आज इस अमृत महोत्सव पर्व पर जन्म दिन तो एक बहाना है, क्योंकि जो पैदा होता है उसका जन्म तो होता ही है। मगर यह कोई गुरू का जन्म दिवस नहीं है, क्योंकि गुरू अपने आप में कोई सत्ता रहता ही नहीं है। गुरू तो अपने आप में बिखर कर के पूरे शिष्यों के बीच में समाहित हो जाता है और पूरे शिष्यों का समूह अपने आप में गुरू कहलाता है। गुरू अपने आप में कोई व्यक्ति नहीं बन सकता। इसलिये यदि आप ऐसा समझते हैं कि इस मंच पर बैठा हुआ व्यक्ति गुरू है, तो शायद यह गलत है, और यदि यह समझते हैं कि नारायण दत्त श्रीमाली मेरे गुरू हैं, तब भी गलत है। हकीकत में तो इस श्लोक का तात्पर्य ही यह है कि जन्म दिवस केवल गुरू का जन्म दिवस नहीं मनाया जाता है।
जब गुलाब का पुष्प खिलता है, विकसित होता है, जब उसमें सुगन्ध पैदा होती है, तब गुलाब का पुष्प अपने आप में उस सुगन्ध को समेटे हुये नहीं रखता। और अगर समेटे हुये है तो गुलाब का पुष्प बन ही नहीं सकता। वह कोई और पुष्प तो बन सकता है परन्तु गुलाब का पुष्प नहीं बन सकता। गुलाब को तो पुष्पों का अधिपति कहा गया है। और गुलाब का पुष्प हैं ही इसलिये कि उसने अपनी सुगन्ध को चारों तरफ बिखेरा है। और चारों तरफ बिखेरी हुई सुगन्ध के पूरे समूह को गुलाब का पुष्प कहते हैं। केवल पंखुडि़यों को गुलाब का पुष्प नहीं कहते।
और ठीक उसी प्रकार से गुरू तो केवल यह बैठा हुआ व्यक्तित्व नहीं है। आप सबके बीच में जो कुछ बिखर गया है – वह मेरा सारा जीवन का क्रम, मेरे सारे शरीर के रोम-रोम, मेरे सारे जीवन के क्षण, मेरे चिन्तन, मेरे विचार, मेरी धारणायें, मेरी विचार शक्ति और मेरी चिन्तन पद्धति और ये सब कुछ मिलकर के जो मेरे सामने समूह बैठा हुआ है – वह अपने आप में गुरू है। और यह गुरू जन्म दिवस आप सबका और एक प्रकार से शिष्य जन्म दिवस है, गुरू जन्म दिवस है। यह गुरू जन्म दिवस गुरू का जन्म दिन ही नहीं यह तो एक अमृतत्व पर्व दिवस है।
इस श्लोक का मूल भाव ही यही है कि गुरू उसको नहीं कहते जो बस एक सिंहासन पर बैठ जाये। गुरू सिंहासन पर बैठता ही नहीं है, गुरू के बैठने के लिये कोई चांदी का रथ या पुष्पों से सजी हुई कोई कार नहीं हो सकती, वह बैठने की जगह है ही नहीं। और यदि गुरू को वहां बिठाया जाता है, तो यह शिष्य का सबसे बड़ा अपमान है, गुरू का सबसे बड़ा अपमान है। यदि आप फूलों से सजाकर मंच पर गुरू को बिठाते हैं, तो यह गुरू के बैठने का स्थान नहीं है। गुरू के लिये सबसे अच्छा बैठने का स्थान शिष्य का हृदय होता है और आप मुझे अपने हृदय में बिठायें। मैं सोचता हूं मेरे लिये यह स्थान बहुत ज्यादा उपयुक्त है। उस स्थान पर मैं अपने आपको बहुत अधिक गौरवान्वित अनुभव करता हूं। जिस क्षण भी आप मुझे उस स्थान से हटाने की प्रक्रिया करते हैं, जब भी अपने हृदय के स्थान से मुझे थोड़ा सा भी दूर धकेलते हैं, तो मैं अत्यन्त व्याकुल हो उठता हूं। बहुत चित्त व्यथित हो उठता है, बहुत अपने आप में बेचैन हो उठता हूं कि क्या कारण है? ऐसे क्षण क्यों आ रहे हैं? और वे क्षण मेरे लिये सबसे ज्यादा दुःखदायी होते हैं।
मगर विश्वामित्र ने इस श्लोक में कहा है कि जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य, कोई चिन्तन है ही नहीं, क्योंकि तुम जिसको जीवन कहते हो, वह देह है, जीवन नहीं है। तुम देह की अवस्था को प्राप्त करते हो, तुम जन्म लेते हो मां के गर्भ से और मृत्यु को प्राप्त होते हो। इसलिये तुम्हारी जो पूरी यात्रा है, वह देह की यात्रा है, वह जीवन की यात्रा नहीं है। इसलिये देह की अवस्था से बीस साल, पचीस साल, पचास साल, साठ सत्तर या अस्सी साल-जितनी भी तुम्हारी देह में क्षमता है, वह देहगत अवस्था चलती है ओर चलते-चलते एक क्षण ऐसा आता है जहां तुम श्मशान में जाकर सो जाते हो। ये सारी यात्रा तुम्हारी देहगत अवस्था है। और देह अपने आप में प्राण नहीं है। क्योंकि मां पुत्र को पैदा जरूर करती है, परन्तु मां केवल देह को पैदा करती है, केवल शरीर को पैदा करती है, प्राणों को पैदा नहीं करती है। जब पुत्र पैदा होता है तो मृत्युतुल्य पैदा होता है, जीवन तुल्य पैदा नहीं होता।
आपने पुत्र को पैदा होते हुये, उसको बाहर निकलते हुये देखा नहीं है। जब पुत्र पैदा होता है, सन्तान पैदा होती है, तो मां और पड़ोसी, नर्स और डॉक्टर और आस-पास के लोग बड़े गम्भीर और चिन्तित मुद्रा में खड़े रहते हैं। बालक ने जन्म ले लिये है और सभी बहुत व्याकुल, बहुत संत्रस्त, चिन्तित, बहुत परेशान कि एक सेकण्ड बीत गया है, दो सेकण्ड बीत गया है, बच्चे ने अभी तक सांस नहीं ली है, रोया नहीं है, प्राण आया नहीं है। दो तीन सेकण्ड और चार सेकण्ड बीतते हैं और ज्योंहि वह रोने लगता है – ताली बज जाती है, खुशी से ढोल बज जाते हैं, थालियां बजने लगती हैं, सब शान्त हो जाते हैं, कि बच्चा जी गया, बच्चा पैदा हो गया। मगर जब तक वह रोता नहीं है, जब तक वह उस प्राण को प्राप्त नहीं कर लेता है, जब तक उसमें चेतना नहीं आ जाती है तब तक देह होती है। इसलिये मां केवल देह को पैदा कर सकती है, प्राण नहीं डाल सकती।
