क्योंकि सद्गुरुदेव निखिल ने अपने प्रवचनों में जिस 25 जन्मों के साक्षी होने की बात कही है, वो हमारे प्राणवत् सम्बन्धों का है। यह शरीर तो हर एक जन्म में बदल जाता है, परन्तु प्राणवत् सम्बन्ध सदैव जीवन्त रहते हैं, आवश्यकता है, हमें उन प्राणवत् सम्बन्धों को जाग्रत कर धारण करने की। आज जब मौलिक आधार पर संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थ परक, स्वयं के हित-चिंतन से ग्रस्त हैं, तब ऐसे समय में आवश्यकता है, कि हम अपनी प्राणवत् चेतना को जाग्रत कर गुरु के प्राणवत् चेतना से सम्पर्कित हो सके।
सत्य तो यह भी है कि गुरु के सिवाय संसार के सभी सम्बन्ध तुच्छ और निष्प्राण हैं, परन्तु आज के समय में सामान्य व्यक्ति इन बातों को सरलता से स्वीकार नहीं कर पाता। जबकि गुरु के सिवाय किसी में भी इतनी समर्थता नहीं होती कि वह हमारे भौतिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की समस्याओं का समाधान कर सके।
गुरु प्राण स्थापन साधना, तो शिष्य के जीवन की, साधक के जीवन की वह सर्वोच्च निधि है, जिसकी अभिव्यक्ति कुछ शब्दों में करना संभव नहीं है। जिसके माध्यम से साधक के मनोकामनाओ के भण्डार इस प्रकार भरते चले जाते हैं, कि उसे ये अनुभव भी नहीं होता और जब वह किसी वस्तु की कामना करता है, तो पीछे मुड़कर देखने पर आश्चर्यचकित रह जाता है, कि उसके पास तो भण्डार के भण्डार पड़े हैं। यद्यपि गुरु साधना का प्रथम पुष्प तो विरत्तिफ़, वेदना, विरह और तनाव होता ही है, परन्तु सत्य तो यह है, कि जो इस पीड़ा और तनाव के परीक्षा काल को धैर्यता पूर्वक व्यतीत कर लेता है। उसे ही तो बाद में वह सब कुछ प्राप्त हो पाता है, जिसको प्राप्त करना ही उसके जीवन का लक्ष्य है। यह साधना शिष्यो के जीवन का आधार है, जिसके बल पर खड़े होकर उसके जीवन का निर्माण होता है।
इस साधना द्वारा शनैः शनैः साधक के अन्दर गुरुदेव की समस्त शक्तियां स्वतः ही उतरने लगती हैं, आवश्यकता है तो धैर्य, संयम और श्रेष्ठ चिंतन के साथ उच्चतम श्रद्धा की। इस साधना को गुरुदेव के सन्यास आश्रम में प्रवेश (14 नवम्बर) के श्रेष्ठतम चन्द्रोदय चैतन्य बेला में सम्पन्न करना चाहिये। जिससे गुरुदेव के सन्यास स्वरूप की चेतना पूर्णतः आत्मसात कर सके अथवा किसी भी 21 तारीख को सम्पन्न कर सकते हैं।
प्रातः स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर पूजा स्थान में शुद्ध पीला धोती पहन कर आसन पर बैठें। सामने चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर सुन्दर गुरु चित्र स्थापित करें। अपने समीप ही साधना सामग्री- निखिलेश्वरानन्द स्थापन यंत्र, गुरु चैतन्य शक्ति माला, पंच मुखी रूद्राक्ष तथा पूजन की सामग्री रखें। गुरु चित्र के सामने किसी थाली में कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर निखिलेश्वरानन्द स्थापन यंत्र को स्थापित करें। यंत्र के दाहिनी ओर रूद्राक्ष को रख कर धूप, दीप प्रज्ज्वलित करें।
प्रार्थना करें-
ऊँ सर्व मंगल मांगल्यं चैतन्यं वरदं शुभम् ।
नारायण नमस्कृत्य गुरु पूजां सकाचरेत् ।।
अपने सामने किसी पात्र में थोड़ा जल लेकर उसमें कुंकुम, अक्षत और पुष्प की पंखुडि़यां मिला लें, उसके बाद उसमें सभी तीर्थों का आवाहन करें-
ऊँ गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्दु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से ढक दें तथा निम्न मंत्र बोलते हुये सभी दिशाओं में अक्षत छिड़कें-
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमि संस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।।
इसके बाद सर्व विघ्नान् उत्सारय हूं फट् स्वाहा का उच्चारण करते हुये दायें पैर की एड़ी से 3 बार भूमि पर आघात करें। तत्पश्चात गुरु को दोनों हाथ जोड़कर निम्न मंत्र का उच्चारण करें-
ऊँ ऐं गुरुभ्यो नमः। ऊँ ऐं परम गुरुभ्यो नमः।
ऊँ ऐं परात्पर गुरुभ्यो नमः। ऊँ ऐं पारमेष्ठि गुरुभ्यो नमः।
गुरु तत्व स्थापन मंत्र का उच्चारण करें-
ऊँ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्री
निखिलेश्वरानन्द देवतायाः प्राणा इह प्राणाः।।
