समाजिक जीवन में राग के कारण लोभ एवं काम की तथा द्वेष के कारण क्रोध एवं वैर की वृत्तियों का संचार होता है। क्रोध के कारण संघर्ष एवं कलह का वातावरण बनता है। क्रोध में अहंकार एक उर्वरक का काम करता है। इस दृष्टि से क्रोध एवं अहंकार एक-दूसरे के पूरक हैं। अहंकार से क्रोध उपजता है तथा क्रोध का अहंकार के कारण विकास होता है। क्रोधी मनुष्य तप्त लौहपिण्ड के समान अन्दर-ही-अन्दर दहकता एवं जलता रहता है। उसकी मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है और विवेकपूर्ण कार्य करने की स्थिति समाप्त हो जाती है। क्रोध के कारण कोई व्यक्ति दूसरे का उतना अहित नहीं कर पाता, जितना अहित वह स्वयं अपना कर लेता है।
अहंकार से प्रेरित होकर व्यक्ति अपने को सब कुछ समझने लगता है। वह यह समझता है कि उसके पास इतनी शक्ति है कि वह दूसरों को नष्ट कर सकता है। उसमें अपने-आपको बड़ा मानने तथा दूसरों को अपने से छोटा समझने की चेतना विकसित होती है। वह सोचता है कि दूसरे व्यक्तियों का अस्तित्व और विकास उसकी इच्छा पर निर्भर है। वह स्वामी है, दूसरे सेवक हैं। वह टुकड़े बाँटता है, दूसरे उसके टूकड़ों पर पलते हैं। इसी अहंकार के कारण वह समाज के सदस्यों से यह अपेक्षा करने लगता है कि सब उसके ही इशारों पर चलें, सब उसके स्वार्थ की सिद्धि में सहायक हों। जब कोई व्यक्ति स्वतंत्र निर्णय लेकर अपनी मर्जी से चलना चाहता है अथवा उसके स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती तो वह आहत हो उठता है और उसका क्रोध जाग जाता है।
क्रोध में विनय तथा समता की भावना नष्ट हो जाती है। समता की भावना का विकास होने पर अहंकार उत्पन्न नहीं होता तथा क्रोध का पौधा मुरझाने लगता है। इसका कारण यह है कि आत्मतुल्यता की चेतना से सम्पन्न व्यक्ति दूसरों के व्यवहार तथा आचरण से व्यक्तिगत-धरातल पर अशान्ति का अनुभव नहीं करता।
यद्यपि अन्याय एवं अनाचार करने वाले व्यक्ति का प्रतिकार आवश्यक है तथापि अन्याय एवं अनाचार के प्रति आक्रोश करना एक बात है तथा अहंकार के कारण क्रोधित होना दूसरी बात है। समाज की व्यवस्था एवं नियम के विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति पर सामाजिक न्याय की भावना के कारण क्रोधित होने वाली मानसिकता, अहंकार की भावना से उत्पन्न क्रोध की मानसिकता से भिन्न होती है। अपने सामाजिक जीवन के दायित्व-बोध के आधार पर आचरण करने तथा क्रोध एवं अहंकार के वशीभूत आचरण करने में अन्तर है।
अहंकार से क्रोधित व्यक्ति जब किसी का अहित करना चाहता है, तब वह अपना विवेक खो देता है। जब कोई व्यक्ति सामाजिक भावना से प्रेरित होकर सामाजिक विकास में बाधक बनने वाले असामाजिक एवं दुष्ट व्यक्तियों का दमन करता है तो वह अपने विवेक को कायम रखता है। वह दुष्ट व्यक्तियों का दमन इसलिये करता है, जिससे सामाजिक व्यवस्था कायम रह सके। उसके मन में दुष्ट व्यक्ति को सुधारने का संकल्प होता है, उसके अस्तित्व को मिटा देने का नहीं। वह प्रतिकार इसलिये नहीं करता, क्योंकि किसी के द्वारा उसका अपमान हुआ है, अपितु सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिये वह सामाजिक दृष्टि से अन्याय करने वाले व्यक्ति का प्रतिरोध करता है।
