क्या कारण है, ईश्वर सुनता क्यों नहीं, जरा इस पर मंथन करो, ये विचार करने का विषय है, सोचने का, समझने का विषय है। पूरे विश्व में परमात्मा की पूजा भिन्न-भिन्न रूप में सम्पन्न होती है, और भारतवर्ष में सर्वाधिक पूजा, उपासना होती है, यह भी मानने योग्य है कि यह धरा धार्मिक लोगो की तपस्या और कर्म शक्ति के कारण ही सुरक्षित है, परन्तु विषय यह है कि इतनी सारी क्रियाओं के बाद भी हमारे जीवन की आपदायें कम नहीं होती, प्रकृति का प्रकोप भी समय-समय पर अपना विकराल रूप जगत को दिखा चुका है। जब प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाती है, तो किसी की नहीं चलती है, सब कुछ धराशायी हो जाता है, आपने नेपाल और उत्तराखण्ड में प्रकृति के विकराल स्वरूप को देखा है, जाना है।
प्रकृति के रौद्र रूप में कहीं ना कहीं नाराजगी, रूष्टता निश्चित झलकती है, बात केवल अनुभव करने की और समझने की है, वह प्रकृति जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण करती है, जो वात्सल्यमय है, जो करूणा रूप है, वह आखिर क्यों रौद्री बन गयी, विध्वंसक हो गयी, निश्चय ही कहीं पर मानव से चूक हुयी है, कोई भूल हुयी है और भूल भी बड़ी हुयी है। माँ-बाप जब अपने संतान की देख-भाल, पालन-पोषण करते हैं, तो उनके मन में आशा का दीप जलता है, कि यह मेरी संतान युवा होकर हमारे वृद्धावस्था में सहारा बनेगी, हमारी लाठी का सहारा होगा, उनके मन में कहीं पर भी यह विचार नहीं होता कि यह मेरी संतान युवा होकर मेरी ही लाठी तोड़ेगी, कम से कम उन्हें अपनी संतान से इतनी आंकाक्षा तो होती ही है कि यह मुझे सुख नहीं दे पाया तो कम से कम दुख ना ही देगा। प्रकृति माँ भी यही आशा हमसे रखती है, और उसका अधिकार भी है कि हमसे वह ऐसी आशा रख सके, आखिर में संसार की प्रत्येक वस्तु जो हमे प्राप्त होती है, वह उसी की दी हुयी तो है, और जीवन जीने के लिये, सांस लेने की जो परम आवश्यकता है, ऑक्सीजन की पूर्ति भी तो वही प्रकृति माँ ही करती है।
और जब हम उसके ही अस्तित्व का ध्यान नहीं रखेंगे तो विनाशता का प्रलय तो आयेगा ही। इससे बचने का एक ही उपाय है, कि हम प्रकृति का सहयोग करें, उसकी देख-भाल की पूरी व्यवस्था करें, तब ही मानव जीवन आने वाले समय में सरल और समृद्धि होगा, अन्यथा विकरालता ग्रहण करने के लिये तैयार रहें। प्रत्येक धर्म के उपासक का कर्तव्य है कि वे प्रकृति की देख-भाल में सहयोग करें, प्रकृति के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं होना चाहिये। प्रकृति की रक्षा आपकी उपासना बन जाये, ये सरल माध्यम है, ईश्वर रूपी प्रकृति का अनुग्रह प्राप्त करने का, और अनुग्रह प्राप्त होना, मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