विश्वामित्र ने कहा है कि मां के गर्भ में शरीर तो है, उसमें जीव तो है, प्राण नहीं!—वह जीव मां की बात को बहुत ध्यान से सुनता है, मां जो भी बोलती है, पुत्र गर्भ में उसे सुनता ही है, वह अपने पिता की आवाज को भी सुनता है। माता और पिता के बीच जो बात होती है वह बालक बिल्कुल गर्भ में सुनता रहता है। हर क्षण वह उन आवाजों से परिचित रहता है और ज्योंहि वह बालक गर्भ से बाहर निकलता है – वह मृत तो नहीं होता, होता तो जीवगत अवस्था में ही है, परन्तु वह जीव नश्वर होता है, समाप्तप्राय होता है – जीव है भी और नहीं भी। ऐसे जीव का कोई विशेष अर्थ नहीं है, कोई उसमें चेतना नहीं है, इसलिये फटी हुई आंखों से मां देखती है, दादा देखता रहता है, नर्स भी आशंकित रहती है कि जियेगा कि नहीं जियेगा, सांस लेगा कि नहीं लेगा। क्योंकि शिशु के लिये सांस लेने की क्रिया बिल्कुल नई है। मां के गर्भ में उसको सांस लेने की क्रिया का ज्ञान नहीं था। मां सांस लेती थी तो वह सांस लेता था। मां बोलती थी तो वह बोल रहा था, मां जो कुछ सुनती थी, वह वही सुनता था। आप जो बोल रहे थे, वह गर्भ का बालक नहीं सुन रहा था। इसलिये उसको मां की आवाज परिचित लगती है। इसलिये उसको मां का चेहरा परिचित लगता है। जन्म होता है, तो बिल्कुल अचम्भे से वह देखता है, क्योंकि गर्भ में तो बिल्कुल अलग जीवन होता है, अलग दीवार होती है, बाहर तो सब अलग है, सांस लेने का तरीका नया है, सारा सिस्टम अलग है, बात सुनने का तरीका नया है, यहां की हर चीज नई है, लोग नये हैं – और यह सब देखकर वह रोने लगता है, बिलख उठता है। लोग खुश हो जाते हैं कि प्राण आ गये हैं।
यह प्राणगत अवस्था गुरू के माध्यम से प्राप्त होती है, मां के माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिये दोनों में अन्तर है। मां केवल जीव दे सकती है, जीवन दे सकती है, प्राण नहीं दे सकती। इसीलिये विश्वामित्र ने कहा यह पूरा जीवन देह की यात्रा है। इस पूरी यात्रा में देह गतिशील होती रहती है, आप चाहें या नहीं चाहें। आपके चलाने से देह नहीं चलती है। यदि आप सांस नहीं लेना चाहें तो यह आपके बस की बात नहीं है, सांस आपको लेनी ही है। पर सांस लेने की क्रिया का आपको ज्ञान है नहीं, क्योंकि आपको सांस लेने की क्रिया समझाई ही नहीं गई। मां ने जैसे सांस ली, वैसे आपने सांस ली, मां ने आपको कोई नया तरीका नहीं समझाया। जीवन लेने के बाद, प्राण आने के बाद जो क्रिया समझानी चाहिये, वह नहीं समझ पाये आप।
इसलिये विश्वामित्र ने कहा कि जो साठ साल की यात्रा है, सत्तर साल की अवधि है, उस पगडण्डी पर जिसपर कि तुम चल रहे हो, गतिशील हो रहे हो, वह देह की अवस्था है। देह की इस गतिशील अवस्था में किसी भी क्षण गुरू मिल सकते हैं। और गुरू को प्राणात्मा कहा गया है। वह जीव को प्राणगत अवस्था में बदल देता है, क्योंकि जीव तो अपने आप में नश्वर है, जीव तो पंचभूतों में मिल जायेगा। प्राण नहीं मिल सकते। इसलिये प्राण को अनादि, अनशवर, अजन्मा और अगर्भा कहा गया है। प्राण गर्भ में पैदा नहीं हो सकता, गर्भ के बाहर प्राण पैदा होते हैं, इसलिये प्राण की मृत्यु नहीं होती, प्राण का जन्म नहीं होता। इसलिये श्लोक में कहा है कि तुम्हारी देह की यात्रा और प्राणों की यात्रा में अन्तर है। तुम्हारी देह की यात्रा तो मां के गर्भ से मृत्यु तक की यात्रा है। मगर तुम्हारी इस देहगत यात्रा का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि मैंने इस पर्व को अमृत पर्व महोत्सव के रूप में मनाया है। मैंने कहा है कि जीवन में जब भी तुम्हें कोई जीवन्त व्यक्तित्व मिल जाये, जिन्दा गुरू मिल जायें तो उन्हें पकड़ लेना। गुरू भी दो प्रकार के होते हैं – एक मरे हुये गुरू, एक जीवन्त गुरू। व्यक्ति भी दो प्रकार के होते हैं। अधिकतर व्यक्ति मरे हुये होते हैं, 98 प्रतिशत व्यक्ति मरे हुये हैं, कोई चेतना नहीं है, कोई धड़कन नहीं है। सांस तो ले रहे हैं, मगर प्राणगत अवस्था में नहीं हैं, उनमें कोई चैतन्यता नहीं है, उनमें किसी प्रकार की हलचल नहीं है, वे एक लाश की तरह अपने को ढोये चले जा रहे हैं। चिन्ता है, कष्ट हैं, बोझ है, परेशानी है, बाधायें हैं, अड़चनें हैं, कमाने की चिन्ता है और धीरे-धीरे एक-एक कदम चलते हुये अंत में एक दिन श्मशान में जाकर के सो जाते हैं।
नित्य आपके सामने सैकड़ो लोग श्मशान की ओर जा रहे हैं, आप अकेले ही नहीं जा रहे हैं। और आप खुद भी उन लोगों को क्न्धों पर पहुंचाने जाते हैं। और जब श्मशान में जाते हैं, तो सोचते हैं कि जीवन कुछ नहीं है, जीवन नाशवान है, यह था बहुत भला आदमी, धनवान था पर कुछ साथ नहीं ले गया। और वापिस लौटकर दुकान आते हैं, तो वही चिन्तन, वही पुराना कार्यकलाप शुरू हो जाता है। कुछ क्षण के लिये प्राण जाग्रत होते हैं, तब यह सोचते हैं कि यह जीवन है नहीं, यह जीवन बेमानी है, क्योंकि अंत में यहीं आकर श्मशान में सो जाना है। मगर वहां से वापिस लौटकर पुनः देहगत अवस्था में चले जाते हैं।
इसलिये विश्वामित्र ने कहा कि यह शिष्य का सौभाग्य है कि उसको अपने जीवन की पगडण्डी पर कभी भी, किसी भी क्षण गुरू मिल जायें। हो सकता है कि पैंतालिस साल की अवस्था में मिल जायें! हो सकता हैं कि पचास साल की अवस्था में मिल जायें! हो सकता है कि पूरे जीवन भर नहीं भी मिल पायें!
