संकल्प पूर्वक दृढ़ निश्चय के साथ क्रिया विशेष द्वारा जो अनुष्ठान किया जाये उसे व्रत कहा जाता है। शास्त्रों में जिन व्रतों के बारे में वर्णन है वे सब किसी न किसी ऋषि, महापुरूष अथवा साधकों द्वारा किये गये अनुष्ठान ही है। तथा जो अभीष्ट फल उन्हें प्राप्त हुये उसका गुणगान उन्होंने व्रत कथाओं में किया है।
किसी भी व्रत अनुष्ठान करने से पहले दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। व्रत विधानों का वैज्ञानिक आधार पर विवेचन करें तो यह व्रत पर्व मनुष्य की देह तथा मन पर प्रभाव डालते है तथा बुद्धि को शुद्ध व प्रखरता की ओर अग्रसर करते है। व्रत, साधना, अनुष्ठान पूर्ण होने पर मनुष्य का आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक कल्याण होता है।
आधिभौतिक लाभ- मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह की वृत्ति होने के कारण वह पाचन शक्ति से अधिक भोजन कर लेता है यह अधिक किया हुआ भोजन शरीर में न पच कर पेट में बीमारियों को उत्पन्न करता है। व्रत के दिन हम जो अल्प आहार के नियमों का पालन करते है उससे हमारे पेट के पाचन तंत्र को विश्राम मिल जाता है तथा जो अपच भोजन पेट में बचा रहता है वह पच कर शरीर स्वस्थ होता है।
आधिदैविक लाभ- नित्य, नैमित्तिक, काम्य – ये तीन प्रकार के व्रत होते है। नित्य शरीर की शुद्धि के लिये अल्प मात्र में भोजन किया जाता है और देह पुष्टवान बनी रहती है। नित्य व्रत वह है, जिसके न करने से दोष लगता है जैसे कि एकादशी व्रत। पापों के प्रायश्चित स्वरूप उनकी शांति हेतु उनके निमित्त जो व्रत किया जाता है साथ ही संकल्प के साथ पुनः पाप न हों वे व्रत नैमित्तिक व्रत कहलाता है। अर्थात् यह व्रत किसी विशेष फल की प्राप्ति के लिये किया जाता है।
किसी विशेष तिथि में अनुष्ठित व्रत जैसे शिवरात्रि, जन्माष्टमी, नवरात्रि, वट सावित्री व्रत आदि को ‘काम्य व्रत’ कहा जाता है। इस भौतिक युग में अधिकतम काम्य व्रत का प्रलचन है इस व्रत को करने से इस लोक में तथा परलोक दोनों में कामना पूर्ति का भाव साधक में विद्यमान रहता है। इन सभी व्रतों में इन्द्रियों पर संयम तथा अनेक प्रकार की तपस्याओं का नियम है, ये तप व संयम निष्काम भाव से अनुष्ठान रूप में पूर्ण होने पर विभूतियों को प्रदान करता है।
आध्यात्मिक लाभ- बाहरी एवं आन्तिरिक शुद्धि इन्द्रियों के संयम, यम, नियम, ब्रह्मचर्य, सदाचार, सात्विक आहार विचार ये सब व्रत के प्राण है। इन सब का पालन किये बिना व्रत सफल नहीं होते साथ ही ये सब अनुष्ठान आध्यात्मिक उन्नति करने में भी सहायक होते है। इससे आत्मा का परिष्कार होता है। वास्तव में व्रत का अर्थ भूखे रहना नहीं होता, आहार पर संयम करना होता है जिससे शरीर हल्का रह सके तथा साधना, भजन में सुविधा पूर्वक आसन पर बैठने की सामर्थ्य का विकास हो सके क्योंकि अत्यधिक भोजन करने पर आलस्य की स्थिति अधिकतम रहती है। अत्यधिक कम खाद्य पदार्थ लेने के साथ-साथ साधना करने पर शारीरिक कमजोरी का भी भय रहता है। अतः साधकों को एक समय का भोजन करना उचित रहता है।
मनुष्य शरीर को प्राप्त करने का उद्देश्य है परमात्मा की प्राप्ति करना। जिसके लिये शास्त्रों में वर्णित सभी विधियों में मनुष्य को अपना आचार-विचार शुद्ध रखना अनिवार्य है। मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मों से उसके भाव प्रभावित होते है अतः अपने अन्तः करण की शुद्धि के लिये तामसिक पदार्थों का त्याग तथा सात्विक आहार का सेवन कर मन व इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का व्रतोपवास एक सरल उपाय है।
मनुष्य अपने जीवन का हर क्षण उल्लास पूर्वक मना सकें यही लक्ष्य हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों का रहा है तथा हम इन उल्लास के क्षणों का अकेले ही आनन्द उठा सके यह उचित नहीं समझा गया। तथा किसी विशिष्ट तिथि, दिन आदि को पर्व के रूप में सामूहिक रूप से उल्लास पूर्वक, आनन्द पूर्वक मनाने का चलन भारतवर्ष में मुख्यतः रहा है। इन्ही पर्वों को धर्म से तथा व्रत उपवासों से जोड कर आपसी सौहार्द बढ़ाकर अधिक मंगलमय बनाने का एक विशिष्ट प्रयास किया गया। जो पूर्णतः सफल भी है।
