भगवती लक्ष्मी एक दैवी सत्ता है, परन्तु भूलोक में भी उनके ऐहिक वास-स्थान हैं और वहां उनके दर्शन प्राप्त किये जा सकते हैं। इस प्रकार से उनके दर्शन प्राप्त करने की यह प्रक्रिया गुप्त है और इसमें ही उनकी पूजा करने का ढंग अन्तर्ग्रथित है।
आध्यात्मिक सम्पदा भगवती लक्ष्मी के ऐहिक वास-स्थानों में से एक है। यह सम्पदा एक सिक्के के समान है, जिसके एक ओर लिखा हुआ है- भगवान और उनकी सृष्टि के साथ सामंजस्य तथा दूसरी ओर लिखा हुआ है- सद्गुण।
सामंजस्य शांति, अनुकूलता और एकस्वरता की अवस्था है। भगवान के साथ सामंजस्य होने के अर्थ है- उनमें अडिग आस्था तथा उनसे अटूट प्रेम होना। इस आस्था और प्रेम का हमारे प्रत्येक कर्म, विचार और वचन में झलकना चाहिये। इस सामंजस्य की अवस्था को निम्नलिखित प्रकार से लाया जा सकता है-
सदा मानसिक स्तर पर भगवान के चरणों पर अपना सिर रखकर लेटे हुये पड़े रहना और कहते रहना- ‘मैं आपकी शरण में हूं- मारो या तारो’।
अपनी समस्त इच्छाओं को भगवान की इच्छा के अधीन करते हुये उनकी ही इच्छा को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना। भगवान से अपने सारे दोषों को कह देना।
भगवान की सृष्टि के साथ सामंजस्य की अवस्था इस जागरूकता से उत्पन्न होती है कि समग्र सृष्टि के समस्त प्राणी-पदार्थ में भगवान विद्यमान हैं और उन दिव्य उच्चतम उभयस्थ घटक के माध्यम से हम सबके साथ अन्दर ही अन्दर जुड़े हुये हैं तथा हम सबके माता-पिता एक भगवान ही है। अतः हम सब एक ही परिवार के सदस्यों की तरह एक-दूसरे से आन्तरिक ऐक्य की डोर में बंधे हुये हैं।
उच्च नैतिक उत्कर्ष को परिलक्षित कराने वाले व्यवहार तथा अभिवृत्तियों को सद्गुण कहा जाता है। एक ओर भगवान और उनकी सृष्टि के साथ सामंजस्य की अवस्था आध्यात्मिक सम्पदा की फुलवारी को सुरक्षित करते हैं।
कुछ प्रमुख सद्गुणों की चर्चा नीचे प्रस्तुत की गयी है-
1.सुन्दरता- सुन्दरता का सम्बंध शारीरिक सजावट से नहीं है। नैतिक औचित्य, दुष्टता-अत्याचार से दूरी, मानसिक क्षितिज के विस्तारण तथा पर-हितैषिता में ही सुन्दरता का सद्गुण झलकता है।
वही चेहरा सुन्दर होता है, जो दूसरों की उदासी के कारण उदास हो जाय। वे ही आंखें सुन्दर होती हैं जो दूसरों को रोता देख कर रो पड़े। वे ही हाथ सुन्दर होते हैं, जो दूसरों से लेना नहीं जानते, दूसरों की खाली झोलियां भरने के लिये देना ही जानते हैं। वे ही पैर सुन्दर होते हैं, जो दूसरों की करूण पुकार सुनकर आधी रात को भी दौड़ पड़ते हैं।
2.प्रेम- परिहतार्थ, निःसंकोच तथा तत्परतापूर्वक किये गये त्याग को प्रेम कहते हैं। जब तुम, हम और दूसरों की तुलना में मैं छोटा पड़ जाता है, तब प्रेम का उदय होता है। जब स्वार्थ और अहंकार तिरोहित हो जाता है, तब प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम है अपने को दे डालना। ऐसा तब हो पाता है, जब दूसरों को अपनी खुशियां देकर उसके बदले में उनके दुःखों को ले लेने का भाव मन में उठता है, जब अपनी कही जाने वाली वस्तुओं से स्वामित्व की तथा अपनेपन की भावनाएं हटाकर उन्हें जरूरत मंद व्यक्तियों को दे डालने की इच्छा उत्पन्न हाती है तथा जब दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये अपनी आवश्यकताओं को नकार दिया जाता है।
