भगवद् गीता सनातन धर्म के महान ग्रन्थ के रूप में एक अनमोल ज्ञानकोष की भाँति संचित है। श्रेष्ठ जीवन जीने की कला तथा नर से नारायण बनने का मार्गदर्शन गीता में विद्यमान है, इसीलिये महापुरूषों ने इसे कर्तव्य ज्ञान का अप्रतिम कोष कहा है। महात्मा गांधी गीता को गीता मैया कहा करते थे। महात्मा गांधी ने एक जगह लिखा है, मेरी माँ तो बचपन में ही दिवंगत हो गयी थीं। माँ के न रहने पर प्यार-दुलार, संसार का ज्ञान और मार्गदर्शन मुझे मिला है गीता से।
गीता के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर पर विश्वास करना मन की दुर्बलता नहीं है। ईश्वर पर विश्वास करना आत्मबल है। इससे कोई निकम्मा नहीं बनेगा, बल्कि ऐसा अनुभव होगा कि यह सम्पूर्ण संसार, समस्त ब्रह्माण्ड, ग्रह-नक्षत्र, इन सभी शक्तियों का अनुग्रह आप पर बरस रहा है। सम्पूर्ण विराट विश्व में आप हो, यह सम्पूर्ण जगत आपका ही परिवार है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की साक्षात् अनुभूति हमें गीता के द्वारा होती है। जब सारी दुनिया मेरा कुटुम्ब है तो मैं किससे द्वेष करूँ?
अर्थात् जो सब प्राणियों में द्वेष भाव से रहित है, जो निःस्वार्थ रूप से सबका हित करने वाला, सबसे प्रेम करने वाला है और सभी पर करूणा की वर्षा करता है तथा आसक्ति रहित एवं अहंकार से रहित होकर सभी सुख-दुःखों की प्राप्ति में समभाव रखता है, जो क्षमावान् है, जो ईश्वर आराधना में संलग्न रहता हुआ योग में मन लगाये हुये है, जो सांसारिक लाभ-हानि से उद्विग्न नहीं होता तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को नियंत्रित किये हुये है, जो दृढ संकल्प पूर्वक अपना मन और बुद्धि परमेश्वर के विश्व रूप की सेवा में समर्पण कर चुका है- वही नारायण का भक्त है, वही उसका परम प्रिय है। इस प्रकार गीता समस्त मानव को दैवीय शक्ति से परिपूर्ण देखना चाहती है, इस पृथ्वी को ही दिव्य लोक बनाने की मंगल कामना करती है।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति से निराश हो जाना साधक की सबसे बड़ी भूल है। इस भूल के दो कारण होते हैं- एक तो साधक में जो आंशिक गुण होते हैं, उसका अभिमान कर लेता है, तात्पर्य जब उसे अनेक प्रयास पर भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती तो वह सोचने लगता है कि भगवान् की कृपा हर किसी को थोड़े ही मिल जाते हैं। वे तो लाखों में किसी बिरले सौभाग्यशाली को ही मिलते हैं। चलो, अपने को तो जितना लाभ हो गया, वही ठीक है। अनेकों से तो मैं अच्छा ही हूँ।
इस तरह अनेक साधक आंशिक गुणों के आधार पर ही सन्तोष कर बैठ जाते हैं और कर्म साधना में शिथिलता ले आते हैं। साध्य की प्राप्ति से निराश हो जाना कोई समझदारी की बात नहीं है। आंशिक गुण तो सभी में होते हैं, पूर्ण दोषी तो संसार में कोई भी नहीं हो सकता। बल्कि विचार कर देखने से तो ऐसा मालूम होता है कि सभी मनुष्यों में सभी गुण मौजूद हैं, ये अलग बात है कि दोषों के कारण वे दबे हुये से रहते हैं। यदि मनुष्य अपने दोषों का परित्याग कर दे, तो गुण कहीं से लाने नहीं पड़ेंगे, वरन् दोषों के मिटते ही स्वतः चमक उठेंगे। इस दृष्टि से गुणों का अभिमान करना तो वृथा ही है।
साधक जब साधना करते-करते थक जाता है और उसे सफलता नहीं मिलती, तो वह सोच बैठता है कि अरे भाई! मेरे जैसे साधारण प्राणी को नारायण की प्राप्ति कैसे हो सकती है? जब बड़े-बड़े योगी हजारों वर्षों तक प्रयत्न करके भी जिसको नहीं पा सके तो हम कलियुगी जीव भला कैसे पा सकेंगे! यह भी साधक की एक भूल ही है, क्योंकि अपने साध्य की प्राप्ति तो मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है।
महाभारत युद्ध के मध्य में मोह ग्रस्त हो जाने के कारण महावीर अर्जुन के हाथों से जब गाण्डीव शिथिल हो गया, तब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का सार बताया। एक प्रकार से देखें तो, सम्पूर्ण मानव समाज जीवन संग्राम के योद्धा हैं। कई बार ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब हम सही निर्णय नहीं ले पाते हैं और ऐसे अवसरों पर जब धैर्य छूटने लगता है और अपनी दुर्बलता को आदर्श वाक्यों से ढँक कर पीछे मुड़ना चाहें, उस समय गीता की गम्भीर ध्वनि हमें सावधान करती है-
