किन्तु इन भावों को जिस प्राणवान चेतना की आवश्यकता थी, वह अवसर 7-8-9 मई 2016 को पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश जी के महाकाल की चेतनामय भूमि उज्जैन में सिंहस्थ महाकुम्भ, अक्षय तृतीया, स्वाती नक्षत्र, पूर्णिमा के विशिष्ट योग पर आगमन से पूर्ण हुई। इस महापर्व के मध्य शिष्य प्रतीक्षा के कारण शिष्यों के हृदय में खेद और विषाद की कालिमा कुछ और सघन होने को थी। तभी सद्गुरूदेव ने ऐसा अवसर सृजन किया, जो शिष्यों के हृदय आह्लाद, प्रसन्नता, संतोष व तृप्ति के साथ गुरू के प्रेम के प्रति आंखें झिलमिला गयी। क्योंकि गुरूदेव की भावना में तो कुम्भ वही है, जहां शिष्य को अंह ब्रह्मास्मि की पूर्णता की ओर अग्रसर किया जा सके। भौतिक जीवन को सुखमय बनाने के साथ ही साथ सद्गुरूमय जीवन धारण करने की चेतना आत्मसात कर सके। जहां शिष्य सद्गुरूदेव निखिल में विलीन होकर पूर्ण अमृतत्व प्राप्त कर सके। ऐसी क्रिया सम्पन्न करने के लिये शिष्य को धैर्य रखकर प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है, क्योंकि गुरूदेव का यही संकल्प था कि श्रेष्ठतम योग में ही शिष्यों को क्षिप्रा के अमृतमय तट पर महाकाल महामृत्युजंय सिंहस्थ अमृतमय चेतना का प्रवाह करूंगा। जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्णता में सहायक होगा।
सिंहस्थ कुम्भ के महापर्व पर देश-विदेश के दुर्गम वनो से आये उच्चकोटि के लाखों नागा साधु-सन्त के दिव्यतम चेतना से आप्लावित भूमि, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में श्रेष्ठतम महाकाल ज्योतिर्लिंग, काल भैरव, कालीका, चिन्तामणी गणपति, 51 शक्तिपीठों में माता हरसिद्धि शक्तिपीठ, मत्सेन्द्रनाथ-गोरखनाथ की तपोभूमि, शनिदेव-मंगलदेव की जन्म भूमि त्रिवेणी घाट, रामघाट, नृसिंह घाट, अप्सरा तीर्थ और जहां सांदीपन ने भगवान कृष्ण को दीक्षा दी। सद्गुरूदेव निखिल की तपोभूमि और विभिन्न तेजमय शक्तियों से युक्त उज्जैन नगरी जहां महाकालेश्वर सदैव विद्यमान रहते हैं। ऐसी दिव्यतम चेतना से परिपूर्ण उज्जैन नगरी में जब बृहस्पति और सूर्य ग्रह का प्रवेश सिंह और मेष राशि होता है तब क्षिप्रा नदी का जल अमृतमय बन जाता है। इसीलिये सिंहस्थ कुम्भ का महापर्व उज्जैन में सम्पन्न होता है।
जब अमरत्व प्राप्ति के लिये असुरों ने देवताओं से संग्राम किया तो अमृत प्रसाद स्वरूप में श्रिपा नदी में समाहित हुआ, जिसकी रक्षा बृहस्पति, सूर्य और चन्द्र ग्रह ने की। उस क्षण के ग्रहों का योग प्रत्येक 12 वर्ष में होता है, तभी कुम्भ की श्रेष्ठतम क्रिया सम्पन्न होती है। यह श्रेष्ठतम क्षण 12 वर्षों पश्चात् महाकाल की पावन नगरी व भगवान वाराह के वक्ष स्थल से उत्पन्न शिप्रा नदी के अमृतमय तट पर अक्षय तृतीया के अक्षय फलदायी के श्रेष्ठतम अवसर पर सद्गुरूदेव कैलाश जी के सानिध्य में सौभाग्यशाली शिष्यों को कुम्भ महापर्व पर विशिष्ट साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न करने का अवसर मिला।