क्रोध के अभ्यास से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। क्रोध से अन्धा व्यक्ति सत्य, शील एवं विनय का विनाश कर डालता है। किसी ने उसका अहित किया है या कोई उसका अहित करना चाहता है, इसके अनुमान मात्र के आधार पर वह तत्क्षण क्रोधित हो जाता है। इस प्रकार सोच-समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इसके कारण द्वेष भाव का विकास एवं विस्तार होता है।
सम्पूर्ण जगत् को वह अपना शत्रु समझने लगता है। उसका जीवनदर्शन विध्वांसात्मक हो जाता है। संघर्ष, तोड़-फोड़, विनाश, हत्या आदि उसके जीवन की प्रवृत्तियाँ हो जाती हैं। इस प्रकार जब क्रोध का विकास होता है, विस्तार होता है तो व्यक्ति की सम्पूर्ण मानवीयता एवं सामाजिकता नष्ट हो जाती है। इस स्थिति पर यदि नियन्त्रण नहीं हो पाता तो उसके अपराधी बन जाने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि क्रोध कामनामूलक है। क्रोध से अविवेक एवं मोह होता है। मोह से स्मृति में भ्रम होता है तथा बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से व्यक्ति का पतन हो जाता है-
गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करते हैं, अन्याय का प्रतिकार करने के लिये बार-बार कहते हैं, किंतु दूसरी ओर युद्ध में कूद जाने की प्रेरणा देने वाले श्रीकृष्ण क्रोध से बचने के लिये सर्वत्र सावधान करते हैं। गहराई से विचार करने पर इस प्रतीयमान अन्तर्विरोध का रहस्य इस तथ्य में निहित है कि लोकमंगल की साधना के लिये अन्याय का प्रतिकार करने तथा क्रोधित होकर दूसरे का नाश करने के लिये तत्पर होने में बहुत अन्तर है।
क्रोध का विरोधी भाव क्षमा है। इस के दो मुख्य अर्थ हैं। एक अर्थ में क्षमा का अर्थ है-धैर्य, सहनशीलता एवं विनम्रता। दूसरे अर्थ में क्षमा सामर्थ्य वाचक है-सहने योग्य होना अर्थात् पर्याप्त सक्षम होना।
क्षमाशील व्यक्ति धैर्यवान् होता है, विनम्र होता है एवं अत्यन्त सहनशील होता है। क्षमा कायरता नहीं है। क्षमाशील व्यक्ति समर्थ एवं सक्षम होता है। दुःख पहुँचाने वाले व्यक्ति को वह प्रताड़ित कर सकता है, किंतु अपनी क्षमावृत्ति के कारण वह उस दुःख को सहन करता है, विनम्र रहता है। वह क्रोध को शान्ति के साथ जीतता है। ऐसा व्यक्ति कम्परहित होकर क्रोधादि कषाय को नष्ट कर देता है।
सामाजिक जीवन में हम कभी-कभी यह समझ बैठते हैं कि अमुक व्यक्ति के कारण हमारा अहित हुआ है। यदि हम क्रोधी नहीं, धैर्यवान होते हैं तथा शान्ति के साथ विवेक पूर्वक स्थितियों का विश्लेषण करते हैं तो बहुत सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। हमारी असफलता का कारण अनेक बार हमारी अपनी ही कमजोरी होती है।
यदि किसी व्यक्ति ने किसी कारण वश या अकारण ही हमारा अहित कर भी दिया है तो हमें पहले पूरी परिस्थितियों से परिचित होना चाहिये तथा हमको उस व्यक्ति के साथ धैर्य पूर्वक बातें करनी चाहिये। अपना पक्ष उसके सामने प्रस्तुत कर उसके पक्ष एवं दृष्टि से अवगत होना चाहिये। ऐसा करने पर वह व्यक्ति या तो आत्मग्लानि का अनुभव करता है अथवा उन परिस्थितियों को स्पष्ट कर देता है, जिसके कारण उसने हमारा अहित किया।
क्षमा का पालन करने वाला व्यक्ति यदि कभी अन्याय का विरोध करता भी है तो भी उसका मार्ग क्रोध का मार्ग नहीं होता। अपने मन में किसी कारण वह किसी के प्रति कभी वैर नहीं बाँधता। इस प्रकार यदि उसे दुष्टता एवं अन्याय का प्रतिरोध करना पड़ता है तो भी उसके मन में किसी के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी कहीं शत्रुभाव उत्पन्न हो भी जाता है तो भी वह अपनी क्षमावृत्ति के कारण उस भाव का शमन कर लेता है। इसी कारण गौतमबुद्ध ने कहा-उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे मारा, उसने मुझे हराया, उसने मुझे लूटा, इस प्रकार की बातों को जो व्यक्ति गाँठ बांधकर नहीं रखते, उनका वैर शान्त हो जाता है-
