उसी समय में शबरी भी समर्पण की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमूर्ति रही है, उसका जीवन ईश्वर आस्था का केन्द्र रहा है। वह मतंग ऋषि के सानिध्य में उनके आश्रम के समीप ही एक कुटिया में रहती थी। ऋषि के आश्रम पर रहकर उनकी सेवा करना ही उसकी दिनचर्या थी। मतंग ऋषि उसके गुरु थे, अतः गुरु के आदेश का पालन वह तत्परता से करती थी, शबरी एक सदाचार भक्ति परायणा स्त्री थी। ऋषि उसकी सेवा से प्रसन्न थे।
एक दिन मतंग ऋषि ने शबरी से कहा- अब मैं यह देह त्याग करूँगा। तुम इसी आश्रम पर रहना। प्रभु श्रीराम एक समय में अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इस आश्रम में आयेंगे, तुम उन्हें सुग्रीव का पता बता देना। भगवान श्रीराम का दर्शन ही तुम्हारी सेवा का सर्वोत्तम फल होगा। इसके बाद मतंग ऋषि ने योग विधि से अपनी देह त्याग दी।
शबरी को अपने गुरु के शब्दों पर पूर्ण विश्वास था, वह प्रभु श्रीराम के आने की बाट जोहने लगी, शबरी मन, वचन, कर्म से केवल श्रीराम की प्रतीक्षा करती। उसकी दिनचर्या में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया। वह प्रतिदिन कुटिया तथा मार्ग की सफाई करती। ऋतु के अनुसार पुष्पों और फलों को डलिया में रखती। पूरे समय वह राम के आने की बाट देखती। एक ही विचार उसके मन में समाया हुआ था कि राम आयेंगे। राम कब आ जाये, यही सोचकर वह दिन-रात सचेत रहती थी।
शबरी के तन-मन की गति ऐसी हो गयी थी कि तनिक-सी आहट होने पर या वृक्षों के पत्तों के खड़-खड़ाने पर भी वह कुटिया के बाहर निकलकर दूर तक देखती कि कहीं प्रभु श्रीराम के आने की यह आवाज हो। उसने श्रद्धा-विश्वास और प्रीति के साथ अपने मन की डोर श्रीराम से बाँध रखी थी। भगवान् श्रीराम की प्रतीक्षा करते-करते वह वृद्धा हो गयी।
भगवान् राम के अतिथि-सत्कार की तैयारी ही शबरी की जीवन चर्या थी। यही उसकी योग-साधना थी। राम का नाम ही उसके अन्तः करण में था और राम का नाम ही उसका मन्त्र जप था। वह सहज योग से भक्ति मार्ग पर अग्रसर हो गयी। शबरी की ऐसी दिनचर्या देख कर उस वन के अन्य ऋषि मुनि प्रायः कहते थे, कि भला तत्त्व वेत्ता, तपस्वी एवं सिद्ध पुरूषों के आश्रमों को छोड़कर प्रभु श्रीराम उसकी कुटिया पर क्यों आयेंगे? लेकिन शबरी को इस प्रकार की बातों का मलाल नहीं होता था, क्योंकि वह समत्व योग की स्थिति में पहुँच चुकी थी।
उसे निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ, सिद्धि- असिद्धि तथा जीवन-मृत्यु से कोई वास्ता नहीं रहा। वह प्रतिपल श्रीराम के आने की बाट जोहती रहती थी। एक दिन शबरी ने देखा कि वनवासी वस्त्र धारण किये धनुर्धारी राम अपने अनुज लक्ष्मण सहित उसके आश्रम पर आ गये। राम को देखते ही वह आत्म विभोर होकर उनके चरणों पर गिर गयी। वह पूजा-अर्चना, विनती तथा स्वागत-सत्कार करना बिलकुल भी नहीं जानती थी। प्रभु राम ने उसे उठाया।
शबरी ने कुछ सँभलकर राम और लक्ष्मण को आसन पर बैठाया और फल उनके सामने रखकर उन्हें खिलाने लगी। प्रभु राम शबरी के द्वारा दिये गये फल प्रसन्नता से खा रहे थे, शबरी का सर्मपण, श्रद्धा, आस्था अतुलनीय था।
