यदि तुम स्वयं को अपने शरीर से पृथक करके अपनी चैतन्य रूपात्मा में ध्यान मग्न हो कर स्थित हो जाते हो, तो अभी इसी क्षण सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर सुखी व शांति प्राप्त कर लोगे।
ये बार-बार का जन्म लेना तथा हर बार अपने मोक्ष के लिये प्रयास करना, तप करना, साधना करना, कब तक चलेगा, कितना समय लगेगा? यह सवाल एक जिज्ञासु के मन में उठना स्वभाविक है। जनक जिज्ञासु है, जनक शिष्य भी हैं। उनका समर्पण गुरु के प्रति हो चुका है, उनके प्राण गुरु के प्राणों के साथ जुड़ चुके हैं। वह गुरु से कोई भी प्रश्न स्पष्ट रूप से नहीं पूछते।
केवल उनके मन में विचार उठते हैं, इन प्रश्नों की भाव तरंगों को गुरु पकड़ लेते हैं तथा जनक को समझाते हैं कि अभी इसी पल तुम्हारे सभी दुःखों का अन्त हो सकता है। इस जगत में, इस सांसारिक मोह माया में अनेक-अनेक वर्ष अनेक-अनेक जन्म व्यतीत कर दिये हैं। इन सबसे छुटकारा पाने के लिये तुम्हें कोई हिसाब-किताब लगाने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इस शर्त को पूरा कर दों तो अभी इसी क्षण बन्धन मुक्त होकर सुखी हो जाओगे। शर्त यह है कि तू अपने शरीर को मत मान। यह निश्चय कर लें कि तू शरीर नहीं है और चैतन्य रूपात्मा में स्थित हो जा। उसी क्षण में तेरे सब विकार समाप्त हो जायेंगे। तू परमात्मा को प्राप्त कर लेगा।
फिर आगे पाने को बचेगा भी क्या? इसी को पाने के लिये तो तुमने बहुत से जन्मों की यात्रा की है। यह सब छट-पटाहट उसको पाने के लिये ही है। हजारों-हजारों वर्ष तप साधनायें की है। यह भटकना, यह बन्धन उसे पाकर ही समाप्त होता है। तुझे अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन हो जायेंगे, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण तो सभी देह के साथ जुडे़ हैं। आत्मा के साथ नहीं और देह नश्वर है, आत्मा ही अमर है। आत्मा की ही यात्रा है, जो परमेश्वर को पाने के लिये बार-बार देह का सहारा लेती है। आत्मा का ही परमात्मा से मिलन होता है।
तुम किसी भी वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के नहीं हो तथा न ही किसी आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) के रहने वाले हो। तुम इंद्रियों के भी अधीन नहीं हो, तुम किसी भी प्रकार के संग से परे हो, बिना किसी नाम (रूप) के इस जगत के साक्षी हो।
तुमने अलग-अलग जन्मों में भिन्न-भिन्न वर्णों में जन्म लिया कभी तुम ब्राह्मण बने, कभी वैश्य, कभी क्षत्रिय, कभी शूद्र लेकिन उन सब का अन्त हो गया। वे एक शरीर थे, लेकिन उनमें जो आत्मा थी। वह आज भी तुम्हारी ही है, शरीर अमर नहीं है। आत्मा ही अमर है, तुमने अलग-अलग आश्रमों का भोग किया। कभी ब्रह्मचारी बने तथा किसी जीवन में गृहस्थ तो किसी में वानप्रस्थी तो कभी संन्यासी जीवन जीया। वो सब भी समाप्त हो गया, लेकिन आत्मा ही बची रही।
