सद्गुरु परम पावन प्राप्तव्य तत्व है, उन्हें प्राप्त करने के लिये शिष्य को पावनतम एवं पुण्यवान होना आवश्यक है।
शिष्य को अपने मन को पावन करने के लिये निरन्तर गुरु की सेवा करते रहना चाहिये, यही निष्काम कर्म कहलाता है।
शिष्य व साधक को तभी दीक्षा प्राप्त करने के लिये अधिकार होता है जब उनका मन त्याग, शांत, क्रोध और अहंकार से रहित तथा भेद ज्ञान से शून्य हो जाता है।
शिष्य को सर्वप्रथम निश्छल सेवा के द्वारा गुरु को ही प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये क्योंकि बिना गुरु-कृपा के बंधनों से मन का उपराम होना कभी संभव है ही नहीं।
शिष्य को गुरु व मंत्र का त्याग कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि वह मृत्यु के समान दुःखों में घिर जाता है और घोर नरक में पड़ जाता है।
गुरुत्व की प्राप्ति शिष्य के जीवन का सबसे महान कार्य होता है, अतः शिष्य या साधक को प्रयत्न करके सद्गुरु की खोज कर, उनकी शरण में जाना ही चाहिये।
शिष्य को नित्य गुरु गीता व निखिल स्तवन का पाठ, मनन, चिन्तन अवश्य करना चाहिये इससे चित्त शुद्धि होकर गुरु कृपा प्राप्त होती है।
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