हे पृथ्वी के पुत्र! पौरूष को लजाने वाली क्लीब वृत्ति तुझे शोभा नहीं देती। हे पुरूष सिंह! लक्ष्य में बाधा डालने वाले संकटों पर विजय पाना तो तेरा स्वभाव ही है। हृदय को क्षुद्र दुर्बल भावनाओं पर विजयी होकर हे परन्तप! तू कटिबद्ध हो जा।
गीता अनुपम आत्मविश्वास जाग्रत करके मनुष्य को निर्भय बनाने वाला ग्रन्थ है। यह आत्म की अमरता और अखण्डता का प्रतिपादन कर देह की आसक्ति के कारण लक्ष्य प्राप्त करने में विचलित होने वाले जीवन-संघर्ष के योद्धाओं को निर्भयता का सन्देश देती है। मैं केवल देह नहीं हूँ। देह तो मेरा आवरण-मात्र है। मैं कभी न मरने वाला अखण्ड और व्यापक आत्मा हूँ। वह आत्मा जिसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और न वायु सुखा ही सकता है।
भारत का इतिहास इस उपदेश से कितना प्रभावित हुआ, यह तो इतिहास के पृष्ठ बताते हैं। हमने देखा है कि हमारे राष्ट्र के क्रान्तिकारी, देश रक्षक सैनिक, बलिदानी वीर इसी ज्योतिर्मय उपदेश की मस्ती में फाँसी की रस्सी को चूमते रहे और अत्याचारी लाख उत्पीड़न के पश्चात् भी उनके चेहरे की मुस्कान को छीन न सके।
गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। सांख्य और योग अर्थात् शास्त्र और कला दोनों का समन्वय करते हुये जीवन सौन्दर्य का साक्षात् अनुभव करने के लिये गीता कृत संकल्पित है। विनोबा भावे कहते हैं- कोरा शास्त्र हवाई महल है। संगीत शास्त्र को समझ तो लिया, किंतु कण्ठ से संगीत प्रकट करने की कला न साधी तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी।
गीता पराधीन नहीं बनाती। गीता आपको अन्धविश्वास के अँधेरे में नहीं सुलाती। गीता आपको कैसे सद्बुद्धि मिले, वह उपाय बताती है, गीता महान् बुद्धिवादी ग्रन्थ है।
अर्थात् जिसकी बुद्धि का नाश हो जाता है, वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है। श्री कृष्ण कहते हैं-
अर्जुन! तुम बुद्धि की शरण ग्रहण करो। बुद्धिमान वह है जो कर्म तो करे, परंतु पाप उसे आक्रान्त न कर सके और पुण्य उसे अभिमानी न बना सके।
सदा, सब समय सभी कर्मों का अनासक्त भाव से कुशलता पूर्वक आचरण करते रहना चाहिये। निश्चय ही निष्काम कर्मयोगी अपने कर्मों के द्वारा परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
गीता सर्वत्र ईश्वर दर्शन कराती है तथा सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर का स्वरूप प्रदर्शित करती है। विश्व के किसी भी भाग में होने वाले सभी ईश्वरीय पुरूषों में वह दिव्य तेज की घोषणा करती है, वे सभी हमारे पुरूषोत्तम हैं-
समस्त विश्व में जो-जो भी अपूर्व, ऐश्वर्य युक्त, कान्ति युक्त एवं शक्ति युक्त महापुरूष अथवा महासत्त्व प्राणी हैं, उन सबको तुम परमात्म तेज से उत्पन्न मानो। गीता का कथन है कि अपने प्रत्येक कर्म को हम ईश्वर की उपासना बना लें। पुण्डलीक अपने माता-पिता की सेवा करता था, वही उसकी प्रभु-अर्चना थी। उसकी सेवा से प्रसन्न हो भगवान् पांडुरंग उससे मिलने आये, किंतु उसने माँ-बाप की सेवा छोड़कर प्रभु से भेंट करना पसन्द नहीं किया। एक ईंट सरका दी-विट्ठल! तब तक प्रतीक्षा करो, जब तक माता-पिता की सेवा से निवृत्त ना हो जाऊँ। मैं इस सेवा में भी तुम्हारी ही तो अर्चना कर रहा हूँ!
श्रीमद् भगवद् गीता के इन उपदेशों को धारण कर साधक अथवा कोई भी साधारण व्यक्ति द्वन्द्वों और निराशा से पार पा सकता है। जीवन के कर्तव्य का उचित स्वरूप में निर्वाह कर स्वयं को कर्मयोगी स्वरूप में निर्मित करने की कला गीता के ज्ञान से प्राप्त करें, जीवन में प्रसन्नता, शांति, सरलता की प्राप्ति होगी।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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