एक शास्त्रार्थ में गार्गी ने याज्ञवल्क्य को ललकार कर प्रश्न किया- ‘याज्ञवल्क्य बताओ संसार में कृपण कौन है?
याज्ञवल्क्य ने कहा-
अरे गार्गी, जो व्यक्ति सांसारिक जीवन में जन्म लेकर भी न मरने वाले आत्मा (ब्रह्म) के सम्बन्ध में चिंतन नहीं करता, वही सबसे बड़ा कृपण है। सामान्य रूप से जो रूपये-पैसे की कंजूसी करे, उसे कृपण कहते हैं। पर याज्ञवल्क्य ने कृपण की यही परिभाषा दी है कि-
जिसने संसार में जन्म लिया और आंख मूंदकर संसार से विदा हो गया, जिसका सम्पूर्ण जीवन अंधकारमय रहा हो, जो कभी आत्मोद्धार का चिंतन भी नहीं किया और ना ही आत्म उत्थान का प्रयास, ऐसा व्यक्ति ही घोर कृपण है।
एक कथा के अनुसार, एक दिन महाराज जनक ने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में वे निर्धन और भूख से व्याकुल थे, वे इधर-उधर से मांग कर थोड़े तंडुल इकठ्ठे किये और उसे निर्जन स्थान पर कुछ लकडि़या इकठ्ठी कर जलायी और मिट्टी के टूटे पड़े बरतन में चावलों को पकाने लगे। लेकिन जनक की भूख अपनी सीमाओं को तोड़ रही थी। लकडि़या गीली होने कारण तंडुल पकने में समय लग रहा था, जनक का धैर्य टूट गया। उन्होंने अधपके चावल की हंडिया उतारी और तंडुल को पत्ते पर ठंडा करने के लिये फैला दिया, अभी वे एक ग्रास मुख डालते कि कहीं से भागता हुआ एक सांड़ आया जिसने जनक के अधपके चावलों को रौंदा और मिट्टी में मिला दिया। जनक अपनी दयनीय दशा पर फूट पड़े। आंसुओं की अवनरत धारा बहने लगी। हिचकी बंध गयी। सांस लेना दूभर हो गया। लगा कि प्राण-प्रखेरू उड़ जायेंगे। मूर्छित होकर वे वहीं धरती पर गिर पड़े।
लेकिन यह क्या! सब कुछ बदल गया। नींद खुल गयी, राज भवन की सुकोमल शय्या पर लेटे महाराज जनक का गला रूंधा हुआ था। हाथों से जब आंखों के नीचे स्पर्श किया तो मुख भीगा हुआ था- मानों काफी समय तक रोते रहें हों। शरीर पर उभरे सारे लक्षणों को नियंत्रण करने में महाराज को समय लगा। उठ कर जल पिया। लेकिन फिर रात भर सो न सके। नींद कहां थी। एक ही प्रशन बेचैन कर रहा था, सच क्या है? सच राजा जनक है या फिर भूख से बिलखता, बेहाल जनक?
