सभी समस्याओं का, उलझनों का, रूकावटों का समाधान केवल और केवल एक ही है वह है ‘समाधि’। समाधि अर्थात् सभी कुछ का समाधान। कुछ भी नहीं बचता न कोई प्रश्न, न कोई समस्या, न कोई उलझन, सभी प्रकार का समाधान, सभी प्रकार की उपलब्धता। जब सभी प्रकार की उपलब्धता है तो फिर बाकी बचा भी क्या पाने के लिये? मनुष्य, पद पाने के लिये बड़ा कठिन परिश्रम करता है पढ़ाई करके, डिग्रियां हासिल करता है बहुत सा समय वह एक डिग्री पाने में ही व्यतीत कर देता है, फिर उस डिग्री के आधार पर परीक्षा देकर किसी पद को पाने का प्रयत्न करता है, तब भी उसे वह पद प्राप्त हो सकता है तथा नहीं भी हो सकता है, कुछ भी निर्धारित नहीं किया जा सकता है, वह इस पद पाने के लिये सभी प्रकार से कोशिशें करता है, लेकिन यह उसे भी निश्चित नहीं है, कि वह जिस पद को पाने के लिये इतना व्यग्र है, वह उसे मिलेगा भी या नहीं। लेकिन सद्गुरु कहते है कि तुम किन पदों की होड़ में लगे हो, तुम मेरे पास एक बार शांति पूर्वक कुछ समय तो बैठो तो तुम इन तुच्छ पदों को पाने की होड़ ही छोड़ बैठोगे। ये पद तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं, तुम ध्यान के सागर में डूब जाओं तो तुम्हें जो पद प्राप्त होगा वह परम पद होगा और परम पद से बड़ा कोई पद नहीं है।
और कबीर नहीं गये किसी विश्व विद्यालयों में डिग्री लेने, लेकिन अब विश्व विद्यालयों में उनके नाम से डिग्रियां दी जाती हैं उन पर पी-एच-डी- कराई जाती है, क्योंकि उन्होंने उस परम पद को पा लिया था। मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या सबसे बड़ी उलझन और सबसे मुख्य प्रश्न एक ही है वह है स्वयं को न जानने की। जिस दिन वह स्वयं को जान जाता है, उसकी सभी समस्याओं का निराकरण हो जाता है और यह स्वयं को जानना केवल ध्यान के माध्यम से समाधि पाकर ही हो सकता है। समाधि में ही उसे अपने प्रश्नों के उचित उत्तर प्राप्त हो सकते हैं अन्यथा सभी खोजते हैं, बाहर उस मृग की भांति जो कस्तूरी की सुगंध में जंगल में भटकता फिरता है, उसे नहीं पता होता कि यह सुगंध स्वयं उसके अंदर से आ रही है यही हाल मनुष्यों का भी है। उसके सभी प्रश्नों का उचित उत्तर उसके अंतस में ही विद्यमान है।
वह भी अपना नाम प्रतिष्ठा कमाना चाहता है संसार में, लेकिन प्रतिष्ठा नाम तो हमे दूसरों से प्राप्त होता है, दिया है राष्ट्रपति ने सम्मान, समाज के लोगों ने बना दिया है चेयरमैन, प्रतिष्ठा एवं पद आदि पाकर भी द्वंद्व व समस्या नहीं मिटती और अधिक बढ़ जाती है। उन्होंने ही बढ़ाई जिन्होंने प्रतिष्ठा दी, जिन्होंने पद दिया, जिन्होंने नाम दिया। उनकी समस्या, उनकी उलझन भी अब तुम्हारे सिर आती है। अब ऐसी प्रतिष्ठा नाम आदि को पाकर भी क्या लाभ? जिसको पाकर और अधिक समस्याओं से घिर जायें लेकिन एक मृग तृष्णा, एक अज्ञानता की भांति उसे पाने का प्रयत्न करते हैं, यदि इन सब से छुटकारा पाना है, तो होना होगा तुम सब को ‘आत्म प्रतिष्ठित’ अर्थात् अपने अंदर निष्कम्प भाव, स्थिरता लानी होगी। संसार के बाहरी क्रिया-कलापों से, झंझावातों से, समस्याओं से अब कोई घबराहट नहीं होती, मन इधर-उधर नहीं डोलता कैसा भी घोर संकट हो, कैसा भी तूफान आये लेकिन जो आत्म प्रतिष्ठित हो गया है, उसे ये तूफान नहीं हिला पायेंगे। उसने ईश्वर को स्वयं के अंदर अनुभव कर लिया है। वह जान चुका होता है, यह तो सब ईश्वर की लीला मात्र है। मैं इसके लिये क्यों व्यग्र होऊं?