ईश्वर अनुग्रही है, इसमें कोई दो राय नहीं, परन्तु ईश्वर का अनुग्रह हर किसी को मिले इस मत में मतभेद है, एक तो उसका अनुग्रह है ही, कि उसने मानव जीवन में सब कुछ दिया, आप सही सलामत, हष्ट-पुष्ट हो, स्वस्थ हो, दूसरा अनुग्रह जो प्राप्त होता है, ईश्वर उपासना से, कर्म शक्ति से उसे प्राप्त करने के लिये आपको संघर्ष करना पड़ता है। और यह अनुग्रह भी आपके जीवन के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना की पहले था, बुद्धिमान लोग कहेंगे, ईश्वर चतुर है, पहला अनुग्रह तो कर दिया, दूसरे वाले में उसने हाथ खींच लिया, ईश्वर होशियार मालूम पड़ता है।
ईश्वर ने कुछ भी अपने पास नहीं रखा, पूरी स्वतंत्रता दे रखी, जो इच्छा हो करो, कर्म की पूरी स्वतंत्रता है, करने वाला जाने उसे कौन सा पौधा लगाना है, मीठे वृक्ष का बीज रोपण करेगा तो स्वादिष्ट अमृत के समान फल मिलेंगे, बबूल के पेड़ लगायेगा, तो कांटे ही कांटे, कड़वाहट ही जीवन में घुलेगी। इसलिये मानव स्वतंत्र है, उसकी जैसी इच्छा वृक्ष लगाये। ईश्वर का इसमें कोई रोल नहीं है, सारे रोल आपके कर्म के हैं। यह युग कर्म प्रधान है, यह युग ही नहीं प्रत्येक युग, पूरी सृष्टि, पूरा जगत कर्म प्रधानता से ओत-प्रोत होकर निरन्तर गतिशील है, कभी देखा है कि सूर्य उदय ना हुआ हो, वह प्रतिदिन उदित होता ही है, भले ही धुंध के कारण कुछ ना दिखें, लेकिन सूर्य का उदित होना निश्चित है। क्योंकि यह सम्पूर्ण सृष्टि सतत् रूप से गतिशील है, गतिशील होना ही जीवन है।
अनुग्रह प्राप्त करने के लिये झुकना पड़ता है, झुकना भी ऐसे नहीं, पूर्ण समर्पण के साथ, आत्मीय भाव के साथ, लेकिन आत्मा का तो अता-पता ही नहीं, कभी आत्मा से सम्पर्क ही नहीं हुआ तो, झुके कैसे? बड़ा विचित्र संकट है, आत्मा तो सबके पास है लेकिन आत्मिक भाव वाले कितने हैं, ऊंगलियों पर गिन सकते हैं, कॉपी-कलम की जरूरत नहीं पड़ेगी, इनकी संख्या इतनी होती है, कि ऊंगलियो से गिन सकते हैं। बहुत ही कम लोग होते हैं, जो आत्मिक रूप से ईश्वर को पुकार पाते है- युधिष्ठिर कौरवों के साथ जुये में अपना सर्वस्व हार गये थे, शकुनि ने छल से उनका समस्त वैभव जीत लिया था। अपने चारों भाईयों, स्वयं को और द्रौपदी को भी वे बारी-बारी से हार गये।
क्योंकि जुआरियों की ऐसी मनोदशा होती है, कि उन्हें लगता है, कि अगली चाल में जीत कर सब बराबर कर देंगे, और यही करते-करते वे अपनी दुर्दशा स्वयं कर लेते हैं, युधिष्ठर के साथ भी यही हुआ और आज के समय में भी अधिकांश लोगो के साथ यही हो रहा है, वे सोचते हैं कि अभी एक साल और गुजार देते हैं, अगले वर्ष से, कुछ समय बाद से, फलां काम हो जाये तब ईश्वर का ध्यान, पूजा, साधना प्रारम्भ करेंगे। ऐसे करते-करते वे सारा जीवन गुजार देते हैं, जिस परिवार के लिये वे सारे जतन करते हैं, वह परिवार उनके काम आयेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं, और अन्त में यह जीवन जुआ बनकर रह जाता है, मोह-माया रूपी शकुनी छल से जीत जाता है और आप यह जीवन जो प्राप्त हुआ था, अमृत रूपी सद्-चेतना प्राप्त करने के लिये, वह सब निकल जाता है, कुछ भी पास नहीं बचता। युधिष्ठर प्रत्येक दांव हारते गये, अन्त में वे द्रौपदी भी हार गये, और दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन से कहा- द्रौपदी को भरी सभा में ले आओ। दुःशासन द्रौपदी के केश पकड़ कर जबरदस्ती सभा में ले आया। उस समय द्रौपदी रजस्वला थी, उसने मात्र एक ही वस्त्र पहन रखा था।
