‘क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतान में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे इन पापों का भागीदार बनने को तैयार है?’
इस पर रत्नाकर ने कहा- ‘हाँ, वो क्यों साथ नहीं होंगे, मैं जो यह सब करता हूँ, उनके सुख के लिये ही तो करता हूँ। नारदजी बोले- ‘ठीक है, तो जो तुम्हारे साथ हैं उन्ही को निर्णायक बनाते हैं। जाओ, अपनी पत्नी से, अपने पुत्र से, अपने पिता से, अपने निकट संबंधियों से पूछ कर आओ, जो तुम कर रहे हो, क्या वो पाप नहीं है और क्या वे सब इस पाप में तुम्हारे साथ हैं? इस पाप के भागीदार हैं? रत्नाकर ने नारद मुनि को पेड़ से बांधा और स्वयं अपने परिवार वालों से इस प्रश्न का उत्तर जानने को चला गया। वह सीधा अपनी पत्नी के पास गया और पूछा ‘मैं जो यह सब कार्य करता हूँ, क्या यह पाप है? क्या तुम इस पाप में मेरी भागीदार हो?’
पत्नी कहती है- ‘नहीं स्वामी, मैंने आपके सुख में, दुःख में साथ देने की कसम खाई है, आपके पाप में भागीदार बनने की नहीं।’ यह सुन कर रत्नाकर स्तब्ध रह गया। उसने यही प्रश्न अपने अंधे पिता के समक्ष दोहराया ‘पिताजी, यह मैं जो भी कार्य करता हूँ, क्या वह पाप है? क्या आप इस पाप में मेरे भागीदार है? पिताजी बोले ‘नहीं पुत्र, यह तो तेरी कमाई है, इसे मैं कैसे बाँट सकता हूँ।’
यह सब सुनते ही मानो रत्नाकर पर बिजली टूट पड़ी। वह बेहद दुःखी हो गया और धीरे-धीरे चलते हुये वापस देव ऋषि नारद के पास पहुँचा। वह देव ऋषि के चरणों में गिर गया और बोला मुझे क्षमा करें, मैं अकेला हो गया हूँ। इस पर नारद जी बोले ‘नहीं रत्नाकर, तुम्हीं अपने मित्र और तुम्हीं अपने शत्रु हो, तुम्हारे पुराने संसार की रचना भी तुम्हीं ने की थी, तुम्हारे नये संसार की रचना भी तुम्हीं करोगे। इसलिये उठो और अपने पुरुषार्थ से अपना भविष्य लिखो।’ इस घटना से रत्नाकर का हृदय परिवर्तन हो गया। उसने इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया। और फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हें महर्षि पद प्राप्त हुआ।
पाप कर्मों में लिप्त रत्नाकर का हृदय परिवर्तन होने पर नारद जी ने उन्हें राम नाम जपने की सलाह दी थी। तब रत्नाकर समाधि में बैठ कर राम नाम जप करते करते भूलवश मरा-मरा जप करने लगे। इसी कारण उनका देह दुर्बल होता चला गया। उनके शरीर पर चींटियां रेंगने लगी। यह सब उनके पूर्व समय के कर्मों का फल था। घोर तपस्या के बाद जब उन्होंने ब्रह्माजी को प्रसन्न किया तब स्वयं ब्रह्माजी ने वाल्मीकि को रामायण महाकाव्य लिखने की प्रेरणा दी। वाल्मीकि इतने ध्यानमग्न हो कर तप कर रहे थे कि दीमकों ने इनके ऊपर अपनी बांबी बना ली थी, तपस्या समाप्त होने पर दीमक की बांबी जिसे ‘वाल्मिीकि’ भी कहते हैं, तोड़कर वे जब बाहर निकले तो लोग इन्हें आदरपूर्वक वाल्मीकि नाम से जानने लगे।
श्री राम द्वारा माँ सीता को त्याग देने पर महर्षि वाल्मीकि ने ही उन्हें अपने आश्रम में स्थान दे कर उनकी रक्षा की थी। भगवान राम के तेजस्वी पुत्रों लव-कुश महर्षि वाल्मीकि के श्रेष्ठ शिष्य बनें, महर्षि वाल्मीकि खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित थे। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार त्रेता युग में जन्मे महर्षि वाल्मीकि ने ही कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास जी के रूप में जन्म लिया और राम चरितमानस की रचना की।
उपनिषदों से ली गई यह कथा हमें बताती है कि मनुष्य असीम संभावनाओं का स्वामी है, जहाँ एक तरफ वह अपने पुरुषार्थ से राजा बन सकता है तो वहीं अपने आलस्य से रंक भी। वह अपने अविवेक से अपना नाश कर सकता है तो अपने विवेक से स्वयं का श्रेष्ठ निर्माण भी कर सकता है।। अर्थात हम सभी अपने आप में महाशक्तिशाली हैं, पर हममें से ज्यादातर लोग अपने सम्पूर्ण जीवन काल में अपनी असीम शक्तियों का छोटा सा हिस्सा भी प्रयोग नहीं कर पाते। जीवन में किये गये सत्कर्म और पापकर्म का फल प्राणी को स्वयं ही भुगतना पड़ता है। जन्म और लालन-पालन कहाँ होगा यह मनुष्य के स्वयं के तो हाथ में नहीं है, परन्तु ज्ञानदर्शन हो जाने पर पाप कर्म त्याग कर धर्म के मार्ग पर आकर यदि रत्नाकर डाकू महर्षि वाल्मीकि बन सकते हैं तो फिर हम भी क्यों नहीं बुरे मार्ग का त्याग कर एक अच्छा इंसान बन सकते! पश्चाताप् का मार्ग कठिन होता है परन्तु एक बार पाप नष्ट हो जाने पर जीवात्मा पर परमात्मा की विशेष कृपा दृष्टि हो जाती है।
मनुष्य की यदि इच्छा शक्ति उसके साथ हो तो वह कोई भी कार्य संपन्न कर सकता है। इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प मनुष्य को रंक से राजा बना देती है और एक अज्ञानी को महा ज्ञानी। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी की यह जीवनकथा भी हमें दृढ़ संकल्प और मजबूत इच्छा शक्ति अर्जित करने की ओर अग्रसर करती है।
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