शिष्य को अंधकारमय चित्त से मोह का परदा हटाने का प्रयास व ज्ञान-चक्षुओं को जागृत करने के लिये निरन्तर चिंतन-मनन करते रहना चाहिये।
शिष्य को नित्य पूर्ण श्रद्धा से गुरु चरण या चित्र चरण स्पर्श करने के लिये तत्पर रहना चाहिये और जब शारीरिक रूप से चरण स्पर्श करने का अवसर मिलें, तब उस आनन्द, शीतलता, पवित्रता, चैतन्यता का अनुभव कर कृतज्ञ होना चाहिये।
शिष्य को साधना, सेवा करके हमेशा गुरु की कृपा-दृष्टि की याचना करते रहना चाहिये, जिससे गुरु-शिष्य को ऐसी दीक्षायें प्रदान कर सके कि वह जीवन में धन्यता व पूर्णता अनुभव कर सके।
शिष्य के लिये गुरु मंत्र व गुरु नाम से बड़ा और कोई मंत्र नहीं है।
शिष्य के लिये गुरु मुख से निकली हुई आज्ञा ही मूल मंत्र है, जिसका पालन करना ही साधना की पूर्णता और श्रेष्ठता है।
शिष्य के लिये ‘निखिल’ शब्द से ऊँचा कोई मंत्र नहीं है, गुरु के दर्शन से ज्यादा श्रेष्ठ कोई देवालय नहीं है, गुरु के शरीर से बड़ा कोई ब्रह्माण्ड नहीं है।
शिष्य को चाहिये कि वह गुरु मं= को पूर्णता के साथ शरीर के रोम-रोम में बसा लें।
शिष्य को गुरु चरणों में पूर्णरूप से समर्पित होते हुये ‘गुरु’ शब्द का उच्चारण करते हुये, गुरु में लीन हो जाना चाहिये।
शिष्य को निरन्तर गुरु से यह प्रार्थना करनी चाहिये कि वह उसके हृदय में पूर्ण रूप से स्थापित हो और उनको दिव्य नेत्र प्रदान करें, जिससे शिष्य भली प्रकार से गुरु को पहचान सके।
शिष्य को समपर्ण व पूर्णता सिर्फ गुरु ही दे सकता है,इसलिये शिष्य को प्रार्थना करते रहना चाहिये।
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