जब अंधेरी घनी काली रात हो, जब घुप्प अंधियारा हो, जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा हो, तो तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है, विचलित होने या चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।
तुम्हें इधर-उधर बदहवास की तरह भटकने की भी जरूरत नहीं है, ललाट पर लकीरें डालने की भी जरूरत नहीं है।
जब चारों तरफ़ संकट के बादल उमड़-घुमड़ रहे हों और दुःख का तफ़ूान हिचकोलें ले रहा हो, तब भी परेशान और व्यथित होने की जरूरत नहीं है।
और जब परिवार पैरों में बेंडि़यां डाल दे, हाथों में हथकडि़यां जकड़ दे, आंखों पर काली पट्टी बांधा दे, तब भी विचलित होने की जरूरत नहीं है।
यदि तुम पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़े और सांस घुटने लगे, हृदय फ़ड़फ़ड़ाने लगे, और अन्दर घुटन जरूरत से ज्यादा बढ़ जाय, तब भी चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।
जरूरत इतनी ही है कि तुम मुझे पुकार लो, मैं बिल्कुल पास में खड़ा मिलूंगा, अपना हाथ मेरे हाथ में सौंप कर निश्चिन्त हो जाओ बाकी सब कुछ मैं अपने आप संभाल लूंगा।
तुम्हारे पास देवताओं से भी दुर्लभ कौस्तुभ मणि विद्यमान है, पर तुम उसके प्रकाश को, उसकी द्युति को उसके मूल्य को पहचान नहीं पा रहे हो।
जब श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को चीख-चीख कर कह रहे थे कि मैं दिव्यात्मा हूं, मैं योगीश्वर हूं,
मैं षोड़श कला सम्पन्न तेजस्वी युग-पुरूष हूं, तो यह उनका अहंकार नहीं था, यह तो अज्ञानी, मूढ़ नासमझ अर्जुन को वास्तविकता समझाने का भाव था।
यही भाव मैं तुम्हारे सामने रख रहा हूं, उस समय समाज ने श्रीकृष्ण की आलोचनायें ही की, बुद्ध को गालियां ही दी, ईसा को शूली पर चढ़ा दिया, समाज जीवित को पहचानता ही नहीं है।
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