दुर्योधन ने अपनी जाघं दिखाते हुये कहा- दुःशासन! इस कौरवों की दासी के वस्त्र उतार कर मेरी जांघ पर बैठा दो। भरी राजसभा में बड़े-बड़े महारथी थे, एक से बढ़कर एक योद्धाओं से पूरी सभा भरी थी, अनेक शूरवीर, वयोवृद्ध विद्वान थे, ऐसे लोगों के बीच पाण्डवों की महारानी, जो कुछ सप्ताह पूर्व चक्रवती सम्राट के साथ साम्राज्ञी रूप में भूमण्डल के समस्त नरेशों के द्वारा वन्दित हुयी थी और रजस्वला होने की स्थिति में घसीट कर लायी गयी और उसे अपमानित करने का आदेश दिया जा रहा था। एक अबला नारी और उसकी एकमात्र साड़ी को दुःशासन अपने मजबूत भुजाओं से पूरी जोर लगाकर खीच रहा था, वह नारी अपने सम्मान के लिये अपनी पूरी कोशिश करती है, दोनों हाथों से अपनी साड़ी को दृढ़ता के साथ पकड़ती है, अपनी क्षमता भर पूरी चेष्टा करती है।
सभी के सभी योद्धा मौन हैं, पाण्डवों ने शर्म से सर झुका लिया, भीष्म, द्रोण आदि किसी ने भी उस नारी की मदद नहीं की। अन्त में जब द्रौपदी को समझ आया कि मुझसे कुछ ना होगा, मैं अपनी स्वयं की रक्षा मे समर्थ नहीं हूं, उसने छोड़ दी अपनी साड़ी, दोनों हाथ ऊपर कर आंसू की अथाह में डूबी द्रौपदी कातर स्वर में कहने लगी- हे कृष्ण! हे द्वारकानाथ! हे देव! हे जगन्नाथ! इन दुष्ट कौरवों के सागर में मैं डूब रही हूं, दयामय! मेरा उद्धार करो।
श्री कृष्ण उसी क्षण आ गये, जैसे ही द्रौपदी ने अपनी चेष्टायें बंद की और छोड़ दिया भगवान पर कि अब तू ही बचा मुझे, मुझसे ना होगी अपनी रक्षा, भक्त की आत्म पुकार सुनकर भगवान दौड़े चले आये। आत्म पुकार की अनदेखी भगवान कर भी नहीं पाता, हमारे भीतर भी ऐसी आत्म पुकार जब जगेगी, तो भगवान रूक ना सकेगा, उसे आना ही होगा। अपनी अन्तिम कोशिश कर लो, लेकिन अन्त की जो पुकार हो वह आत्मिक होनी चाहिये। अन्तः करण की आवाज होनी चाहिये। लेकिन ऐसा भी संभवतः देखने को नहीं मिलता, जब आदमी को बहुत अधिक तकलीफ होती है, तो उसका सारा ध्यान तकलीफ में रहता है, ना वह समाधान की ओर बढ़ता है, ना भगवान की ओर और जाता भी है भगवान के पास तो बड़ी चतुराई के साथ।
जबकि जाना है, कातर स्वर में प्रार्थना करने, पर होता क्या है, 2 किलो मिठाई भगवान को चढ़ा दो भगवान खुश हो जायेंगे, और मनोकामना पूरी हो जायेगी, जाना ही है तो जाओं अपने हृदय के कोने-कोने में भावों की, श्रद्धा की, आत्मीय लगाव का भाव लेकर, तो ही भगवान से कुछ प्राप्त कर पाओगे। भगवान ने तो दोनो हाथ उठा रखें, सब कुछ लुटाने को, लूटने वाले को लूटने का तरीका मालूम होना चाहिये, इतनी सी केवल बात है, ईश्वर तक अपनी बात पहुंचाने की, आपकी पुकार ईश्वर तक, परमात्मा तक, नारायण तक पहुंच जायेगी, एक बार अपने हृदय के द्वार खोलकर देखो, एक बार साहस करके देखो द्रौपदी की तरह, छोड़ दो ईश्वर रूपी नारायण पर सब कुछ पार लगाने की जिम्मेवारी उनकी है। एक और महत्वपूर्ण बात समझ लो, जिसे लेकर बहुत ही भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