7 मई 2016 के प्रातः 10:30 बजे हर्षोल्लास और महाकाल गुरूदेव के जयघोष के साथ गुरू पूजन प्रारम्भ हुआ। मई माह की भीषणतम गर्मी से मन में आशंकायें बनी हुई थी। किन्तु गुरू अन्ततोगत्वा गुरू होते हैं, वे प्रकृति को अपनी सहचरी रूप में लेकर अवश्य चलते हैं, किन्तु प्रकृति से बद्ध नहीं होते हे।। प्रकृति उनकी अनुगामिनी होती है, वे प्रकृति के नहीं और इसी बात का साक्षात् सभी साधकों ने तब किया जब सहसा अमावस्या प्रतिपदा युक्त शनिवार अपरान्हः पूज्यपाद् सद्गुरूदेव जी उपस्थिति हुये, सभी शिष्यों ने पुष्प वर्षा, आनन्द भाव युक्त जयकारो से सद्गुरूदेव का स्वागत आर्शीवचन प्रारम्भ होने तक करते रहें। सद्गुरूदेव के मुखमण्डल के भाव से प्रतीत हो रहा था कि कोई अद्भुत् घटना घटित होने को है। सद्गुरूदेव के आगमन पर सूर्य की तेजस्विता शून्य में शरण लेने के लिये प्रस्थान कर चुके थे, और मौसम में शीतलता से मन प्रफुल्लित हो रहा था।
पूज्यपाद् सद्गुरूदेव जी ने अपने आर्शीवचन में बताया कि संकल्प शक्ति का भाव, ज्योति का भाव, प्रकाश का भाव जब भीतर में जाग्रत होता है और उस ज्योति में, उस प्रकाश में निरन्तर-निरन्तर चिंतन रूपी, कर्म रूपी क्रियात्मक रूप में हम घी, तेल प्रवाहित करते रहते हैं, चाहे वह श्रम के रूप में, कार्य के रूप में हो तब ही धीरे-धीरे परिवर्तन की स्थितियां आती है, और यही बदलाव हमें जीवन में सुख, आनन्द, प्रसन्नता देता है, प्रत्येक सांसारिक मनुष्य की यह धारणा रहती है कि उसका प्रत्येक दिवस हर्ष, उल्लास, प्रसन्नता पूर्वक व्यतीत हो, परन्तु उस धारणा के साथ-साथ संकल्प शक्ति का भाव क्या है, चिंतन का भाव क्या है, निरन्तरता का भाव क्या है, परिश्रम का भाव क्या है, उसी के फलस्वरूप जीवन में परिणाम की स्थितियां बनती हैं और सुपरिणाम के लिये, श्रेष्ठ परिणाम के लिये आवश्यक है कि जो भी विफलता के भाव, पराजय के भाव हैं, उन्हें समाप्त करने के लिये निरन्तर-निरन्तर क्रियाशील होना, जहां क्रिया शक्ति का भाव होता है, कर्म शक्ति का भाव होता है, वहां निश्चित रूप से सुफल या कुफल की अवश्य ही प्राप्ति होती है। क्योंकि हमारा कार्य करने का भाव, क्रियात्मक स्वरूप का भाव चिंतन किस प्रकार का है उसी के अनुरूप हमें परिणाम की प्राप्ति होती है, और इस परिणाम के स्वरूप ही जीवन में लाभ-हानि, जय-पराजय, आनन्द, सुख अनेक प्रकार के सम-विषम स्थितियां समय-समय पर हमें प्राप्त होती रहती हैं। और हर क्रिया का परिणाम किसी ना किसी सम-विषम रूप में प्राप्त होता ही है।
