देवर्षि नारद धन्य हैं, क्योंकि ये भगवान् की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं।
भगवद् नारायण भक्ति के प्रधान आचार्य देवर्षि नारद का उदात्त चरित्र संसार के लिये आदर्श स्वरूप है। ये भक्ति के सागर हैं, प्रेम के भण्डार हैं, दया के निधान हैं, ये भागवत् धर्म के आचार्य तथा भक्ति मार्ग के प्रवर्तक व स्वयं परम भक्त हैं।
देवर्षि नारद पूर्व में गन्धर्व थे, एक बार ब्रह्माजी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवान की स्तुति, गुणगान करने के लिये आये। नारद भी अपनी पत्नियों के साथ उस सभा में गये। भगवान् के गुणगान के समय बात करते हुये देख ब्रह्माजी ने इन्हें शूद्र होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से नारद का जन्म एक शूद्र कुल में हुआ। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगी। एक दिन इनके गाँव में कुछ महात्मा आये और कुछ दिनों के लिये वहीं ठहर गये। नारद बचपन से ही अत्यन्त सुशील थे। वे खेल-कूद छोड़ कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी से छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। सन्त जब सभा करते तो ये बड़ी एकाग्रता से सुना करते थे। सन्त लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये देते थे।
सन्त सेवा और ज्ञान, उपदेश अमृत फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गये, जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवान का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया। एक दिन साँप के काटने से इनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर, ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन जब नारद वन में बैठकर भगवान् के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान् प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान् का दुबारा दर्शन करने के लिये नारद के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी।
वे बार-बार अपने मन को समेट कर भगवान् के ध्यान का प्रयास करने लगे, किंतु सफल नहीं हुये। उसी समय आकाशवाणी हुई- ‘हे पुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुनः प्राप्त करोगे।’
समय आने पर नारद का पंच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुये। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और महत्व के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवान नारायण का गुणगान करते हुये निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है।
अब भी ये प्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सभी के अकारण प्रेमी और संसार के सहज हितकारी हैं।
देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव के गुरु भी रहें हैं। श्रीमद् भागवत तथा वाल्मीकि रामायण जैसे दुर्लभ ग्रन्थ देवर्षि नारद की सहायता व कृपा से ही हमें प्राप्त हो सके हैं।
ऐसे देव तुल्य ऋषि के प्रति हमें भ्रमित नहीं होना चाहिये। उनके प्रति श्रद्धावान होकर कृतज्ञता व्यक्त करना हिन्दू जनमानस का धार्मिक कर्तव्य है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,