तुम चल रहे हो जीवन की पगडण्डी पर, तुमने जीवन के पैंतीस साल पार किये और पैंतीस साल बाद भी जहां गुरू मिले और तुमने पांव पकड़ लिये और हाथ पकड़ लिये, तब तुम उनके साथ चल सकें। और वह चलने की क्रिया, गुरू को पकड़ कर चलने की क्रिया ही अपने आप में अमृत पथ पर चलने की क्रिया है। और मैं तुम्हारे प्राणों को पकड़कर के अमृतत्व की ओर ले जाने की क्रिया सम्पन्न कर रहा हूं, इसलिये इसे अमृत पर्व कहा है।
तुम पिछले कई साल से मेरे साथ देहगत अवस्था में रहे हो, मेरे साथ हंसते हो, मुस्कुराते हो, रोते हो, बिलखते हो, परेशान होते हो, मगर तुम्हारा मेरा सम्बन्ध पांच या दस साल का नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता, मुर्दा गुरूओं के ऐसे सम्बन्ध होते हैं। मुर्दा गुरू कुछ क्षणों के लिये जिन्दा होते हैं, कुछ क्षणों के लिये आपसे मिलते हैं, कुछ क्षणों में फिर बिछड़ जाते हैं। उनका मिलना और बिछड़ जाना कोई महत्व नहीं रखता। उसका महत्व बस इतना है कि जैसे पड़ोसी के यहां कोई मर गया, हमने उसे कन्धा देकर उठाया और श्मशान में जाकर सुला दिया। इसके अलावा हमारा उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, न हमारी आंख में आंसू हैं, न किसी प्रकार का विषाद है, न किसी प्रकार का अभाव है। और यदि पड़ोसी के घर में पुत्र पैदा हो गया, तो एक क्षण के लिये मुस्कुरा लिये, इतना ही जीवन का चिन्तन है। मुर्दा गुरू का भी आपसे इतना ही सम्बन्ध है।
आप किस अवस्था में हैं, किस हालात में हैं, उन गुरू से कोई लेना-देना नहीं है। वो गुरू हैं ही नहीं। उन्होंने केवल एक दुकान खोल रखी है, एक व्यापार है, एक विनिमय है, एक साधन है। उनका तुम्हारा कोई प्राणों का सम्बन्ध नहीं है। जीवन का कोई चिन्तन या विचारधारा नहीं है। तुमसे तो उनका ये स्वार्थ जरूर है कि ये आवें और पांच रूपये मुझे चढ़ा दें, सौ रूपये चढ़ा दें, कमरा बना दें, हाल बना दें, धर्मशाला बना दें, कुछ दान-दक्षिणा दे दें। ये गुरू अपने आप में मुर्दे गुरू होते हैं।
ऐसे मुर्दा गुरू केवल भारत वर्ष में ही नहीं पूरे संसार में होते आये हैं और हैं। ऐसा नहीं कि कलियुग में ही ऐसे गुरू हैं, द्वापर युग में भी ऐसे सैकड़ो मुर्दा गुरू थे, सत युग में भी थे, जिनको कि खुद के बारे में भी चिन्तन नहीं था, ज्ञान नहीं था। विश्वामित्र ने यही बात कही कि वह तो गुरू हो ही नहीं सकता, जो शिष्य को पकड़ नहीं सके। शिष्य गुरू को नहीं पकड़ सकता, शिष्य को तो ज्ञान ही नहीं है कि मुझे कहां और किस क्षण गुरू से मिलना है। और ज्ञान ही होता तो फिर वह शिष्य रहता ही क्यों? शिष्य का तात्पर्य कोई चेला बनना नहीं है, मैं तुम्हें दीक्षा दूं वह शिष्यता नहीं है, दीक्षा लेने से शिष्य नहीं हो जाता। शिष्य का मतलब है कि तुम गुरू के कितने निकट हो। शिष्य का अर्थ है निकट जाने की क्रिया। और निकट जाने की क्रिया देह से देह भिड़ जाने की क्रिया को नहीं प्राण से प्राण मिल जाने की क्रिया को कहते हैं। तुम्हारे प्राण गुरू के प्राण से मिल जायें, एकाकार हो जाये, एक धड़कन हो, एक चेतना हो, एक विचार पद्धति हो, एक क्रिया हो, एक चिन्तन हो, एक चिन्तन हो, एक सांस हो। और ऐसा क्षण जीवन में शिष्य लाता है, अगर शिष्य में चेतना रहती है तो। मगर शिष्य में चेतना रह नहीं सकती, क्योंकि शिष्य प्राणगत अवस्था में पैदा होता नहीं है। शिष्य जीवगत अवस्था में पैदा होता है और किसी क्षण विशेष में उसे गुरू मिलते हैं, मिलते हैं और वह शायद पहिचान भी नहीं सके। मैं एक रास्ते पर चला जा रहा हूं, बीच में पचीस लोग मिल रहे हैं, मैं किसी की तरफ देख ही नहीं रहा हूं, तो चला जाता हूं और घर जाकर सो जाता हूं।
अधिकांश व्यक्ति भी ऐसे ही हैं, पैदा हो गये हैं, चल रहे हैं, यात्रा पूरी होगी और श्मशान में जाकर सो जायेंगे। फिर कोई गर्भ मिलेगा, उसके हाथ में कोई चिन्तन नहीं है, उसके हाथ में नहीं है कि वह फिर कहां जन्म लेगा। तुम्हारे हाथ में यह निश्चित नहीं था कि तुम किशनलाल के यहां पैदा होंगे। यह संयोग है कि तुमने किशनलाल के यहां जन्म ले लिया, ये संयोग था कि तुमने शूद्र के यहां जन्म ले लिया, तुमने क्षत्रिय के यहां जन्म ले लिया, ब्राह्मण के यहां या किसी अन्य व्यक्ति के यहां जन्म ले लिया। तुम्हारे हाथ में सत्ता नहीं थी, क्योंकि तुम्हारे हाथ में गुरू नहीं था। गुरू तुम्हें इस बात का ज्ञान दे सकता था कि तुम्हारा जन्म लेने का अधिकार तुम्हारा है, ईश्वर का नहीं है।