सुबह उठते ही विद्वानों को आमंत्रित किया गया। सभी के सामने महाराज जनक ने अपना प्रश्न रखा। सभी के अपने-अपने उत्तर थे, लेकिन महाराज को कोई संतुष्ट न कर सका, सच क्या है? जागृत अवस्था या कि स्वप्न? यह प्रश्न महाराज के गले में अटक कर रह गया। बीतते दिनों के साथ बेचैनी भी बढती़ गयी।
एक दिन महाराज जनक के विद्वत् परिषद में जब निस्तब्धता छायी हुयी थी, बारह वर्ष के एक बालक ने प्रवेश किया। आठ स्थानों से टेढ़े बालक को देख सारी सभा में हंसी बिखर गयी, कहीं यह हंसी छिपी थी, तो कहीं स्पष्ट, बालक ने चारों ओर नजर घुमायी और बड़ी विनम्रता से महाराज जनक को सम्बोधित किया, हे राजन मैंने सुना था कि आपकी सभा में विद्वानों-पंडितों को ही स्थान प्राप्त है, लेकिन आश्चर्य! आपके चारों ओर तो चर्मकार ही विराजते हैं? वाणी में गाम्भीर्य था और निर्भयता भी थी। सभा में बिखरी हंसी जड़ बन कर ठहर गयी। समूचे वातावरण में एक प्रश्न सा बिखर गया।
अष्टावक्र ने अपनी बात को स्पष्ट किया, मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, आपके मन में यह प्रश्न जरूर उठा होगा राजन! उठा है, मै जानता हूं, तो सुनें, चर्मकार की दृष्टि चर्म पर होती है। वह उससे आगे की बात सोच भी नहीं सकता। बिल्कुल इसी प्रकार चर्ममयी दृष्टि वाले लोग किसी के नाम रूप को भेदकर, मनुष्य के भीतर अस्तित्ववान, सत् चित् आनन्द स्वरूप का व्याख्यान कैसे कर सकते हैं, राजन, क्या आकाश घट में बंधकर घट सा हो जाता है।
राजन मैं यह सुनकर यहां आया था कि आपका कोई प्रशन है, जिसे लेकर आप अत्यधिक चिंतित हैं और उस प्रश्न का समाधान चाहते हैं, लेकिन मैंने जो कुछ यहां देखा उससे ऐसा लगा मानो आप जिज्ञासु नहीं, बुद्धि का खिलवाड़ पसन्द करते हैं, राजन यह भी एक व्यसन है।
बालक ने उपस्थित विद्वानों के अहम् की परतों को मानों उधेड़ दिया था। मैं आपका आशय नहीं समझा, महाराज जनक ने अष्टावक्र से आग्रह किया।
आपके जिज्ञासा का समाधान कोई तत्वज्ञानी ही कर सकता है, राजन! बुद्धि चातुर्य के भोगों में फंसा व्यक्ति नहीं। जिनकी दृष्टि चमड़ी के रंग, शरीर की सुंदरता और कुरूपता में ही अटकी हुयी है, वे नाम, रूप से परे गुणातीत तत्व के बारे में कैसे ज्ञान दे सकते हैं और जो स्वयं नहीं जानता वह किसी के जिज्ञासा का निराकरण कैसे कर सकता है? तो क्या आपके पास मेरी जिज्ञासा का निराकरण है?
अवश्य राजन्! सत्य के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार तुम करना चाहते है? यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हें सच्चिदानंद स्वरूप में विद्यमान आत्म तत्व का साक्षात् अनुभव कराऊंगा।
अष्टावक्र के निष्ठापरक वाक्यों ने जिज्ञासु जनक की बुद्धि को भेद दिया। हृदय पिघल कर भावाश्रुओं के रूप में प्रवाहित हो उठा। उन्होंने महाराज के सिंहासन से नीचे उतर अष्टावक्र के श्री चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया और कहा- अब मुझे विश्वास होगा कि आप मेरे अज्ञान की निवृत्ति कर, ज्ञानामृत का पान करा कर मुझे अमृतत्व का उपदेश देंगे और मैं जन्म-मरण के चक्र से सदा-सदा के लिये मुक्त हो जाऊंगा।
राजन अवश्य होगा! ज्ञान के बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं है, अभेद ज्ञान ही शोक से पार कर सकता है। आत्म तत्व उपलब्धि के बाद कुछ जाना और पाना शेष नहीं रह जाता। लेकिन इसमें भी कुछ शर्तें हैं राजन! यदि तुम उन्हें पूरा करो तो क्षण भर में तुम धन्य हो सकते हो। मुझे क्या करना होगा क्या न्यौछावर कर सकते हो?