इस प्रकार क्रोध मन की गाँठों को बाँधता है, प्रतिकार की भावना, कठोरता, दया हीनता एवं हिंसा आदि प्रवृत्तियों को विकसित करता है। क्षमा मन की गाँठों को खोलती है तथा दया, सहानुभूती, सन्तोष, उदारता, प्रेम, मानशून्यता एवं वैराग्य की प्रवृत्तियों को विकसित करती है। सहनशक्ति क्षमा की धुरी है। आधुनिक युग में भारत में श्री ओरबिन्द ने इसका आख्यान किया तथा गांधीजी ने सामाजिक जीवन में इसका प्रयोग किया। घोष ने सविनय-अवज्ञा-आन्दोलन के सन्दर्भ में कहा-‘दमन की वेदनाओं को सहन करो।’ अहिंसा की शक्ति का प्रतिपादन करते हुए महात्मा गांधी ने कहा कि ‘सच्ची अहिंसा भय से नहीं, प्रेम से जन्म लेती है। निःसहायता से नहीं, सामर्थ्य से उत्पन्न होती है। जिस सहिष्णुता में क्रोध नहीं, द्वेष नहीं, निःसहायता का भाव नहीं, उसके समक्ष बड़ी-से-बड़ी शक्तियों को भी झुकना पड़ेगा।’
क्षमा की कई कोटियाँ, अनेक रूप एवं प्रकार हैं। उत्तम क्षमा मन की सहज प्रवृत्ति है। जब हम व्यक्तिगत राग-द्वेष की सीमाओं से ऊपर उठ जाते हैं तथा संसार के सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव एवं आत्मतुल्यता की प्रतीति करने लगते हैं तो क्षमा का भाव हमारे जीवन का सहज अंग बन जाता है। मध्य कोटि की क्षमा वह होती है, जहाँ हम आत्मतुल्यता की भावना से प्रेरित होकर नहीं, अपितु उपेक्षाभाव से प्रेरित होकर दूसरों को क्षमा करते हैं। जब हम मन की सहज भावना से नहीं, अपितु किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर अथवा भय की भावना के कारण क्षमा का प्रदर्शन करते हैं अथवा क्रोधित नहीं होते तो इस प्रकार की क्षमा अधम कोटि की क्षमा है।
हमें यह प्रयास करना होगा, जिस से क्षमा की वृत्ति हमारी मानसिकता का एक अभिन्न अंग बन सके। क्षमा वृत्ति के विकास में भारतीय दर्शन यह स्वीकार करता है कि प्राणिमात्र आत्मतुल्य है। स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं। अपने विकास में तत्त्वतः कोई दूसरा बाधक नहीं हो सकता। हमारे कर्म ही इसके लिये उत्तरदायी हैं। इस प्रकार के बोध एवं ज्ञान के कारण हमारे मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति क्षमा का भाव सहज ही विकसित हो जाता है।
सामाजिक जीवन के लिये क्षमा वृत्ति अनिवार्य है। क्रोध से क्रोध उपजता है। यह चक्र सामाजिक सापेक्षता की भावना को समाप्त कर देता है। सामाजिक सद्भाव एवं पारस्परिक बन्धुत्व की भावना के लिये क्षमावृत्ति अनिवार्य है। इससे व्यक्ति धार्मिक बनता है, शान्त-चित्त एवं विवेकशील होकर विचार करने एवं कार्य करने में समर्थ होता है। क्षमा-याचना के आधार पर वह समाज के अन्य सदस्यों के प्रति अपनी प्रेमभावना का विकास करता है, उसके जीवन में आस्था और विश्वास का संचार होता है एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विस्तार होता है। ऐसोहआत्मवत् भाव की प्रतिष्ठा हो जाने पर फिर सर्वत्र समदृष्टि हो जाती है, तब क्रोधादि विकारों के पनपने का अवसर ही नहीं आता।
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