ईश्वर तो कोई सत्ता ही नहीं। ईश्वर कोई दूसरी चीज है ही नहीं। ईश्वर तो गुरू है, गुरू को ही गुरू र्ब्रह्मा, ‘गुरू र्विष्णुः गुरू र्देवो महेश्वरः’ कहा गया है और जब हम वेद पढ़ते हैं, तो यजुर्वेद में कहा है कि ईश्वर अपने आप में कोई सत्ता है ही नहीं। ईश्वर का कोई जन्म नहीं होता। ईश्वर का कोई चिन्तन नहीं, उसका कोई आकार नहीं, उसका कोई रूप नहीं, उसका कोई रंग नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई दृष्टि नहीं, कोई आंख नहीं। जब कुछ है ही नहीं तो हम किस को पकड़ेंगे?—और जिसको तुम पकड़ रहे हो, वह देवता है, ईश्वर तो है नहीं। जिनको तुम देवता मानते हो, तो सन 1947 से पहले भारत वर्ष में तैतीस करोड़ देवी देवता थे, आज अरब से ऊपर देवी-देवता हो गये हैं। देवी-देवता तो बढ़ते जा रहे हैं। तब तैतीस करोड़ थे, फिर चालीस हुये पैतालिस हुये, और अभी जब जनगणना हुई तो एक अरब देवी-देवता हो गये हैं। देवी-देवता की वृद्धि तो हो रही है, लेकिन ईश्वर में वृद्धि नहीं हो सकती। तुम ईश्वर को पहिचान भी नहीं सकते। इसलिये तुमने देवताओं का वर्णन किये है, उन्हें तुम देख सकते हो। और देवता का तात्पर्य है कि तुम स्वयं ही देवता हो।
‘देवता’ – जो यात्रा में जहां मिल जाये, और जो प्राप्त कर ले उसको देवता कहते हैं। ‘ददामि त्वां त्वां देवताः’ – तुम्हारी यात्रा में, तुम्हारे जीवन की यात्रा में कोई मिल जाये, ऐसा मिल जाये जो तुम्हें कुछ दे सके। बाकी सब तुमसे लेने की इच्छा रखेंगे, पति तुमसे लेने की इच्छा रखेगा, पत्नी तुमसे कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखेगी, बेटा भी लेना चाहेगा, मां-बाप भी कुछ इच्छा रखेंगे, भाई भी तुमसे कुछ लेने की कामना करेगा।
परन्तु गुरू तुमसे कुछ कामना नहीं करेगा और यदि गुरू कामना करता है, तो फिर गुरू है ही नहीं। गुरू शिष्य से कुछ ले ही नहीं सकता, क्योंकि शिष्य के पास कुछ है ही नहीं। शिष्य तो बिल्कुल खाली है और यदि शिष्य के पास कुछ है, तो विश्वामित्र कह रहे हैं, कि गुरू की ड्यूटी है, धर्म है कि सबसे पहले वह शिष्य को मृत्यु सिखा दे। जो कुछ तुम्हारे पास अब तक था, वह अपने आप में मृत्यु को प्राप्त हो जाये – तुम्हारा अहं, तुम्हारा छल, तुम्हारा झूठ, तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा असत्य, तुम्हारा व्यभिचार, तुम्हारी न्यूनतायें, तुम्हारा घटियापन, तुम्हारा जो कुछ भी है वह सब मृत्यु को प्राप्त हो जाये।
पहली बार मैं तुम्हें उंगली पकड़ कर उस रास्ते पर ले जा रहा हूं, जिस रास्ते को अमृत का रास्ता कहा गया है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’-इसलिये गुरू जन्म दिवस पर तुम्हारा एक नवीन पगडण्डी पर चलने का भाव होना चाहिये, जो अमृत का रास्ता है, इसलिये इसको अमृत पर्व कह रहा हूं। इसलिये इस पर्व पर मैं तुम्हें इन दर्शनों में उलझाना चाहता, मैं तुम्हें द्वैत और अद्वैत की अवस्था में भी नहीं ले जाना चाहता-वह एक उच्च कोटि के योगियों और संतों की परिभाषायें हैं। उन परिभाषाओं में उलझने से हमारा जीवन चल नहीं सकता। हमारे जीवन का आधे से ज्यादा अंश पार हो गया है और थोड़ा सा अंश रह गया है। और इस अवस्था में आकर के गुरू मिले हैं, एक मोड़ पर। आज गुरू मिले हैं, और अभी तक तो हमने यही समझा था कि जो शरीर है-वह गुरू है। अभी तक तो समझा था कि उस गुरू को पकड़े और मिलें। मगर आज पहली बार एहसास कर रहे हैं, कि इस मोड़ पर गुरू के साथ चलने की क्रिया है। और इसलिये यह अमृत पर्व मनाने के पीछे तात्पर्य कोई मेरा व्यक्तिगत जन्म दिवस मनाने का नहीं है। मुझे कोई इस बात की विशेषता है भी नहीं कि मेरा जन्म दिवस कोई बहुत महत्व रखता हो, ऐसा कोई चिन्तन भी नहीं है। मेरा जीवन अपने आप में महत्वपूर्ण है, मेरे प्राण महत्वपूर्ण हैं, मेरी जिन्दगी की धड़कन बहुत महत्वपूर्ण है, मेरे शिष्य महत्वपूर्ण हैं, और मैं शिष्यों के हृदय में बैठा हुआ हूं, यह बहुत महत्वपूर्ण है। जन्म दिन महत्वपूर्ण नहीं है।
और यदि महत्वपर्ण है भी तो इसलिये, कि मुझमें ताकत है, मुझमें क्षमता है, मुझमें चैतन्यता है, क्योंकि मैं जिन्दा गुरू हूं, मृत गुरू नहीं हूं। मुझमें प्राण है, चेतना है, मैं इस बात को समझता हूं कि मैं तुम्हारे प्राणों में जा सकता हूं, मैं तुम्हारे प्राणों मे बैठ सकता हूं। बैठने की क्रिया का मुझमें ज्ञान है, तुम मुझे भुला नहीं सकते, तुम अपने प्राणों से मुझे हटा नहीं सकते, तुममें वह ताकत, वह क्षमता है ही नहीं। इसलिये मैं तुम्हें कह रहा हूं कि जीवन दो चार सन्तान पैदा करने के लिये नहीं है। जीवन दस, पांच पचीस हजार रूपये इकट्ठा करने के लिये भी नहीं है। वह तो देह की एक अवस्था है, यह तुम कर सकते हो और तुमने किया है और तुम करोगे भी। मगर यह जीवन का कोई बहुत बड़ा आनन्दमय पर्व नहीं है। वह सुखमय पर्व तो हो सकता है, उससे हो सकता है कि तुम चार-छः कपड़े पहन लो, उससे हो सकता है कि तुम दो-चार गहने बनवा लो, उससे हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी तुमसे थोड़ी खुश हो जाये, मगर उस सुख के अन्दर आनन्द की अनुभूतियां नहीं हो सकतीं।