ऊँ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्री
निखिलेश्वरानन्द देवतायाः जीव इह प्राणाः।।
ऊँ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं ह्रौं हंसः श्री
निखिलेश्वरानन्द देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि।।
ऊँ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं ह्रौं हंसः श्री
निखिलेश्वरानन्द देवतायाः वाघ्मनश्च चक्षु श्रोत्र जिह्ना
घ्राण प्राणा इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।।
मातृका न्यास (विनियोग)
दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग करें-
ऊँ अस्य मातृका मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, मातृका
सरस्वती देवता, ह्लीं बीजानि, स्वरा शक्तय: अव्यक्तं
कीलकं सर्वाभीष्ट सिद्धये मातृका न्यासे विनियोगः।
इसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये विभिन्न अंगों को दायें हाथ से स्पर्श करें-
सिर- ऊँ ब्रह्मणे ऋषये नमः।
हृदय- ऊँ गायत्रीच्छन्दसे नमः।
मुख- ऊँ मातृका सरस्वत्यै देवतायै नमः।
मूलाधार- ऊँ हल्भ्यो बीजेभ्यो नमः।
दोनों पैर- ऊँ स्वरेभ्यः शक्तिभ्यो नमः।
सभी अंग- ऊँ अव्यक्त कीलकाय नमः।
गुरुदेव का दोनों हाथ जोड़कर आवाहन करें-
आवाहयामि रक्षार्थं पूजार्थं च मम कुतोः।
इहागत्य गृहाण त्वं पूजां यागं च रक्षये।।
श्री गुरुदेवाय नमः आवाहनं समर्पयामि।
आसन हेतु पुष्प अर्पित करें-
ऊँ सर्वभूतान्तरस्थाय सर्वभूतान्तरात्मने। कल्पयाम्यु पवे
शार्थमासनं ते नमो नमः। इदं पुष्पासनं समर्पयामि नमः।
पाद्यं चित्र के समक्ष दो आचमनी जल चढ़ावें-
यत् भक्तिलेश सम्पर्कात् परमानन्द सम्प्लवः।
तस्मै ते परमेशान पाद्यं शुद्धाय कल्पये।।
इदं पाद्यं समर्पयामि नमः।
अर्घ्यं दुर्वाक्षत समायुक्तं बिल्व पत्रं तथा परम्।
शोभनं शंख पात्रस्थं गृहाणार्घ्यं महेश्वरः।।
अर्घ्यं समर्पयामि नमः।
आचमन मन्दकिन्यास्तु यदवारि सर्व पापहरं शुभम्।
गृहाणाचमनीयं त्वं मया भक्त्या निवेदितम्।।
आचमनीयं समर्पयामि नमः।
स्नान इदं सुशीतलं वारि स्वच्छं शुद्धं मनोहरम्।
स्नानार्थं ते मया भक्त्या कल्पितं प्रतिगृह्यताम्।।
स्नानं समर्पयामि नमः।
वस्त्र मायाचित्र पटाच्छन्नं निजगुह्योप तेजसे।
मम श्रद्धा भक्ति वासं युग्मं गृह्यताम्।।
वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि नमः।
अब गुरु चित्र, यंत्र व पंच मुखी रूद्राक्ष का एक साथ पूजन इस विधान से करें।
तिलक- चन्दन व अक्षत चढ़ायें।
महावाक्योत्थ विज्ञानं गन्धाढयं सुमनोहरम्।
विलेपनं गुरुश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम्।।
चन्दनं समर्पयामि नमः। सकुंकुमं अक्षतान् समर्पयामि नमः।
पुष्प माला तुरीयं वन सम्पन्नं नानागुण मनोहरम।
आनन्द सौरभं पुष्पं गृह्यतामिदमुत्तमम्।।
पुष्पमालां समर्पयामि नमः।
धूप वनस्पति रसोद्भूतः गन्धाढय: सुमनोहरः।
अघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्।।
दीप
ऊँ अग्नि ज्योति ज्योतिर्रग्निः स्वाहा, सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः
सूर्यः स्वाहा अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वचः स्वाहा, सूर्यो वर्चो
ज्योतिर्वचः स्वाहा ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा, श्री
गुरु चरण-पंचदेवोभ्यो नमः दीपं दर्शयामि।
नैवेद्यं शर्कराघृत संयुक्तं मधुरं स्वादुचोत्तमं।
गुरु चैतन्य समायुक्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।
ऋतु फलानि समर्पयामि नमः।
शुद्ध जल से पांच बार आचमन करावें।
ताम्बूल- ताम्बूल(पान) अर्पित करें- ताम्बूलं समर्पयामि नमः।
इसके बाद गुरु चैतन्य शक्ति माला से निम्न मंत्र की एक माला जप सम्पन्न करें-
फिर गुरु आरती व सर्म्पण स्तुति सम्पन्न कर पुष्पांजलि समर्पित करें। इस मंत्र का नित्य एक माला नौ दिवस तक जप करें। नित्य पूजन सम्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है। संभव हो तो उपरोक्त पूजन को हर माह की 21 तारीख को करना चाहिये। साधना समाप्ति के बाद शीघ्र ही साधना शिविर में गुरु से सम्पर्क कर अपने अनुभव अवश्य बतायें।
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