सब कुछ राज्य, वैभव, परिवार और अपना शरीर भी। नहीं! तत्व ज्ञान के लिये ये सब कुछ भी त्यागने की आवश्यकता नहीं है। यदि छोड़ना ही चाहते हो तो विषयों से राग समाप्त करो, राग ही संसार के बंधन का कारण है। जिसकी विषयों से आसक्ति ना, वही मुक्त है। कहते हैं, इसके बाद महाराजा जनक ने अष्टावक्र को सद्गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया।
और जब गुरु ने दक्षिणा मांगी, तो शिष्य ने अपना मन गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। जब मन ही न रहा तो सही रूप से संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, हानि-लाभ, जीवन- मृत्यु, सुख-दुख आदि सभी द्वन्द्व भी तिरोहित हो गये। अन्तः करण शुद्ध हो गया, संसार के विषयों से हेयता हो गयी। विवेक का जागरण हुआ बस इतनी देर में आत्म-तत्व की अनुभूति जनक को हो गयी।
इस प्रकार एक तत्वज्ञानी के सानिध्य में जिज्ञासु राजा जनक विदेह बन गये, देह धारी होते हुये भी देह के समस्त धर्मों से परे, सब करते हुये भी अक्रिय, संसार में बसते हुये भी अनासक्त। इस प्रकार अष्टावक्र ने विदेह राज जनक को जो ज्ञान दिया उसी का ही नाम अष्टावक्र गीता है। यदि हम किसी भी बात को बार-बार किसी लय में कहें तो वह गीत बन जाता है यह आत्मा की तरंगो को झक-झोरने का गीत है, जिसके गुन-गुनाने पर आत्म तत्व की जागृति होती है। अष्टावक्र ने आत्मा के बारे में बार-बार लय के साथ जनक को समझाया है, इसीलिये इसका नाम अष्टावक्र गीता है।
आगे अनेक श्लोकों के माध्यम से गुरु-शिष्य के सम्बन्धों का पूर्ण व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता रहेगा। हम आप सभी पाठकों के सम्मुख उसी अष्टावक्र गीता का सम्पूर्ण लेख पत्रिका के विभिन्न अंको में प्रकाशित करने का प्रयास कर रहें, जिसे सद्गुरु नारायण ने अपने प्रवचनों के माध्यम से आप सभी के समक्ष रखा है। पत्रिका परिवार का यही प्रयास सदा से रहा है कि हम सद्गुरुदेव के विचारो, उनके चिंतन को साकार रूप दे सकें, उसी क्रम में यह लेख आपके समक्ष।
राजा जनक ने अष्टावक्र से पूछा- हे प्रभो! ज्ञान किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? मुक्ति किस प्रकार होगी? वैराग्य किस प्रकार मिलेगा? यह आप मुझे समझायें। अष्टावक्र- भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र माना गया है, गुरु ज्ञान की मूर्ति होता है। जब शिष्य-गुरु के चरण कमलों में बैठ कर अध्यात्म के बारे में प्रश्न करता है, तब वहां पर अलौकिक घटना घटित होती है।
शिष्य के अंदर अध्यात्म की जिज्ञासा की दहकती ज्वाला को केवल और केवल गुरु ही शांत कर सकते हैं और गुरु भी ऐसे जिज्ञासु शिष्य को पा कर स्वयं को सार्थक मानते हैं।
ऐसी क्रिया में गुरु और शिष्य दोनों ही धन्य-धन्य हो जाते हैं। राजा जनक ने सत्संग का श्रवण किया है तथा शास्त्रों का भी विधिवत मनन किया है। इसीलिये उनका प्रथम प्रश्न ज्ञान के बारे में। दूसरा प्रश्न मुक्ति के बारे में। इससे यह पता चलता है कि उनकी अभिलाषा सांसारिक विषयों के ज्ञान के प्रति नहीं है। वह तो उस ज्ञान की बात करते हैं, जिसके बाद जन्म-मृत्यु का झंझट ही समाप्त हो जाता है। वह जानते हैं कि वैराग्य, ज्ञान के बिना नहीं आ सकता। इसीलिये उन्होंने तीसरे प्रश्न में वैराग्य के बारे में पूछा है। तत्व जिज्ञासु को अपने सद्गुरु से ऐसे ही प्रश्न पूछने चाहिये। ये प्रश्न ही वास्तविक प्रश्न है।
क्रमशः अगले अंक में—————-!
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