इसलिये प्राणगत अवस्था का तात्पर्य है कि पिछले कई कई जन्मों से तुम्हारा मेरा सम्बन्ध है। कोई पहली बार तुम्हारा मेरा मिलन नहीं हुआ है। पहली बार अगर मिलन हुआ होता, तो मैं तुम्हारे हृदय में बैठ भी नहीं सकता, तुम अपने हृदय में मुझे स्थापन कर भी नहीं सकते हो। गुरू और शिष्य का सम्बन्ध तो प्राणों से ही हो सकता है। शिष्य का तात्पर्य है कि गुरू के निकट जाये। शिष्य का तो अर्थ है कि गुरू के पास जाये और गुरू के समीप बैठे। बैठे और कुछ करे नहीं, कुछ करने की जरूरत भी नहीं है। वह केवल पास में बैठे, यह केवल बैठना भी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। यही तो उपनिषद का अर्थ है। उपनिषद का तात्पर्य कोई पोथी लिखे ग्रंथ नहीं है, उपनिषद का तात्पर्य है – गुरू के और भी अधिक निकट जाकर बैठने के क्रिया, शिष्य से भी आगे। यह बैठने की क्रिया भी अपने आप में कोई सामान्य क्रिया नहीं है, और यदि समुद्र के पास बैठेंगे, तो अपने आप लहर उठेगी और तुम्हारे चरण धो लेगी परन्तु समुद्र के पास बैठने की क्रिया होनी चाहिये तुममें। और तुम समुद्र के पास बैठोगे नहीं तो लहर उठेगी नहीं। तुम उस महान जलधि के पास बैठे हो, जिस जलधि की लहर उठ कर तुम्हारे भी चरण प्रक्षालन कर सकती है। जीवन के इस समुद्र के एक छोर पर गुरू खड़ा है, तो एक छोर पर शिष्य खड़ा है। शिष्य खड़ा है देहगत अवस्था में, और गुरू खड़ा है प्राणगत अवस्था में।
जिन्दगी मैं भी तुम्हारी तरह ही व्यतीत करता हूं, मेरे जीवन जीने का कोई नया स्टाइल नहीं है, मेरे भी पुत्र हैं, पत्नी है, मेरे भी बन्धु हैं, मेरे भी बान्धव हैं, चाचा हैं, काका हैं, भाई है, कमाता मैं भी हूं, रोटी मैं भी खाता हूं, रात को नींद मैं भी लेता हूं – ये सब कुछ तो है, पर तुममें और मुझमें अन्तर इतना है कि तुम चिन्ताओं से बोझिल हो जाते हो और चिन्तायें मुझ पर हावी नहीं हो पाती है। चिन्ता मुझे तकलीफ नहीं दे सकती। परेशानी, बाधायें आती हैं, तो पास में आकर खड़ी हो जाती हैं। वे मेरा गला नहीं पकड़ सकती, हावी नहीं हो सकती, मुझे झकझोर नहीं सकती, यह बहुत बड़ा अन्तर है। इसलिये मैं एक किनारे पर खड़ा हूं और तुम दूसरे किनारे पर खड़े हो। तुम्हारे पर बाधा आती है, तो तुम भयभीत हो जाते हो, घबरा जाते हो, विचलित हो जाते हो कि क्या होगा? अब क्या होगा? यह बीमार हो गया, अब हालत और खराब हो जायेगी, अब कैसे होगा? बहुत मुश्किल हो जायेगी और कल बुड्ढ़ा हो जाऊंगा और बेटा सेवा नहीं करेगा तो कैसे होगा? और अगर पत्नी बीमार पड़ गई तो क्या होगा? और पति मर गया तो क्या होगा?
तुम किनारे पर खड़े हो और मैं भी समुद्र के एक किनारे पर खड़ा हूं और आज मैं तुम्हें निमंत्रण दे रहा हूं कि किनारे पर खड़े रहने से कुछ लाभ नहीं हो पायेगा। मैं तुम्हें कह रहा हूं कि इस समुद्र में कूदना पड़ेगा तुम्हें, कूदोगे नहीं तो तुम जहां जा रहे हो वह तो श्मशान का रास्ता है। और इससे पहले भी मैं तुमको कह चुका हूं पिछले जीवन में भी कह चुका हूं, कोई पहली बार नहीं कह रहा हूं। यह अवस्था तुम्हारी पहली बार नहीं है। तुम तो बार-बार मरे हो, परन्तु मैं बार बार नहीं मरा हूं! – मैं हर क्षण तुम्हारे सामने जिन्दा हूं। प्रत्येक क्षण जाग्रत हूं। और जाग्रत गुरू मिलना बहुत कठिन और असम्भव है। सतयुग में ऋषिकाल में वशिष्ठ पैदा हुये, विश्वामित्र, अत्रि, कणाद, पुलस्त्य, गौतम, जमदग्नि, पाणिनी हुये और उसके बहुत बाद फिर कृष्ण पैदा हुये, पांच हजार वर्ष बाद। बीच में कोई व्यक्तित्व पैदा हुआ ही नहीं। पीढि़यां बीत गई, जाग्रत व्यक्तित्व हो यह जरूरी नहीं है और कृष्ण की आत्मा गई और फिर उसके पचीस सौ वर्ष बाद फिर एक जाग्रत व्यक्तित्व पैदा हुआ बुद्ध।
बुद्ध ने कहा कि ध्यान के माध्यम से भी जीवन को पकड़ा और पहिचाना जा सकता है, उन्होंने अपने शिष्य आनन्द से कहा – शिष्य! तू चिन्ता मत कर, मैं तेरे पास हूं, तू केवल अपना हाथ मुझे सोंप दे, तुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है। तू कुछ कर भी नहीं सकता। और मैं भी तुम्हें वही बात कह रहा हूं, क्योंकि तुम्हारी कई पीढि़यां, तुम्हारे कई जीवन मेरी आंखों के सामने से गुजरे हैं। तुम्हारा शरीर कई बार मिटा है, फिर जन्म लिया है। कभी तुमने किसी घर में जन्म लिया है तो कभी किसी और घर में जन्म लिया है। तुम्हारे पिछले पचीस और सत्ताईस जन्मों का हिसाब-किताब मेरे पास है। और मैं तुममें से प्रत्येक को हिसाब-किताब दे सकता हूं। तुम जाकर चेक कर सकते हो, कन्फर्म कर सकते हो कि क्या मैं पिछले जीवन में यहां पैदा हुआ था? तुम्हारा फोटो लगा होगा। अभी तुम पैंतालिस साल के हो, तो पचास पहले जरूर कहीं न कहीं रहे ही होंगे, मरे होंगे, वापस फिर जन्म लिया और फिर पैंतालिस साल और बीत गये हैं। इसका मतलब हुआ कि आज से पचास साल पहले और उससे भी दस साल पहले जरूर तुम कहीं न कहीं साठ या सत्तर साल के बुड्ढ़े रहे होंगे। वह बुड्ढ़ा मरा, फिर तुमने गर्भ चुना, और गर्भ को चुनने में तुम्हारी कोई ताकत नहीं है, क्योंकि तुम प्राणवान थे ही नहीं। जो गर्भ मिल गया, तुमने जन्म ले लिया।