द्रौपदी का जब चीर हरण हो रहा था, उन्हें अपमानित करने का प्रयास कौरव कर रहे थे, उस समय द्रौपदी रजस्वला थी और जब उस रजस्वला स्त्री ने कृष्ण को आत्मिक रूप से पुकारा तो दस हाथियों का बल रखने वाला दुःशासन पसीने से लथ-पथ, हांफ रहा था, साड़ी के ओर-छोर का कोई अन्त नहीं हो रहा था, कौरवों की सभा में रंग-बिरंगे कपड़ों की ढे़र लग गयी थी, वह साड़ी अनन्त हो चुकी थी, स्वयं भगवान विष्णु ने वस्त्रवतार ले लिया था, और उन अनन्त देव का ओर-छोर कैसे पता चलेगा, जो स्वयं अनन्त है, उसके अन्त का पता कैसे होगा।
द्रौपदी कृष्णमय हो गयी थी, भगवान स्वयं अपने भक्त की रक्षा के लिये उसके अंग-अंग से लिपट गये थे, उस रजस्वला स्त्री के रोम-रोम में समा गये थे। अपने भक्त, अपने संतान की रक्षा के लिये कृष्ण ने क्षणिक भी देर नहीं की, उन्होंने सोचा ही नहीं कि यह स्त्री रजस्वला है। क्योंकि भगवान के लिये यह कोई विषय ही नहीं है, परमात्मा की ओर से ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भक्त की जहां से भी, जिस भी स्थिति में आत्म पुकार होगी, ईश्वर की उपस्थिति वहां निश्चित ही होगी। भगवान को पुकारने के लिये शरीर नहीं चित्त शुद्ध होना, प्रसाद नहीं भाव अच्छे होने चाहिये।
यह प्रमाण आपके सामने द्रौपदी के रूप में है, लेकिन यह आजमाने का विषय नहीं है, क्योंकि यदि आप भक्त हैं, तो आपका कर्तव्य है, कि आप शरीर, मन, भाव की शुद्धि के साथ ईश्वर के सामने जायें, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर, भगवान की ओर से अपनी संतान के लिये हर तरह छूट है, पर शर्त वही पुरानी है, कि पुकार हृदय के सागर से निकलनी चाहिये।
साधना जगत की सारी क्रियायें भावनाओं पर आधारित है, सभी देवी-देवता भावनाओ के अनुरुप फल प्रदान करते हैं, जैसी जिसकी भावना होती है, उसी के अनुरूप वह फल प्राप्त करता है, कृष्ण को किसी ने भगवान के रूप में देखा, पूजा, तो किसी ने उन्हें द्वारकाधीश के रूप में जाना, गोकुल में उन्हें नटखट कान्हा कहा गया तो यशोदा उन्हें केवल अपना लाला समझती रहीं, जैसी जिसकी भावना रही उसी रूप में उनको कृष्ण दिखे।
कहने का तात्पर्य यही है कि जो भी भावना, श्रद्धा, भाव के साथ आप उपासना, स्तुति करेंगे, उसी रूप में आप फल प्राप्त करेंगे। ईश्वर के पास संदेह लेकर जाओगे, तो संदेहास्पद स्थिति में ही वापस आ जाओगे, आशा, विश्वास, समर्पण के साथ जाओगे तो आते समय झोली भरी होगी। जीवन में सम-विषम स्थितियां बनती बिगड़ती रहती हैं, ईश्वर भोग भी कराता है, और भोगाता भी है, भोगता है कि यह तू समझ ले, कर्म का फल मिलेगा, जो भी कर्म होगा, उसे भोगना होगा, और इसलिये भोगता है कि आगे से सम्भल जाओ, आगे ध्यान रहे, कर्म करते समय चिंतन बना रहे, कि कौन सा कर्म करना, कौन सा नही। और भगवान ही सम्भालता है, संबलता भी वही प्रदान करता है। भोगने की क्षमता भी वही देता है। कर्म फल को काटता भी वही है, जो कुछ होता है, वह निर्धारित करता है, और अपनी प्रत्येक प्रक्रिया में भक्त का कल्याण करता है, शिष्य का कल्याण करता है।
