मन व इच्छाओं पर नियंत्रण रखना अपरिग्रह है। जहां इच्छा है वहां संग्रह की इच्छा संजोये होते है अर्थात् परिग्रह है। जहां इच्छाओं का त्याग है वहां परिग्रह है अर्थात् संग्रह करने का भी त्याग है।
अपरिग्रह का पालन न करने वाला मनुष्य अहंकार तथा मोह जाल में फंस जाता है। आज कल सभी की एक ही आदत बनी हुई है लेने की और लेने की, अगर नहीं मिला तो कुछ भी करके ले ही लेना है हम दूसरों को कुछ देना नहीं जानते तो दूसरा भी हमें क्यों दें उसे भी तो लेना ही आता है। अतः यहां से हिंसा का आरम्भ होता है और यह बुराई केवल अभी हाल के समय से ही नहीं सदियों पुरानी है हम सब को यह आदत बनी है तथा समाज में ही नहीं राष्ट्रों एवं अन्य देशों में भी यह बुराई बनी रहती है।
दरिद्रता का कारण यही समस्या है क्योंकि जिस समाज और देश में सब लेना ही चाहते है और देने के समय छुप जाते है तो वह समाज, वह देश सुखी, संतुष्ट व समृद्ध कैसे हो सकता है? हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसका उपाय बताया है ईशोपनिषद का प्रथम मंत्र- ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ अर्थात् जो कुछ तेरे पास है उसका त्याग पूर्वक भोग कर उसमें आसक्ति न रख।
आगे कि मंत्र में- ‘मा गृधः कस्यास्वित धनम्’ अर्थात् गिद्ध के समान दूसरों की धन सम्पत्ति पर दृष्टि मत रखों। धन किसी का नहीं है, यह न तेरा है न मेरा है, जो तेरे पास है उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिये। कठोपनिषद में तो इस समस्या के उपचार में नचिकेता अपना आत्म बलिदान तक दे देते है।
नचिकेता के पिता वाजश्रवा अपने आश्रम में अपना सर्वस्व दान देने की घोषणा करते है वहां पर दान लेने वालों की अपार भीड़ लगी हुई है तथा सभी यह सोच रहे है कि ऋषि वाजश्रवा अपना सब कुछ लुटाने के लिये बैठा है। और बालक नचिकेता सत्य का अनुसंधानी है वह अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से जान लेता है कि उसके पिता सब कुछ देने के साथ-साथ उनके अंदर की दूसरी कामना जगत में प्रसिद्धि प्राप्त करना है कि वाजश्रवा सर्वस्व दान कर दिया, लोग उसे महादानी कहे। नचिकेता जानते है कि यह सर्वस्व देना न होकर इस लोक में कीर्ति प्राप्त करने की इच्छा है तथा परलोक में इस दान के बदले में और अधिक लाभ प्राप्त करने का उद्देश्य नचिकेता ताड लेते है।
उसके पिता कीर्ति पाने के लोभ में दान में दी जाने वाली लूली-लंगडी, सूखी, बूढ़ी, गायों को दान में दे रहे हैं जिन्हें देने का कोई औचित्य ही नहीं है, इन दूध न देने वाली गायों को दान में दे कर दान लेने वालों को भी इनसे क्या लाभ होगा? और आश्चर्य की बात तो ये है कि लेने वाले ब्राह्मण भी कुछ प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं, वे भी लालचवश, संग्रह की वृत्ति के कारण बुद्धि हीन हो गये है।
और इस दान समारोह में दान लेने वालों की भीड है तो दर्शकों की भी बहुतायत में उपस्थिति है लेकिन कोई भी इस तरफ ध्यान नहीं दे रहा है न ही कुछ बोल रहा है। किसी को कोई मतलब नहीं, लेने वाला सोच रहा है कि मिल जायें कुछ भी। तथा देने वाला सोचता है आज ही वह समय है जब महादानी कहलाऊंगा। और इन सभी के मध्य अकेला नचिकेता ही है जो इन सबको सबक सिखाने के लिये उपाय करता है। उसके पिता जब सब कुछ दान में दे देते है तथा उनके पास कुछ भी नहीं बचता तो वह उस अपार भीड के सामने अपने पिता से कहते है –
अर्थात् हे पिताजी! आप मुझे किसे देंगे? और ऋषि को अपना पुत्र थोडे ही दान करना था। वे चुप रहें लेकिन नचिकेता इस बात को समझ गये और वह बार-बार पूछने लगे कि मुझे किसे देंगे? सब के सामने बार-बार पूछने पर ऋषि वाजश्रवा उत्तेजित हो गये और उत्तेजित अवस्था में बिना सोचे समझे बोल पडे ‘जा!’ तुझे यम को देता हूं।