तुम्हारे प्राण जब अपने प्रश्न की खोज में मचल-मचल जायें, तो उत्तर अवश्य प्राप्त होगा और जिस दिन स्वयं को जान जाते हो तो केवल ऐसा नहीं है कि तुम केवल स्वयं को ही जान पाते हो। ऐसा नहीं है, तब तो तुम सब कुछ जान जाते हो। इस विश्व को ब्राह्माण्ड को प्रकृति को सभी को जानने में तुम समर्थ होते हो स्वयं को जानकर। अतः तुम स्वयं को जानना स्वयं के अन्तः केन्द्र से, वही है तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर। दूसरों के बताये उत्तर तुम्हारे काम नहीं आ सकेंगे, क्योंकि प्रश्न तुम्हारे हैं तो उत्तर भी तुम्हारे ही होंगे। समस्या तम्हारी है तो समाधान भी तुम्हारे अंदर से ही प्रकट होगा। स्वयं को जानने में केवल और केवल तुम अकेले ही सहायक होगे। क्योंकि जानना तुम्हें स्वयं को है, उत्तर भी तुम्हारे, अन्तः स्थल में ही सब कुछ है, बस थोड़ी परतों का उघाड़ना है। सब कुछ तुम्हारे सामने दर्शन हो जायेगा और गुरु इन्ही परतों को उघाड़ता है।
शिष्य गुरु को खोजता है, गुरु को पा भी लेता है लेकिन उससे पहले गुरु-शिष्य से अधिक खोजता है। शिष्य की खोज एक अंधी खोज हो सकती है, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि वह कैसे गुरु को खोज रहा है। वह गुरु को किस विधि से पहचान पायेगा कि कौन है मेरा गुरु? यदि गुरु शिष्य के सामने भी आकर खड़ा जो जाता है तो शिष्य के पास क्या माप दण्ड है? कि वह उसे पहचान और यह जान लें कि जो उसके सामने खड़ा है वही उसका गुरु है। पहले उसे विश्वास नहीं होगा, अनेक पाप-दोष उसके भीतर खड़े हो जायेंगे उसे स्वीकार करने में।
लेकिन सद्गुरु करूणाशील होने के कारण प्रेमवश उस पर कृपा करते हैं। वह शिष्य को निमंत्रण देता है, आमंत्रित करता है उसे अपने समीप बुलाने के लिये, उसकी आंखों में झांकने के लिये। और यदि किसी को प्रथमतया प्रेम होता है, तो वह आंखों के माध्यम से ही होता है और देह को, शरीर को देखने पर जो प्यार उमड़ता है, वह तो वासना ही कही जायेगी। प्रेमी तो एक बार आंखें मिलने पर ही दिल हार बैठते है। फिर वह कुछ आगा-पीछा नहीं सोचते चाहे जग बैरी होये, वह अपने प्रियतम को नहीं छोडते।
इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य पर प्रेमवश करूणा ही बरसाते हैं, उससे बार-बार आंख मिलाकर। वह देखते हैं कि कहीं मेरा शिष्य कमजोर तो नहीं हो गया। गुरु तो शिष्य को पहली ही दृष्टि में पहचान जाते हैं और तभी अपनी कृपा बरसा देते हैं वह शिष्य की सम्पत्ति, वेश-भूषा, जाति-पद, धन आदि पर ध्यान नहीं देते। वह ही तो पहचानते हैं शिष्य को और झलक दिखाते हैं ईश्वर की। शिष्य कब तक खोजे गुरु को? तो गुरु की खोज ही सफल होती है, जब शिष्य स्वयं को तैयार कर लेता है, उसके अंदर पात्रता विकसित हो जाती है, उसका उचित समय आ जाता है, तो गुरु स्वयं अपने समीप बुला लेता है। ऐसे अनेकों उदाहरण है।
योगानन्द का नाम आपने सुना ही होगा वह बचपन से ही अध्यात्म पथ के अनुगामी थे और गुरु की खोज में बचपन से ही व्यग्र हो गये थे। गुरु को पाने के लिये उन्होंने कई बार घर से भाग कर हिमालय की ओर प्रस्थान किया था और गुरु तो बैठे थे, उनके घर से 12 कि-मी- दूर उनका आश्रम था। योगानन्द कलकत्ता में रहते थे और उनके गुरु युक्तेश्वर श्री रामपुर में। शिष्य योगानन्द गुरु से मिलने के लिये अधीर थे, तो गुरु भी व्यग्र थे शिष्य की प्रतीक्षा में और जब मिले तो काशी के बाजार की एक पतली गली में, योगानन्द काशी में आये थे अपनी शिक्षा को पूर्ण करने, लेकिन