मगर मैं कह रहा हूं कि तुम जाकर अपना पिछला जीवन चेक कर सकते हो, देख सकते हो, जरूर तुम्हारा कोई फोटो शायद टंगा भी होगा। तुम्हारे बेटे पचासी साल के हो रहे होंगे और तुम्हारे फोटो पर एक माला लटकाई हुई होगी, कि हमारे पिताजी थे, बहुत अच्छे थे, हार्ट अटैक हुआ था और खत्म हो गये। उन्होंने कुछ किया नहीं जीवन में। और यही मैं कह रहा हूं कि पिछले पचीस जन्मों से तुम कुछ कर नहीं पाये हो। और आज फिर हम उसी मानसरोवर के किनारे पर आकर खड़े हैं। तुम भी खड़े हो, मैं भी खड़ा हूं। फिर मैं वही आवाज दे रहा हूं। मैं आवाज दे रहा हूं कि अगर तुम किनारे पर खड़े रहोगे और अगर तुम कुछ बटोरोगे भी तो बटोरने से तो कुछ सीपियां ही मिलेगी, कुछ घोंघे मिलेंगे, कुछ शंख मिलेंगे, बालू के कण मिलेंगे।
इसमें तुम्हें और कुछ नहीं मिलेगा। तुम्हें कुछ लेना है, तो कूदना पडेगा समुद्र में, बीच मझधार में, और अगर कूद जाओगे तो तुम मोतियों से हाथ भर कर बाहर निकलोगे। और कूदने के लिये मैं कोई तुम्हें अकेले धक्का नहीं दे रहा हूं। मैं खुद तुम्हारे साथ डुबकी लगाने के लिये तैयार हूं। तुम्हें इस समुद्र में अकेला नहीं धकेल रहा हूं। अकेले धकेलना मेरा धर्म भी नहीं है, कर्तव्य भी नहीं है। बीच मझधार में तुम्हारा हाथ छोड़ना मेरा धर्म नहीं है, मेरा कर्तव्य नहीं है। बार बार तुमसे कहना इसके पीछे मेरा अर्थ यही है क्योंकि बहुत समय व्यतीत हो चुका है। ये बार बार के वायदे उचित नहीं हैं। अब तक तो मैंने तुम्हें देहगत साधनायें करवाई, देवताओं को प्रसन्न करने के लिये साधनायें करवाई, लक्ष्मी की साधना करवाई, हनुमान जी को प्रसन्न करने की साधना करवाई, इसकी साधना करवाई, उसकी साधना करवाई, देहगत अवस्था में सम्बन्ध आवश्यक है, तुम्हारा यहां आना आवश्यक है, क्योंकि तुम्हारा ये आना उस समुद्र के किनारे खड़ा होना है जहां तुम मेरा हाथ पकड़ कर खड़े हो। अभी तक तो एक किनारे पर तुम खड़े थे और एक किनारे पर मैं खड़ा था। और इसी में पचीस जन्म बीत गये, चालीस जन्म बीत गये, पन्द्रह जन्म बीत गये। हर बार तुम मुझे मिले, हर बार मैंने तुम्हें आवाज दी, हर बार मैंने तुमसे कहा कि किनारे खड़े रहने से तुम्हें कुछ मिलेगा भी नहीं। और तुम्हें कुछ मिला भी नहीं।
तुम्हारा शरीर ताकतवान, क्षमतावान है ही नहीं। अगर तुम्हें शरीर पर नाज है तो तुम तीन दिन स्नान नहीं करोगे तो चौथे दिन से बदबू आने लग जायेगी। इसमें से सुगन्ध निकलने की बात तो बहुत दूर की है, इसमें तुम चार दिन साबुन नहीं लगाकर नहाओगे तो चार दिन बाद कोई तुम्हारे पास खड़ा भी नहीं रह पायेगा, इतनी बदबू आयेगी तुम्हारे शरीर से। मरे आदमी क्या, जिन्दा आदमी के पास भी नहीं खड़ा हो सकता, जिन्दे आदमी की चमड़ी भी इतनी बदबूदार हो जाती है। तुम्हारे शरीर में कुछ है ही नहीं, कोई धड़कन नहीं है, कोई चेतना नहीं है। इसलिये मैं कह रहा हूं कि तुम अपने मुर्दा शरीर को अपने कन्धों पर ढोते हुये चले जा रहे हो। और जा रहे हो, तो मैं फिर बीच में आकर खड़ा हूं। पिछले बार भी खड़ा हुआ था। मैंने पहले भी कहा है कि जरूर किसी न किसी जन्म में तुमसे वायदा किया था, वायदा किया था कि तुम्हें ब्रह्मत्व तक ले जाऊंगा और फिर मैं वायदा करता हूं कि मैं तुम्हें ले जाऊंगा। मैं जानता हूं कि तुम हाथ छुड़ाने की कोशिश कर सकते हो, मैं जानता हूं कि तुम यहां से वापस घर जाओंगे और अपने को बदल दोगे, मैं फिर तुम्हें समझाऊंगा, फिर चेतना आयेगी, याद आयेगा कि गुरूजी ने कहा तो था, कि इससे फायदा तो कुछ है नहीं, जीवन का चिन्तन यह नहीं है।
मगर उसके बाद फिर तुम उसी में भ्रमित हो जाओगे। और ऐसा कई बार हो चुका है। कोई यह पहली बार नहीं है। तुम्हारे-मेरे बीच में लुका-छिपी के खेल कई बार हो चुके हैं। मैं फिर तुम्हारे प्राणों में दस्तक दे रहा हूं, मैं फिर मेघों की तरह बोल रहा हूं, फिर आवाज दे रहा हूं, धड़कन दे रहा हूं, चेतना दे रहा हूं, कि अब समय बहुत कम बच गया है तुम्हारे जीवन का भी और मैं तो अपने जीवन को जानता ही हूं। मेरे लिये तो काल का प्रत्येक क्षण स्पष्ट है, सार्थक है। मुझे मालूम है कि आज से दो दिन बाद क्या होगा, दो क्षण बाद क्या होगा। और मुझे ये भी मालूम है कि तुम्हारे जीवन का क्या होने वाला है। इसलिये मैं तुम्हें हिम्मत दे रहा हूं, जेाश दे रहा हूं कि तुम्हें कूदना है, क्योंकि मैं कूद चुका हूं। बीज मिट्टी में मिलता है तो छायादार पेड़ बनता है।