ऐसा कहने के पश्चात् ऋषि एवं अपार भीड को बोध हुआ कि यह क्या हो गया क्योंकि नचिकेता ने अपना आत्मबलिदान दे कर सब की आंखे खोल दी। महाभारत का उदाहरण सभी जानते है कि दुर्योधन की परिग्रह की वृत्ति के कारण ही युद्ध हुआ था भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों के लिये पांच गाव मांगने पर भी दुर्योधन ने कहा था- हे केशव! तुम पांच गांव देने की बात करते हो परंतु मैं तो सुई की नोक के बाराबर जगह भी पाण्डवों को नहीं दे सकता। युद्ध के बिना मैं कुछ नहीं दूंगा इस परिग्रह की वृत्ति के कारण ही युद्ध हुआ।
आवश्यकता अनुसार वस्तुओं के उपयोग करने की अनुमति शास्त्रें में दी गई है लेकिन साथ ही इच्छाओं का त्याग करने की भी वे आज्ञा देते है। वस्तुओं के प्रति मोह और वस्तुओं का अधिक संग्रह मन को विचलित कर शांति भंग करता है, जिससे साधक साधना नहीं कर पाता। वस्तुओं का मर्यादित संग्रह या आवश्यकताओं को पूरा करना बुरा नहीं है, लेकिन कामनाओं के पीछे भागना और दिन-रात बेचैन रहना अनुचित है हमारी आवश्यकतायें तो सीमित होती है लेकिन कामनायें असीमित होती है। और असीमित को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता सिवाय दुःख पाने के।
आज के तकनीकी युग में विभिन्न प्रकार के सुख-सुविधा पूर्ण उपकरणों से बाजार पटा हुआ है जहां पर दृष्टि घुमाकर देखें तो मन वस्तुओं को पाना एवं संग्रह करना चाहता है। चाहे वह तत्काल उपयोगी हो अथवा नहीं तथा उसको रखने के लिये घर में जगह भी हो या नहीं लेकिन चमक-दमक, आकर्षण एवं शेखी अथवा दूसरों का देखा-देखी अनेक लोग कुछ वस्तुओं को क्रय करने के लिये लालायित हो उठते है। भले ही उन्हें उसके लिये कर्ज उठाना पडें। संग्रह की वृत्ति इतनी अधिक होती है कि किसी भी उपाय से व्यक्ति उस वस्तु को पाना चाहते है अर्थात् जो वस्तुयें हमारे पास है उसका सुख नहीं उठाकर, जो वस्तु हमारे पास नहीं है उसमें सुख तलाशते है परन्तु जब वह मन चाही वस्तु प्राप्त हो जाती है तो मन उसे छोड कर अन्य किसी वस्तु के प्राप्ति के लिये दौडता है। इसी जाल में फंस कर मनुष्य जीवन भर सुख की तलाश में भटकता हुआ दुःख पाता है।
सामान्यतः हम देखते है कि कुछ व्यक्तियों में वस्तुओं के प्रति गहरी आसक्ति होती है वे घर में फटे-पुराने, टूटे-फूटे सडे-गले, अनुपयोगी सामन तक को बाहर नहीं फेंकते तथा न ही किसी अभाव ग्रस्त को देते है। वरन् घर को ही कबाडखाना बना कर रखते है यह हमारी संग्रह करने की वृत्ति के प्रति मोह का परिणाम है।
मनुष्य इच्छाओं के कारण संसार में दौड लगा रहा है। वह रात-दिन प्रतिस्पर्धा कर रहा है सुख पाने के लिये। लेकिन उसे सच्चा सुख कहां मिल पाता है। सच्चा सुख तो स्वयं के भीतर ही है जड़ वस्तुओं के संग्रह में नहीं वरन् अपनी चेतन आत्मा को जानने में है। सद्गुणों को विकसित करने में है।
वस्तुओं के साथ-साथ विचारों का अपरिग्रह भी साधक के लिये अनिवार्य है। बाहर से आने वाले विचार परिग्रह है तथा भीतर से शांत होते विचार अपरिग्रह है। प्राचीन समय में आजकल की तरह इतनी वैज्ञानिक तकनीकी वस्तुओं का अभाव था लेकिन फिर भी मनुष्य स्वस्थ एवं प्रसन्न था। इस सब का कारण अपरिग्रह ही था। अपरिग्रह की साधना करने से साधक में मौलिक सरलता सजीव हो उठती है, वह किसी भी वस्तु को अपना नहीं मानता और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेता है, तभी उसे अपनी कमियों का पता चलता है और वह उन्हें दूर करने का प्रयास करता है उसमें विनम्रता, धैर्य, करूणा एवं विवेक का जागरण होने लगता है अन्तःकरण पवित्र होता है और अहंकार का नाश होता है।
अपरिग्रह के पालन से मन शुद्ध पवित्र और दृढ़ संकल्प वाला बन जाता है जिससे साधक की जीवन धारा बदल जाती है।
इन सब बातों का तात्पर्य यह नहीं है कि हम संग्रह और उपयोग से बचने के लिये अकर्मण्य और आलसी होकर बैठ जायें अथवा दूसरों की दया पर जीवित रहें, ऐसा नहीं है। जब तक जीवन है, तब तक चाहे वह योगी है या गृहस्थ स्वयं एवं स्वयं के परिवार की मूल भूत आवश्यकता अनुसार अपनी सामर्थ्य व शक्ति से कुछ न कुछ कर्म सदैव करते रहना चाहिये और प्रगति की ओर अग्रसर होने का प्रयास करते रहना चाहिये और यह ध्यान रखें कि अपरिग्रह ही सुख का आधार है। जो साधना में सफलता की कुंजी है।
निधि श्रीमाली
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