गुरु को भी आना पड़ा श्रीरामपुर से काशी में किसी से मिलने के लिये, किसी से मिलने का तो मात्र बहाना था, मिलना तो अपने शिष्य से था और योगानन्द तो उन्हें देखकर आगे बढ़ गये थे। नहीं पहचाना पहली दृष्टि में परन्तु गुरु ने तो पहचान लिया था और क्रिया कर दी शिष्य पर। योगानन्द दस कदम भी न बढ़ पाये आगे उन्हें छोड कर, और पीछे मुडे़ और देखें, पीछे मुडे़ और देखें, बार-बार। साथ वाला दोस्त भी कहने लगा योगानन्द क्या सड़क के बीच नृत्य कर रहे हो? परन्तु वो क्या जाने गुरु-शिष्य के बीच क्या व्यतीत हो रहा है? श्री युक्तेश्वर जी ने भी प्रतीक्षा की शिष्य की और शिष्य भी भटका है, गुरु को पाने के लिये, गुरु के विरह में जो आज जा कर खोज पूर्ण हो पाई है, गुरु ने ही क्रिया की योगानन्द मत जा आगे और आ मैं ही हूं तेरे इस जन्म का गुरु। बड़ी प्रतीक्षा की है मैने भी तेरे लिये। अतः गुरु भी खोजता है शिष्य को।
शिष्य का गुरु से जहां मिलन होता है, वहीं ईश्वर प्रकट होता है, उस मिलन की घड़ी में ही ईश्वर का प्रकटीकरण होता है। आज कल तो जिस प्रकार से गुरु का चयन होता है, यदि तुम किसी मुस्लिम के घर में जन्म लेते हो तो तुम्हारा गुरु मुसलमान ही होगा। यदि ब्राह्मण हो, ब्राह्मण के घर में जन्म लेते हो तो कोई ब्राह्मण भगवा तिलकधारी तुम्हारा गुरु हो जाता है। तुम जैन धर्म के घर में जन्मते हो, तो बातें जैन धर्म के अनुरूप होती हैं, उनके धर्म के अनुरूप ही गुरु होना चाहिये, उनके जैसे वस्त्र धारण करना, पानी छानकर पीना आदि। यह सब गुण उसमें हो तो तुम उन्हें गुरु बना लेते हो। तुममें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि गुरु कैसा है? वे ईश्वर से साक्षात्कार किया है या नहीं, वह समर्थ है या नहीं कोई कसौटी नहीं है, तुम्हारी बस जो माता-पिता ने कहा वह तुमने मान लिया।
यदि तुम में चेतना है तो फिर हिंदू हो, सिख हो, ईसाई हो, मुसलमान हो, जैन हो अथवा कोई भी हो तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता गुरु तो समर्थ होना चाहिये ईश्वर से साक्षात्कार प्राप्त होना चाहिये। वह ब्राह्मण हो अथवा शूद्र इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ईश्वर प्राप्त गुरु यदि किसी को मिल जाये तो जो गुरु के मुख से निकला वाक्य वही प्रसाद है, चाहे वह बात आज तुम्हे स्वयं के लिये काम की न लगती हो परन्तु आने वाले समय में वहीं बात तुम्हारे काम की होगी। अतः गुरु के वाक्य ब्रह्म वाक्य कहे जाते हैं उन्हें सम्हाल कर रख लेना, गुरु के होठों से स्पर्श किये वस्तु तुम्हें मिल जाये तो उसे पी जाना। गुरु को झूठा भी दिव्य प्रसाद बन जाता है उनका स्पर्श दिव्य स्पर्श होता है। उसे भी बड़ी सावधानी से रख लेना वहीं तुम्हारा धन है, सम्पत्ति है, तुम अपनी बुद्धि से गणित कर जोड़-तोड़ मत लगाने लग जाना कि ये बात मेरे लिये उचित है या नहीं। यदि गुरु द्वारा चोट भी तुम्हें की गई तो वह भी तुम्हारे लिये लाभकारी ही होगी।
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध कैसा है? यह सम्बन्ध शिष्य-गुरु के चरणों में झुकता है, अपने हृदय कमल में, सहस्त्रार में, रोम-रोम में गुरु को आत्मसात् करने का अभ्यास करता है, तो यह सब करने में शिष्य का अहंकार गल जाता है, वह स्वयं को तुच्छ मानकर गुरु को भगवान का रूप मानता है, भगवान ही कहता है और गुरु भी स्वयं उसके हृदय कमल में न बैठ कर अपने साथ खड़े भगवान को शिष्य को दिखलाते हैं तथा कहते हैं कि अब मैं नहीं तू इन्हें