शबरी ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो! मैं पूजा-पाठ, मन्त्र जप तथा योग विधि कुछ भी नहीं जानती हूँ, मेरे गुरु मतंग ऋषि जी ने अपनी देह का त्याग करते समय मुझसे कहा था कि इसी आश्रम पर तुम्हारे पास प्रभु राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ आयेंगे। मैं उसी दिन से आपके आने की राह देख रही थी। आज आप आ गये। मैं आपके दर्शन करके धन्य हो गयी।
श्रीराम बोले- हे भामिनि! मैं केवल भक्ति का नाता मानता हूँ तुम्हारे अन्दर तो भक्त के समस्त गुण हैं।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता।।
श्रीरामचरित मानस में श्रीराम द्वारा शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश बहुत ही सुन्दर रूप में व्यक्त किया गया है- इसके बाद भगवान् श्रीराम ने शबरी के नवधा भक्ति का उपदेश देते हुये कहा-
1- पहली भक्ति सन्तों के पास निवास करना अर्थात् सत्संग करना है।
2- मेरे कथा-प्रसंगों में प्रेम होना दूसरे प्रकार की भक्ति है।
3- गर्व रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना तीसरी भक्ति है,
4- कपट त्याग करके मेरा गुणगान करना चौथे प्रकार की भक्ति है।
5- मेरे नाम का जप करना तथा मुझ में दृढ़ विश्वास रखना पाँचवीं भक्ति है। यह भक्ति वेदों में प्रसिद्ध है।
6- इन्द्रियों का निग्रह, शील स्वभाव, बहुत से कार्यों से वैराग्य तथा निरन्तर सन्त पुरूषों के धर्माचरण में लगे रहना छठे प्रकार की भक्ति है।
7- जगत को समान भाव से मुझ में ओत-प्रोत देखना तथा सन्तों को मुझसे भी अधिक मानना सातवीं भक्ति है।
8- जो कुछ प्राप्त हो जाये, उसी पर सन्तोष करना तथा स्वप्न में भी दूसरों के दोष नहीं देखना आठवीं भक्ति है।
9- सरलता, सबके साथ कपट रहित व्यवहार करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना तथा किसी भी स्थिति में हर्ष और विषाद का नहीं होना, यह नवां भक्ति का प्रकार है।
भगवान् श्रीराम ने शबरी को समझाया कि हे भामिनि! जिस स्त्री-पुरूष अथवा जड़-चेतन में इन नौ प्रकार की भक्तियों में से एक भी प्रकार की भक्ति होती है, वह मुझे प्रिय होता है। फिर तुम्हारे में तो सभी प्रकार की दृढ़ भक्ति है। मेरे दर्शन का यह अनुपम फल होता है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। अतः जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही गति आज तुम्हारे लिये सुलभ हो गयी है।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरूष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ।।
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा।।
भगवान् के पूछने पर शबरी ने उन्हें सुग्रीव का पता बता कर उनसे मित्रता करने की सलाह दी, जिससे सीता की खोज हो सके। भक्तिमयी शबरी ने राम का दर्शन कर उनके चरण कमलों को हृदय में धारण किया और प्रभु श्रीराम के समक्ष ही उसने योग अग्नि से देह त्याग दी। उसने वह पद प्राप्त किया, जहाँ से संसार में वापस आना नहीं पड़ता है।
शबरी का जीवन मनुष्य को ईश्वर, सद्गुरु के चरणों में पूर्ण श्रद्धा, समर्पण, आस्था से वह सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, जो अत्यन्त कठिन, दुरूह प्रयासों से भी प्राप्त करना असंभव प्रतीत होता है। अतः सभी मानव को कपट रहित ईश्वर आराधना करनी चाहिये, और पूर्ण समर्पित, श्रद्धा युक्त होना चाहिये।
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