अधिकतम जन साधारण में काम्य व्रत का प्रचलन है यह व्रत किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिये किये जाते है जैसे – पति के कुशल क्षेम के लिये किया गया करवा चौथ व्रत, वर-वधु की प्राप्ति के लिये गौरी व्रत, पुत्र की आयु वृद्धि के लिये अहोई व्रत तथा ग्रह शांति हेतु आदि अनेक व्रत किये जाते है। व्रत के अनेक प्रकार हैं। यह सब अपने मानसिकता व सामर्थ्य अनुसार किये जाते है। लेकिन व्रत रखने के कुछ नियम भी होते है जो व्रत करने वाले को पालन करने ही चाहिये।
इस मृत्यु लोक में अत्यधिक लोक प्रिय व प्रसिद्ध व्रत का प्रचलन श्रीसत्यनारायण पूर्णिमा व्रत का ही है जो सभी मनुष्यों के लिये कल्याणकारी है। इस व्रत के बारे में भगवान श्री हरि ने स्वयं नारद से कहा था – हे वत्स! आज तुम्हें मैं एक ऐसा व्रत बतलाता हूं जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है और महान पुण्यदायक है। तथा मोह के बन्धन को काटने वाला है। वह है श्री सत्य नारायण व्रत – इस व्रत को विधि विधान पूर्वक करने पर मनुष्य सांसारिक सुखों को भोग कर परलोक में मोक्ष को प्राप्त करता है।
सत्य नारायण अर्थात् नारायण ही सत्य है, नारायण सत्य में ही प्रतिष्ठित है सत्य में ही सारा जगत समाया है सत्य के प्रभाव से ही देवता अमरत्व प्राप्त करते है सभी कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है।
श्री सत्य नारायण व्रत के समय उपवास रखना भी बड़ा महत्वपूर्ण है। उपवास के समय में साधक को हृदय में यह धारणा प्रबल होनी चाहिये कि आज भगवान मेरे पास ही विराजमान है और इसीलिये हमे सभी प्रकार से पवित्रता का ध्यान रखना चाहिये तथा श्रद्धा से भगवान का पूजन कर उनकी मंगलमय कथा का श्रवण करना चाहिये।
यह व्रत प्रत्येक माह की पूर्णिमा को किया जाता है अथवा जब भी किसी दिन मनुष्य का मन भगवान के प्रति भावों से भरा हो उसी दिन किसी सत्यनिष्ठ, सदाचार युक्त ब्राह्मण को बुलाकर अपने परिवार तथा संगी साथियों को एकत्र कर यज्ञवेदी एवं सुंदर मंडप की रचना करायें तत्पश्चात् मंगल पाठ, स्वस्ति वाचन, गणेश गौरी पूजन, कलश स्थापन, वरूण, नव ग्रह, पंचलोकपाल, दस दिक्पाल आदि देवताओं का आवाहन पूजन के पश्चात् भगवान श्रीसत्यनारायण की (स्वर्ण, चांदी, ताम्र, कांस्य, पीतल, मिट्टी, शालिग्राम शिला अथवा फोटो आदि की मूर्ति में श्रद्धा के साथ भगवान नारायण का आवाहन न्यास आदि कर उनका षोडशोपचार अथवा यथा शक्ति पूजन करें तथा यथा संभव मंडप को केले वृक्ष के स्तभों से सजाकर भगवान को खूब अलंकृत करें।
सायंकाल में यह व्रत पूजन सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। पूजन के पश्चात् कथा श्रवण करें तथा फिर यज्ञ करें तथा यज्ञ के पश्चात् दान आदि कर प्रसाद ग्रहण करें तथा सभी में वितरण करें। रहस्य – इस व्रत कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है इस व्रत पूजन को करने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को है चाहे वह धनी हो या सामान्य व्यक्ति, ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, अमीर हो या गरीब, स्त्री हो या पुरूष अथवा वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो इस व्रत को सभी कर सकते है। भगवान सभी के है और सद्गुरु रूप में है।
परिणाम यदि देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि जिसने सत्य का आचरण किया उनके सभी कार्य सिद्ध हो गये और इस व्रत कथा को सुनने वालों के भी सौभाग्य जाग गये तथा उन्हें आरोग्य, सन्तान, धन आदि की कोई कमी नहीं रही। लेकिन असत्य का आचरण करने वालों का सर्वथा विनाश हो गया।
यह सत्य की कथा सुन कर ही मनुष्य में प्रेम और श्रद्धा के भाव से सत्य के प्रति विश्वास दृढ़ होता है जिसका आचरण कर मनुष्य इसी जीवन में सुख को भोग कर परलोक में मोक्ष का पात्र बनता है हमें अपने जीवन में सत्य का आचरण करना चाहिये।
सामान्य रूप में सप्ताह में एक दिन अवश्य ही व्रत रखना चाहिये और नियमित रूप में जो भोजन ग्रहण करते है उतना ही व्रत के दिन पूर्ण देव स्वरूप प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से जीवन में सुस्थितियां निर्मित होती है और साथ ही देह का शुद्धिकरण भी होता है।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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