3. उदारता- दूसरों को सहायता, धनादि देने या देने के लिये सहर्ष तत्पर रहने के गुण को उदारता कहा जाता है। अपने जीवन की अनुकूल परिस्थितियों में दूसरों को साझीदार बनाना तथा ‘लेने’ से अधिक ‘देने’ को महत्व देना उदारता के सद्गुण के प्रमुख लक्षण हैं।
उदारता की अवधारणा का सार है- ‘प्रेम से देना’, ‘प्रसन्नतापूर्वक देना’, ‘अयाचित देना’ तथा ‘देने का कोई हिसाब-किताब न रखना’।
4. समृद्धि- यह समृद्ध व्यक्तित्व का लक्षण है। समृद्ध व्यक्ति वह होता है, जिसके पास उच्चतर मूल्यों (सेवा, दया, सत्यनिष्ठा, अहिंसा आदि) का धन होता है। किसी भी ऐसी वस्तु का स्वामित्व, जो इन मूल्यों से मेल नहीं खाता, उसे निर्धनता के गर्त में ढकेल देता है। उसकी समृद्धि का निर्धारण उसकी भौतिक सम्पत्ति नहीं करती।
5. मलिनता का अभाव- अनैतिकता तथा मिथ्याचारिता की आन्तरिक मलिनता के अभाव से नैतिकता, निष्कपटता तथा सत्यनिष्ठा का प्रादुर्भाव होता है। इस अभाव की स्थिति को बनाये रखने के लिये परुषता, विश्वासघात, ईर्ष्या, लोभ और कृतघ्नता के दुर्गुणों से दूरी बनाये रखना अति आवश्यक है।
भगवती लक्ष्मी ऐसे घरों में निवास करती है, जो साफ-सुथरे होते हैं, जहां पशु-पक्षियों को आहार दिया जाता है और जहां क्षुधा-पीडितों को अन्न वितरित किया जाता है और जहां परिवार के सदस्य भगवान को ही अपने जीवन का सर्वस्व मानते हैं, जो कभी अप्रिय वाणी नहीं बोलते और दुर्व्यवहार नहीं करते, जो अध्यवसाय, संतोष, प्रशान्ति के गुणों के धनी होते हैं तथा जिनके कर्मों के लाभार्थियों का दायरा अपने-अपनों तक सीमित न रहकर परिचित-अपरिचित, निकट और दूर के सभी लोगों तक फैला हुआ होता है और जिनके बाजू इतने लम्बे होते हैं कि उनसे वे पूरे संसार को अपने प्रेमालिंगन में ले सकते हैं।
भूलोंकों में भगवती लक्ष्मी का दर्शन प्राप्त करने के लिये हम सबको अपने विचारों, वाणी और कर्मों के दर्पण में उपर्युक्त सामंजस्य को प्रतिबिम्बित होने देना चाहिये और अपने आपको उपर्युक्त सद्गुणों का साकार रूप बनाना चाहिये। अपनी भौतिक सम्पदा को पर-हितार्थ उपयोग में लाना चाहिये। यदि हम गृहस्थ हैं तो हमें भगवत प्रेम में लगे हुये उत्तम चरित्र के निष्कलंक गृहस्थ बनाना चाहिये।
इस प्रकार भगवती लक्ष्मी का दर्शन करना, उनकी पूजा करने का उत्तम ढंग है। उनकी इस प्रकार की पूजा जीवन का निर्माण करने वाली एक लम्बी प्रक्रिया है, जो हमारे जीवन को दूसरों के लिये उपयोगी बनाती है तथा पर्वों के अवसर पर और मन्दिरों में की जाने वाली पूजा को अनुपूरित करती है।
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