ये जो इतना बड़ा नीम का पेड़ है, आज से तीन साल पहले बहुत छोटी सी टहनी थी, और साढ़े तीन साल पहले छोटा सा बीज था, जो जमीन के अन्दर मिला हुआ था। उस बीज का कोई अस्तित्व नहीं था। वह बीज तो दिखाई भी नहीं दे रहा था। बाजरे के दाने या गेहूं के दाने से बड़ा नहीं था वह बीज। मगर मैंने मिट्टी में मिलाया उसको। मुझे मालूम था कि बीज को मिट्टी में मिलाना मुझे जरूरी है। और बीज को मिट्टी में मिलाया और आज चार साल बाद उस पेड़ के नीचे सौ आदमी विश्राम कर सकते हैं। मैं खुद भी एक बीज था, मैं मिट्टी में मिला और मिट्टी में बिलकुल अपने आप को समाप्त कर दिया। अपना कुछ अस्तित्व रखा नहीं।
मैंने संन्यास जीवन लिया तो मेरी भी पत्नी थी, पुत्र थे, बन्धु थे, मेरी मां थी, बाप थे, भाई थे, सम्बन्धी थे, रिश्तेदार थे। मेरे भी जीवन में सुख था, यौवन था, मेरे भी जीवन में सुख की कामनायें थीं, पत्नी थी, इच्छायें थीं, सबकुछ था, मगर एक बार निश्चित किया कि इस बीज को या तो मैं मिट्टी में मिलाऊं और या फिर उनके बीज में बिखेर दूं। और उन सबके बीच में बिखेर देता तो तुम्हारी तरह एक मामूली व्यक्ति बनकर रह जाता। मैं मिट्टी में मिला तो आज मैं पेड़ बन सका हूं और तुम्हारे जैसे हजारों शिष्यों को अपनी छाया तले विश्राम दे सकता हूं।
और मैं तुम्हें भी कह रहा हूं कि तुम्हें भी मिट्टी में मिलना पड़ेगा। अपने आप को बचाकर रखने से तुम छायादार पेड़ नहीं बन सकते। झाड़ी बन सकते हो, लेकिन उस झाड़ी के नीचे कोई विश्राम नहीं ले सकता। बहुत छोटे आक के पेड़ बन सकते हो, लेकिन उस आक के पेड़ के नीचे तुम्हारा छोटा सा परिवार भी ठीक से नहीं बैठ सकता। तुम्हारी इतनी छोटी सी टहनी है कि तुम्हारा बेटा भी आराम से सांस नहीं ले पा रहा है। तुम्हारी इतनी पतली छाया है कि तुम्हारी पत्नी भी आराम से विश्राम नहीं ले पा रही है। उसे भरोसा नहीं है कि यह छाया मुझे पूरी मिलेगी भी या नहीं मिलेगी। ऐसी छाया का कोई अर्थ भी नहीं है कि जहां तुम अपनी पत्नी को, पुत्रों को भी छाया नहीं दे सको, और वह जो छाया अनुभव भी कर रहे हैं, वह एक कल्पना है। हजारों-लाखों लोगों को छाया देना तो बहुत बड़ी बात है।
बर्नार्ड शॉ, एक बहुत बड़ा कवि हुआ है। अभी सौ साल पहले की घटना है, कोई हजार साल पहले की घटना नहीं बता रहा हूं। बर्नार्ड शॉ ने अपनी सेक्रेटरी से कहा – ‘मैंने जिन्दगी में बहुत काम किया, मुझे कई पुरस्कार-सम्मान मिले, मैंने बहुत कुछ देखा है। मगर मैं एक चीज देखना भूल गया
सेक्रेटरी ने कहा – क्या भूल गये! आपने इतने बड़े नाटक लिखे, उपन्यास लिखे, ग्रंथ लिखे, आपका बड़ा सम्मान हुआ, प्रसिद्धि हुई, अरबों रूपये आपके पास में हैं और धन, दौलत, पत्नी, पुत्र सब कुछ आपके पास में है फिर देखना क्या है, पूरे संसार की यात्रा भी तो आप कर चुके हैं।
बर्नार्ड शॉ ने कहा – मैं अपनी डेथ (मृत्यु) देखना चाहता हूं। मैं मरना चाहता हूं।
सेक्रेटरी ने कहा – ये आप क्या कह रहे हैं, दिमाग तो दुरूस्त है आपका? मरना चाहते हैं! उन्होंने कहा – बिल्कुल! तू अखबार में छाप दे कि ‘बर्नार्ड शॉ डाइड’। मैं पांच दिन के लिये कहीं चला जाना चाहता हूं और कमरे से बाहर निकलूंगा नहीं। और तू कह देना कि बर्नार्ड शॉ तालाब में डूब गया।
सेक्रेटरी ने कहा – ये होगा कैसे, कल मैं जेल चली जाऊंगी। आज मैं लिख दूंगी मर गये और पांच दिन बाद आप पैदा हो जाओगे तो मुझे जेल हो जायेगी।
उसने कहा – सेक्रेटरी, या तुम फिर मेरी हत्या ही कर दो नहीं तो फिर इसे अखबार में छपाओ। मैं यह देखना चाहता हूं कि मेरी मृत्यु कैसे होती है। मृत्यु का क्या अर्थ होता है, क्या चिन्तन होता है। और दूसरे दिन अखबार में बड़े-बड़े अक्षरों में छप गया कि ‘बर्नार्ड शॉ हैज डाइड’ – वो तैरने के लिये तालाब में गये और डूब गये, उनकी लाश का कुछ पता नहीं। लोगों के टेलीग्राम आने शुरू हुये, पत्र आने शुरू हुये, पत्नी रोई, आंखों से आंसू टपके, घण्टे-दो घण्टे उदास रही, बेटा भी रोया। आखिर पांच घण्टे बाद बर्नार्ड शॉ कमरे में से बैठा बैठा सब देखता रहा।
बेटे ने मां को कहा – तू कब तक भूखी रहेगी, एक दो रोटी तो खा ले।
उसने कहा – तुम्हारे पिता चले गये, मैं अनाथ हो गई। कितना बड़ा नाम था उनका।
बेटे ने कहा – वो तो सही है, लेकिन रोटी तो खानी पड़ेगी।
तो उसने कहा – हां ये तो है! रोटी ले आ।
मां ने कहा – तू भी खा ले बेटा।
बेटे ने कहा – पिताजी चले गये।
मां ने कहा – अब मरने के पीछे तो कोई मर नहीं सकते अपन। चले गये, तो चले गये। वो गये, वो तो जाना ही था। आज नहीं तो दो साल बाद जाते। मगर तू चिन्ता मत कर, बहुत धन छोड़कर गये हैं, खाने-पीने का बहुत साधन है बैटा! अपना जीवन बहुत आराम से कट जायेगा बेटा!