इसलिये जब भी कभी कर्म फल भोगने का समय आये तो घबराना नहीं, धैर्य, संयम बनायें रखना, अपनी श्रद्धा, अपना आश्रय डांवा-डोल मत होने देना, क्योंकि यदि भंवर में उसने उतारा है, तो पार भी वही करेगा। लेकिन भंवर में पहुंचकर पतवार मत छोड़ देना, नहीं तो तुम तो डूबोगे ही, तुम्हारे साथ और भी बहुत कुछ डूब जायेगा। जीवन में सम भाव बना रहना अत्यन्त आवश्यक है, कुछ भी हो जाये, इष्ट पर संदेह नहीं होना चाहिये, संदेह की स्थिति बड़ी भयावह होती है, संदेह से ग्रसित व्यक्ति ना इधर का होता है, ना उधर का।
बहुत ही सौभाग्यशाली होते हैं, वे साधक, जो भगवान की भक्ति में पूरी तरह रम जाते हैं, अपने रोम-रोम में भगवान को बसा लेते हैं। जीवन की प्रत्येक क्रिया को भगवान का अनुग्रह समझ, प्रसाद समझ पूरी श्रद्धा के साथ ग्रहण करते हैं। ऐसे ही साधक, भक्त अपने जीवन में अद्वितीय उपलब्धि प्राप्त करने में सफल होते हैं। जीवन को सफल बना पाते हैं, और जीवन सफल केवल इसलिये नहीं होता है, कि किसी व्यक्ति के पास अपार धन हो, बंगला, गाड़ी हो, सफलता का सूचक यह नहीं हो सकता, सफल जीवन तो वह है, जहां शांति, प्रेम, संतुष्टि और इष्ट के प्रति, अध्यात्म के प्रति लगाव हो आत्मिक शक्ति हो, साधना की शक्ति हो, परिवार में सम्मान हो, आपस में आत्मीय लगाव हो।
इसी को सफल जीवन कहा गया है, सफलता का यही सूत्र है, इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। हमें इच्छाओं की नहीं, आवश्यकताओं की पूर्ति की कामना करनी चाहिये। यह ही सबसे उपयुक्त कामना है। महाशिवरात्रि पर्व जो समस्त गृहस्थ सांसारिक व्यक्तियों के लिये महापर्व है, इसी दिवस पर महोदव ने माता गौरी के साथ परिणयमय जीवन का प्रारम्भ किया था और गणेश, कार्तिकेय, रिद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ परिवारमय स्थितियों से युक्त हुये।
उन भगवान सदाशिव और माता गौरी की उपासना, अभिषेक सम्पन्न कर आप सांसारिक जीवन की मनोकामनायें पूर्ण कर सकें और अपने जीवन में सदा प्रसन्नता, शांति, प्रेम और संतुष्टि से युक्त होने की साधनात्मक क्रियायें कर जीवन का चहुंमुखी विकास करने में सक्षम बनें। इस महाशिवरात्रि पर्व पर अपने इष्ट से आत्मीय जुड़ाव स्थापित करने में सफल हो साथ ही जीवन की काल रूपी स्थितियों का शमन और कौरव रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की चेतना से आप्लावित हो ऐसा ही आपका यह महाशिवरात्रि पर्व बनें। आपका जीवन शिव-गौरीमय निर्मित हो—–शुभाशीर्वाद्—!!
सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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