अर्थात् ब्रह्मा संसार में मनुष्यों की रचना करते हैं और विधाता भगवान विष्णु व्यक्ति के ललाट पर उसके भाग्य का लेखन कर देते हैं। तो क्या व्यक्ति अपने जीवन में अपने भाग्य को परिवर्तित नहीं कर सकता? क्या भाग्य सूत्र व्यक्ति स्वयं नहीं रच सकता है। यदि मनुष्य चेतना युक्त है, श्रेष्ठ गुरु का सान्निध्य है तो वह अपनी जीवन लेखनी से अपना भाग्य स्वयं लिख सकता है। ऐसे ही ये महान सूत्र जिसे शिष्य अपने जीवन धर्म में सम्मिलित कर अपना भाग्य निर्माता बन सकता है।
मनुष्य अपने जीवन में निरन्तर दूसरों से तुलना करता रहता है, जो जीवन में अभाव है उनके लिये यही विचार उत्पन्न होता है कि मैं अपने जीवन में इन अभावों से क्यों घिरा हूं? वह देखता है कि कई व्यक्ति अपने जीवन में प्रारम्भ में ही श्रेष्ठ कुल धनवान परिवार में उत्पन्न होकर जीवन की सारी सुख-सुविधायें भोग रहे है, तो उसे ईश्वर की इस लीला पर आश्चर्य होता है कि ऐसा अन्याय ईश्वर के द्वारा कैसे हो सकता है?
ईश्वर के विधान में कही कोई कमी नहीं है, ईश्वर और प्रकृति अपनी ही गति से लीला रचना करते हुये मनुष्य का निर्माण करती है और मनुष्य निर्माण के साथ ही उसमें प्राण आत्मा इत्यादि सभी तत्व समाहित हो जाते हैं।
मनुष्य के जीवन में तीन प्रकार के कर्म होते हैं, जिनके अनुसार ही वह अपने जीवन में गतिशील होता है। ये तीन कर्म हैं।
1- संचित कर्म 2- प्रारब्ध कर्म 3- क्रियमाण
संचित कर्म- जन्म मरण के इस आवागमन में पूर्व जन्म में जिस प्रकार से जीवन जीया है और जिन कर्मों का फल अभी तक नहीं भोगा है वह कर्म संस्कार बन कर इस जीवन में साथ रहते है। संस्कार और जीवन की चारित्रिक विशेषतायें जीवन के प्रथम दिवस से ही अपने आप दृष्टिगोचर होने लगती हैं। प्रारम्भ से ही गुण-दुर्गुण, सोचने-विचारने का ढंग विभिन्न प्रकार की रूचियां-अरूचियां पनपती है। इन सब के पीछे संचित कर्म ही होते हैं।
प्रारब्ध कर्म- प्रारब्ध अर्थात् भाग्य पूर्व जन्म में किये गये अनगिनत कर्मों में से जिन कर्मों को इस जीवन में भोगना निश्चित हुआ है, वह प्रारब्ध अर्थात भाग्य कहलाता है। यह भाग्य-सौभाग्य भी हो सकता है और दुर्भाग्य भी हो सकता है। सौभाग्य की स्थिति में उसे निरन्तर सफलता प्राप्त होती रहती है। जिस कार्य में भी हाथ डालता है उसमें उसे पूर्णता प्राप्त होती है और दुर्भाग्य की स्थिति में परिश्रम करने पर भी असफलतायें ही हाथ आती हैं। इसीलिये कहा गया है कि भाग्य की गति अतिविचित्र है किसे कब सिंहासन पर बिठा दे, किसे कब पाताल पर पहुंचा दे, उच्चता से निम्नता की ओर ले जायें। यह सब प्रारब्ध भाग्य का खेल है। व्यक्ति कहता है कि परमात्मा की लीला है जब कि वास्तव में यह उसकी अपनी ही लीला होती है जो अनेक जन्मों में की हुयी होती है। ईश्वर तो व्यक्ति की सारी लीलायें देखता है, वह तो अपनी लीला का चमत्कार मानव रूप में कर ही चुका है।
क्रियमाण कर्म- वर्तमान जीवन में अपनी इच्छाओं, अपनी धारणाओं, अपने संस्कारों के प्रभाव स्वरूप जो क्रिया करता है, वे कर्म क्रियमाण कर्म कहलाते है। तीनों प्रकार के कर्मो में क्रियमाण कर्म सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि इन्हें मनुष्य स्वयं अपनी इच्छा से विचार बुद्धि ज्ञान के द्वारा सम्पन्न करता है। क्रियमाण कर्म के द्वारा वह अपने आने वाले जीवन की नीव का निर्माण करता ही है, साथ ही साथ पूर्व जन्म में किये गये संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म के दोषों को भी मिटाने में समर्थ हो सकता है।
पूर्व जन्म तो देखा नहीं और भविष्य अज्ञात है वर्तमान व्यक्ति के स्वयं के हाथ में है। उसका निर्णय उसे स्वयं अपने आप करना है। क्रियमाण वास्तव में प्रारब्ध और संचित कर्मों के दोषों को पराजित करने की क्रिया है। नीतिकारों ने कहा है कि जीवन किस प्रकार से जीया जाये जिससे जीवन में सौभाग्य की स्थिति बन सके मनुष्य के स्वयं के हाथ में वह कुंजी हो, जिनके द्वारा वह सौभाग्य का द्वार खोल सकता है। ऐसे सिद्धांतों को जीवन में अपनाकर मनुष्य स्वयं अपना नव निर्माण कर सकता है। इन सिद्धांतों पर ही जीवन निहित हो, ऐसा निरन्तर प्रयास होना चाहिये।