इन्द्रियां भी भूल कर जाती हैं, स्वाद, स्पर्श, सुगंध, दृष्टि तथा श्रवण करने की अपनी-अपनी अवस्थायें है। इन से प्राप्त होने वाले अनुभव भी सत्य नहीं हो पाते, क्योंकि इन्द्रियों को मनुष्य अपने अधीन कर लेता है। जैसे वह चलाये तो वह चलती है। अतः तुमने अनुभव किया होगा कि तुमने भिन्न-भिन्न जन्मों में अलग-अलग वर्णों का, आश्रमों का भोग किया है। तुम किसी एक वर्ण के नहीं हो, न ही एक निश्चित आश्रम के रहें हो। सब कुछ बदल जाता है, नहीं बदलती तो केवल तुम्हारी आत्मा। तुम अपनी आत्मा से इन सब को साक्षी भाव से देखो और जानकर सुखी हो जाओ।
यह सुख-दुःख, धर्म-अधर्म का अनुभव तथा इनकी व्याख्या हमारे मन ने निर्मित किये है। ये तेरे नहीं हैं, तू कर्मों का करने वाला (कर्ता) भी नहीं है, न ही उन कर्मों को भोगने वाला ही, तू सदैव ही मुक्त है।
धर्म और अधर्म के विषय में यह निर्धारित नहीं किया जा सकता है कि धर्म किसे कहें और अधर्म किसे क्योंकि कोई कार्य किसी एक की दृष्टि में धर्म हो सकता है, लेकिन वही कार्य दूसरे की दृष्टि में अधर्म कहलाता है। कुछ कार्यों को इस देश में अधर्म कहा जाता है, तो दूसरे देशों में उसी कार्य को धर्म की संज्ञा दी जाती है। सोच कर देखो तो पाओगे धर्म-अधर्म तुम्हारे नहीं अपितु मन के माने धर्म है।
मन जो इच्छा करता है, वही कार्य हम करते हैं, जो करते हैं, उसी के अनुसार भोगते हैं। सुख-दुःख भी धर्म-अधर्म के समान ही है। यह भी समय (काल) और जगह के बदलने पर बदलते रहते हैं। धर्म-अधर्म, सुख-दुःख, कर्ता-भोक्ता आदि जो तुम्हारे मन के धर्म हैं, उन्ही को तुमने अपना स्वरूप मान लिया है जब कि वास्तव में ऐसा नहीं है। तू सदैव सर्वदा से ही मुक्त है, अर्थात् ईश्वर तुझ में सदैव मौजूद है। तू व्यर्थ ही भटकता है, उसे याद कर, स्मरण कर वह तेरे अन्दर ही प्रकट हो जायेगा। यह बात शास्त्रों में भी है और मेरा स्वयं का अनुभव भी। तेरा मोक्ष तो पहले से ही तय है। तू एक छोटा सा प्रयास कर लें, अपने स्वरूप को जान लें और सुखी हो जा। महर्षि का आशय यह है कि ईश्वर तो सर्व व्यापक सत्ता है, जो सभी जगह व्याप्त है।
सभी का दृष्टा एक ही है, तुम सब प्रकार से सदैव मुक्त हो। तुम्हारे बन्धन का कारण यही है कि तू वह दृष्टा होते हुये भी किसी दूसरे को दृष्टा मानते हो।
अष्टावक्र दृष्टा (साक्षी) बनने के लिये कहते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हारी समस्या ही यही है कि तुम स्वयं को दृष्टा न मानकर दूसरों को दृष्टा मानते आये हो। तुम स्वयं को कर्ता मानते आये हो और जो करता है वह भोगता है और यहीं से सुख-दुःख, वर्ण आदि का आरम्भ होता है। तुम स्वयं को जानो, तुम हो तो परमेश्वर है। अगर जीव न हो तो परमेश्वर की क्या सार्थकता? स्वयं को दृष्टा जान, समझ और अनुभव करने वाले के लिये मुक्ति सदैव से है।