अक्षय तृतीया व बगलामुखी जयन्ती 8 मई 2016 के प्रातः बेला में त्रिवेणी घाट पर क्षिप्रा के अमृत जल में स्नान कर महामृत्यंजय, महाकाल, नवार्ण, बगलामुखी और गुरू मंत्र का जप जीवन में निरन्तर सफलता, सुख वृद्धि, पाप-दोष निवारण के लिये प्रारम्भ हुआ। 10 बजे गुरू पूजन के पश्चात् गणपति भजन, गुरू भजन से वातावरण सद्गुरूमय चेतना आपूरित हो गया था। सभी साधक-शिष्यों के मुखमण्डल पर महाकाल की प्रचण्ड तेजस्विता और चेतना स्पष्ट रूप से आलोकित हो रही थी। शिष्य सद्गुरूदेव के दर्शन के लिये व्याकुल हो रहे थे, तभी पूज्य सद्गुरूदेव का आगमन सभी के हृदय में उमंगव्याप्त हो गयी। क्योंकि ऐसा सद्गुरूदेव का आगमन से अनुभव हो रहा था कि जैसे महाकाल सदाशिव अपने दिव्य धाम को छोड़कर स्वयं शिष्यो पर अमृत वर्षा करने के लिये आ चुके हैं, इसीलिये शास्त्रों ने एक स्वर में यह स्वीकार किया है कि सदाशिव आज भी पृथ्वी पर गुरू में सशरीर उपस्थित हैं।
जब भजन मण्डली द्वारा भजन के माध्यम से ऊँ नमः शिवाय का भाव भरी धुन पण्डाल में गुंजायमान हुआ तो ऐसा अनुभव हुआ कि परम पूज्य सद्गुरूदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी की सूक्ष्म उपस्थिति हो चुकी है, और वो अपने सुआशीर्वाद से सभी शिष्यों को आलोकित कर रहें हैं। सद्गुरूदेव निखिल की सूक्ष्म उपस्थिति और पूज्य सद्गुरूदेव के महाकाल स्वरूप से जो भाव पूर्ण, गुरू-शिष्य, शिव-शक्तिमय वातावरण बना उससे अनेक शिष्य भावना की गहराई में समाये हुये सद्गुरूदेव को सजल आंखों से हाथ जोड़कर बार-बार नमन कर यही विनती कर रहे थे, कि हे प्रभो! हमारे हृदय में सदा आप ही विराजो, और जीवन को सभी कर्म बन्धन से मुक्त कर अपनी शरण में हमें देना। एक शिष्य की सदा यही भावना भी रहती है कि वह अपने सभी कर्तव्य का श्रेष्ठता से पालन कर सदा के लिये सद्गुरूदेव में लीन रहे।
अपने आशीर्वचन में पूज्य सद्गुरूदेव जी ने बताया कि कर्मयोगी भगवान कृष्ण ने गुरू सांदीपन से इसी महाकाल की नगरी में संस्कार, दीक्षा, चौसठ कला का ज्ञान प्राप्त कर तथा महाकाल की प्रचण्ड तेजस्विता को आत्मसात कर सम्पूर्ण संसार को कर्मयोग का संदेश दिया। अक्षय तृतीया और बगलामुखी जंयती के चैतन्य मुहुर्त में पूज्य सद्गुरूदेव ने ब्रह्मत्व शक्ति पीताम्बरा शक्तिपात दीक्षा, अष्टसिद्धि अक्षय धन लक्ष्मी शक्तिपात दीक्षा और क्षिप्रा के अमृत जल से शिष्यों का अभिषेक कर पाप हारिणी संताप हारिणी दीक्षा, सिंहस्थ महाकाल शक्तिपात दीक्षा क्षिप्रा के पावन तट त्रिवेणी घाट पर चन्द्र बेला में प्रदान की। साथ ही अमृत चरणामृत का भी पान कराया। ऐसी विशिष्टतम् क्रियाओं धर्म, अर्थ, काम की पूर्णता के साथ अहं ब्रह्मास्मि की चेतना प्राप्त होती है।
सद्गुरूदेव द्वारा प्रज्जवलित अग्नि में हवन, जिह्ना अंकन की श्रेष्ठतम क्रियायें सम्पन्न हुई। अन्त में भाव पूर्ण शिव, गुरू आरती और समर्पण स्तिुत जयकारों के साथ सुस्वादिष्ट प्रसाद ग्रहण कर तृप्ति और संतोष की प्राप्ति हुई। आयोजक मण्डल, आस-पास के गुरू भाईयों के सहयोग से भव्य और श्रेष्ठतम महोत्सव सम्पन्न हुआ। विशेष रूप से पारितोष तिवारी (छोटू) के अथक प्रयास, परिश्रम प्रशंसा योग्य है। ऐसा भव्यतम महोत्सव का आयोजन सिर्फ और सिर्फ गुरू की चेतना और कृपा से ही हो सकती है।
कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर
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