प्रथम सूत्र- महान चरित्र व्यक्ति को सुप्त अवस्था से जाग्रत अवस्था में लाता है, चरित्र के द्वारा ही शक्तिशाली भावना हमें क्रियाशील बनाती है और अनुशासन हमें उसी मार्ग पर निरन्तर चलाता रहता है, इसीलिये जीवन में महान चरित्र, उस पर क्रियाशीलता और उसके साथ स्व अनुशाशित होना आवश्यक है। ।
द्वितीय सूत्र- अत्यन्त बुद्धिमान गुणी व्यक्ति की सभी प्रसन्नता कर सकते है, धनी व्यक्ति को आश्चर्य से देखते है, शक्तिशाली व्यक्ति को देखकर भय या डर उत्पन्न हो सकता है, लेकिन विश्वास आप केवल चरित्रवान व्यक्ति पर ही कर सकते हैं। आप का सच्चा मित्र वही हो सकता है जो चरित्र का महान हो।
तृतीय सूत्र– ध्यान रहें जब आप किसी कार्यं को सम्पन्न करने के लिये अनुशासित और क्रियाशील होते हैं, तो निश्चय ही ऐसा समय आता है, जब आपके कार्यं सम्पन्न हो सकते हैं। अनुशासन द्वारा कार्य की आवश्यकता अनुरूप निरन्तर क्रियाशीलता से व्यक्ति धीरे-धीरे महान कार्य भी सम्पन्न कर सकता है।
चतुर्थ सूत्र- यह ध्रुव सत्य है कि जिनके जीवन में निश्चित दिशा, निश्चित लक्ष्य होता है, वे ही अपने जीवन में श्रेष्ठता से शीर्षस्थ स्थान प्राप्त कर पाते हैं। और अपने जीवन के सभी क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने में सफल होते हैं, इसलिये जीवन में लक्ष्य निर्धारित होना अत्यन्त आवश्यक है, साथ ही उसकी पूर्णता हेतु निरन्तर प्रयासरत रहना।
पांचवा सूत्र- आपकी विचार धारा का आपकी क्रियाशक्ति पर सीधा प्रभाव पड़ता है, अतः आपकी विचार धारा श्रेष्ठ, दृढ़ व सही होनी चाहिये। अपने विचारों को एक निर्धारित दिशा में केंद्रित करना चाहिये। इससे क्रियाशक्ति मजबूत होती है और लक्ष्य शीघ्र ही प्राप्त होता है।
छठा सूत्र- सज्जनों के साथ मित्रता की इच्छा पराये के गुणों से प्रेम, गुरुजनों के प्रति विनम्रता, विद्या के प्रति अनुराग, स्व पत्नी से प्रीति, लोक निन्दा से भय, शिव और शक्ति की भक्ति, इन्द्रीय दमन की शक्ति और दुष्टों की संगति का त्याग सर्वोत्तम गुण माने गये हैं।
सातवां सूत्र- जिसके आधार पर आपका अपना लक्ष्य निर्धारित हैं, वे आपके जीवन में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वे ही इस पथ के प्रथम सहयोगी होते हैं, अतः आपके सहयोगी, मित्र, पत्नी, परिवार कैसे हैं? आपके आदर्श कैसे हैं? इन पर बार -बार विचार कर ही लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये।
आठवा सूत्र- तपते हुये लोहे पर पड़ने वाला जल तत्काल नष्ट हो जाता है। वही जल कमल के पत्तों पर गिरकर मोती जैसा चमकता है और वही जल स्वाती नक्षत्र में सीपी के मुंह में गिर कर मोती बन जाता है। अतः व्यक्ति में उत्तम गुण संसर्ग से ही अर्थात् मित्रता से ही उत्पन्न होते है। जैसे मित्र रहेगे वैसे ही गुण विकसित होंगे।
नौवा सूत्र- कार्य विशेष की स्थिति में लगा हुआ व्यक्ति क्षणिक दुख और सुख की परवाह नहीं करता। जैसी भी स्थिति है वह उसे लक्ष्य प्राप्त के मार्ग में आने वाली क्रियायें समझता है और व्यथित नहीं होता है। वही व्यक्ति जीवन अपने लक्ष्य को श्रेष्ठता से प्राप्त कर पाता है।
दसवां सूत्र- मनुष्य शरीर में रहने वाला आलस्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है, लक्ष्य प्राप्ति की प्रथम बाधा आलस्य ही है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को आलस्य का त्याग करना चाहिये। पुरूषार्थ और कर्मशीलता ही प्रथम मित्र है, क्योंकि पुरूषार्थ के रहने पर मनुष्य कभी दुखी नहीं रह सकता।
ग्यारहवां सूत्र- कर्म को बार-बार नमस्कार है, क्योंकि कर्म ने ही ब्रह्माण्ड रूपी पात्र में ब्रह्मा को कुम्हार के समान नियुक्त किया, कर्म ने ही विष्णु को दशावतार धारण करने के लिये व्यग्र किया, कर्म ने ही रूद्र को खप्पर हाथ में लेकर भिक्षा के लिये विवश किया। कर्म ने ही सूर्य को प्रतिदिन आकाश में भ्रमण करने का कार्य सौंपा, उस कर्म को महान ही कहा जा सकता है।
बारहवां सूत्र- जो मनुष्य इस कर्म प्रधान संसार में जन्म लेकर भी अकर्मण्य रहता है, उसे परमार्थ कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता, कर्म की प्रधानता ही जीवन में सुख-समृद्धि, सफलता, लक्ष्य प्राप्ति के मूल सूत्र है, भौतिक, आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में श्रेष्ठता हेतु कर्म ही प्रधान है।
निधि श्रीमाली
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