तू अहंकार से युक्त होकर मैं करना वाला हूं यह विचार रखता है। मानो अहंकार रूपी काले सर्प ने डसा हो। मैं कुछ भी करने वाला नहीं हूं। इस अकर्तापन के अमृत को विश्वास पूर्वक पीकर तू सभी दुःखों से मुक्त हो जा अर्थात् अपने अन्तः करण में सुख की अनुभूति कर परमानन्द को प्राप्त कर लें।
गुरुदेव ने इससे पहले सांसारिक विषयों को विष कहा था और पांच गुणों को (क्षमा, दया, आर्जव, दया, संतोष) अमृत के समान बताया था। लेकिन वहां पर एक शर्त को पूरा करने के लिये कहा गया था। यदि तुम ऐसा चाहते हो तो ऐसा करना ही होगा। यदि तुम शर्त पूरा नहीं करोगे तो तुम जो पाना चाहते हो वह तुम्हें नहीं मिलेगा और वहां गुरुदेव ने विष के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं दी कि वह कैसा विष है तथा कहां पर उत्पन्न होता है। किस प्रकार से ज्ञान से अज्ञान की ओर ले जाता है। उसी के बारे में यहां बताते हैं कि अहंकार रूपी काले सर्प ने तुझे डस लिया है। काला रंग तमो गुण का द्योतक है और डसना विष को मस्तिष्क में पहुंचाने का साधन है। जिससे विवेक खो जाता है और ‘मैं’ रूपी अहंकार मस्तिष्क में बैठ जाता है और जीव स्वयं को मैं करने वाला हूं ऐसा मानता है।
सांसारिक विषयों को लेकर व्यक्ति में जब मैं (अहं) का प्रादुर्भाव होता है। यदि धनवान है तो मैं धनवान हूं, यदि ज्ञानी है तो मैं विद्वान हूं, अधिक चतुर है तो मैं बुद्धिमान हूं। ऐसा अहंकार होता है। यह सभी चीजें पुरूषार्थ द्वारा प्राप्त कर ली जाती है। इसलिये ये सभी वस्तुयें मिट सकती है।
अहंकार ग्रस्त मनुष्य स्वयं को कर्ता मानता है लेकिन कभी-कभी ऐसा अनुभव भी करता है कि उसने जिस प्रकार से किसी कार्य को करना चाहा है। वह कार्य उसके अनुरूप नहीं हो पाता। अतः कर्तापन केवल अहंकार है और स्वयं को कर्ता सिद्ध करने की अभिलाषा में स्वयं अपनी मूर्खता ही सिद्ध करता है।
बल, धन, बुद्धिमत्ता, ज्ञान पल भर में नकार दिये जाने पर दुःख होता है और अपनी असलियत मालूम पड़ने लगती है। सिकन्दर महान के धन को एक साधु ने नकार दिया, एक स्वयं को बलवान समझने वाला व्यक्ति स्वयं अत्यधिक अहंकार से भरा होता है कि मैं बलवान हूं। परन्तु कुछ समय पश्चात् यदि एक छोटा सा तिनका भी आंख में पड जाये तो उसकी पीड़ा भी उससे सहन नहीं हो सकती तो तिनका भी उससे अधिक बलवान हुआ। महर्षि कहते हैं- यदि कर्तापन का भाव नहीं होगा अथवा मैं कर्ता नहीं हूं का निश्चय मन कर लेगा तो भोगता भी नहीं बनना पडे़गा। क्योंकि जो कर्म किया है, उसका फल अवश्य मिलता है लेकिन जिसने अपने कर्मों को परमेश्वर को अर्पण कर दिया है, तो वह स्वयं को कर्ता न मान कर परमेश्वर को ही कर्ता बनना पडे़गा, तो भोगता भी परमेश्वर ही होगा। वह तो मानता है कि हे प्रभु! मैं कहां इस लायक हूं, मेरी क्या औकात कि मैं कुछ कर सकूं। यह तो तेरी ही कृपा है तू ही सब कुछ करता है, तेरे ही होने से सब कुछ होता है।
क्रमशः अगले अंक में————!
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