बैठा अपने हृदय कमल में, गुरु तो निमित्त है केवल, साधन है केवल, राह है केवल, मंजिल तो स्वयं भगवान ही है तुम आवाहन गुरु का करते हो लेकिन आते स्वयं भगवान ही है। तुम्हारे अहंकार को गलाने के लिये, तुम्हें ईश्वर से साक्षात्कार कराने के लिये ही गुरु आते हैं और तुम्हारे अहंकार रहित होने पर ही ईश्वर तुम्हारे अंदर प्रवेश करता है अर्थात पहले ईश्वर के गुण तुम्हारे अंदर आत्मसात् किये होते हैं क्योंकि गुरु ईश्वर से साक्षात्कार प्राप्त जो होते हैं, ईश्वर के गुण जैसे ईश्वर बहुत दयावान है, करूणाशील है, ऐश्वर्याधिपति है, सर्व शक्तिमान है, महाधनवान है, महाबलशाली है आदि-आदि। तुम ईश्वर के गुणों को ग्रहण करते हो फिर तुम उन जैसे ही बन जाते हो। कबीर भी कहते है –
गुरु तो स्वयं एक तरफ खड़ा हो जाता है और शिष्य को संकेत कर देता है कि अब मैं नहीं वह है गोविन्द उन्हें बैठा लें, मेरा काम तो केवल यहां तक ही था। तुम्हारी जान-पहचान अब गोविन्द से करा दी है, तो गुरु कराता है मिलन ईश्वर से इसलिये उसे माध्यम कहा गया है, वह मुक्ति प्रदाता भी इसीलिये कहा गया है कि वह अनन्त जन्मों की यात्रा का समापन करा देता है शिष्य की, वह ईश्वर से मिलाता है और जब ईश्वर से मिलन हो जाता है, तो यह यात्रा जो जन्मों-जन्मों की चल रही थी। उसका कोई औचित्य अब नहीं रह जाता, यह यात्रा तो केवल उस ईश्वर को पाने के लिये ही हो रही थी केवल और अन्य कोई कारण न था। भले ही हम संसार में आकर सब भूल जाये अपने लक्ष्य से विमुख हो जाये लेकिन मनुष्य जन्म या उससे पहले के जन्मों की यात्रा केवल और केवल उस ईश्वर को पाने की यात्रा है, अतः गुरु ही उसे पूर्ण कराते हैं। अनेक गुरु हुये है अपने-अपने समय में उन्होंने ईश्वर का गुणगान किया है। जन साधारण को भगवान की शक्ति से परिचित कराया है तथा उनका दर्शन कराया है।
रविदास भगवान के सच्चे भक्त थे, जाति के हरिजन थे, उनकी पुत्री भी बड़ी भक्त थी, एक दिन कोई जिज्ञासु भगवान के दर्शन की इच्छा हेतु उनके घर आया। रविदास ने अपनी बेटी से कहा- बेटी इसे गंगा जल पिला दो, इसे भगवान के दर्शन हो जायेंगे उनकी लड़की ने जिस पानी में चमडा रंगा जाता था, उसमें से लोटा भर कर जल ले आई परन्तु पानी को देखकर उस भक्त ने वह पानी नहीं पिया लेकिन एक दूसरा श्रद्धावान भक्त भी वहां था, उसने वह पानी पी लिया, पानी पीते ही उसे भगवान की दर्शन हो गये और वह प्रसन्नचित्त होकर नाचने लगा। पानी पीते समय कुछ पानी उसके कपड़ों पर भी गिर गया था उसका वह कपड़ा लेकर अन्य लोग भी पानी में निचोड़-निचोड़ कर पीने लगे जो भी पीये उसे ही दर्शन हो जाये और वह नाचने लगे। कुछ समय पश्चात् वह व्यक्ति फिर रविदास के पास आया उसे अपनी भूल अब समझ में आ गई थी परन्तु तब रविदास कहते है – वह पानी मुलतान गया अब फेर नहीं आवना अर्थात् वह लड़की तो ससुराल गई उनकी लड़की का ससुराल मुल्तान शहर में था।
गुरु के वाक्य को अनसुना करने पर ही वह भगवद् दर्शन से वंचित रह गया अन्य दूसरों ने श्रद्धा युक्त होकर दर्शन पा लिये और आनन्द युक्त हो गये। गुरु से मिलो तो मन की पवित्रता से मिलो जिससे स्वयं गुरु तुम्हारे हृदय पटल पर छा सकें। कहावत है कि मन चंगा तो कठोती में गंगा अर्थात् यदि मन निर्मल है तो कठोती (बर्तन-जिसमें जूते सिलने वाला चमड़ा भिगोने के लिये पानी रखते हैं) में भी गंगा के दर्शन हो जाते है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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