बर्नार्ड कमरे में बैठा सोचने लगा कि मेरे बारे में कोई चिन्तन ही नहीं है, ये चिन्तन है कि रोटी आये और खा लें। चिन्तन ये है कि बहुत धन पीछे छोड़कर गये हैं, चिन्ता की कोई बात नहीं है। और मैं तुम्हें भी यही कहता हूं कि एक बार मर कर देख लो, बहुत आनन्द आयेगा। तुम्हें मालूम पड़ जायेगा कि जिसे तुम छाया समझ रहे हो, पत्नी और पुत्र समझ रहे हो, वे चार घण्टे बाद रोटी खाने लग जायेंगे। पत्नी चार घण्टे आंसू जरूर बहायेंगी, चार घण्टे सिसकेगी जरूर, लेकिन दो महिने बाद वापिस राग हो जायेगा, मस्त हो जायेगी। और यह तो तुमने देखा है, कि तुम्हारे पिताजी की मृत्यु हुई है, सम्बन्धियों की मृत्यु हुई है, उस समय तुमने उनकी पत्नियों को, उनके पुत्रों को देखा है। पत्नी की मृत्यु हो जाती है, वापस साल भर बाद शादी कर लेते है, वापस सन्तान होने लगती है, वापस जीवन चलने लग जाता है। बेकार तुम समझ रहे हो कि तुम्हारी छाया बहुत सुखद है, शायद इससे ज्यादा मृगतृष्णा कुछ नहीं हो सकती। इससे ज्यादा न्यून चिन्तन कुछ नहीं है।
तब बर्नार्ड शॉ ने कहा कि मैंने जीवन में पहली बार सत्य को जाना और फिर उसने अपने जीवन का जो अन्तिम ग्रंथ लिखा, वह बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उसमें उसने खुद कहा है – मैंने आज तक जो कुछ लिखा है, उसे नदी में बहा दीजिये, थेम्स में बहा दीजिये, यूजलेस है। इसलिये कि बिना गुरू के मुझे जीवन में कोई रास्ता बताने वाला ही नहीं था। मुझे किसी ने बताया नहीं कि मरने का क्या अर्थ होता है। और मुझे किसी ने बताया नहीं कि मैं किस प्रकार से जिन्दा रह सकता हूं। और अब तो समय इतना कम रह गया है, कि अगर मैं चाहूं भी तो जिन्दा नहीं रह सकता हूं।
और मैं भी तुम्हें बार-बार झकझोर कर यही कह रहा हूं कि तुम्हें समुद्र में कूदना है। तुम अगर कूदोगे नहीं तो तुम्हारे हाथ में कंकण-पत्थर के अलावा कुछ नहीं आ सकता। तुम्हारे पास छोटे कागज के टुकड़े जरूर मिल सकते हैं, पर वे तुम्हारे काम नहीं आ सकते। जो व्यक्ति कमाता है, वह उसका लाभ उठा ही नहीं सकता। यह संसार का नियम है। तुमने जो कुछ कमाया है, उसका लाभ तुम नहीं उठा सकते। तुमने पचीस हजार रूपये कमाये तो सही, पर गंगोत्री के किनारे जाकर कभी बैठ नहीं पाये। बैठ सकते ही नहीं तुम। अगर तुम जाना भी चाहोगे तो पत्नी पीछे से कहेगी – तुम जाना चाहते हो मगर पीछे ये दुकान कौन चलायेगा? दूकान में बैठेगा कौन?
तुम भी सोचोगे कि हां ये बात भी ठीक है। अगर दुकान पर नहीं बैठेंगे तो एक बार जो ग्राहक टूटा कि फिर हमेशा के लिये टूट जायेगा। ग्राहक टूट जायेगा, इसलिये दुकान में बैठना ज्यादा जरूरी है, गंगोत्री गई खड्ढे में। और अगर तुम नौकरी करते हो और अफसर को कहते हो कि गंगोत्री जाना है, तो वह अफसर दो बार देखेगा कि यह कहां से आया है और कहेगा – ‘आर यू मैड, और यू ऑल राइट, गंगोत्री भी कोई जाने की चीज है। दिमाग खराब है तुम्हारा, तनख्वाह कट जायेगी तुम्हारी। नहीं, तुम गंगोत्री नहीं जा सकते!’ तो अगर तुमने अपनी जिन्दगी में कुछ कमाया है, तो उसका लाभ तुम नहीं उठा सकते। और तुमने जिसको पैदा किया है उसका लाभ भी तुम नहीं उठा सकते। सन्तान तुम्हें सुख नहीं दे सकती। सन्तान तुम्हें सुख नहीं दे सकती। क्योंकि तुमने वैसा ही पैदा किया जैसे कि तुम थे। तुम जीव थै, तुमने जीव को पैदा कर दिया। तुम्हारे पास प्राण थे नहीं, तुमने उसमें प्राण की धड़कन दी नहीं, चेतना दी नहीं।
इसलिये तुम समुद्र के किनारे खड़े-खड़े हिचकिचा रहे हो – कूदूं कि नहीं कूदूं, ये गुरूजी कह तो रहे है छलांग लगा दो। अब गुरूजी छलांग तो लगा दें, मगर ये पत्नी खड़ी है बिचारी, आप देखिये इसकी आंख में आंसू हैं गुरूजी, आप छलांग लगाने को कह रहे हैं! मगर मेरे बिना रह नहीं सकती ये गुरूजी। मैंने कहा वो रह जायेगी, चिन्ता मत कर, तू चला भी जायेगा तो चार-छः घण्टे के आंसू हैं, वो अपने आप आंसू पोछ-पाछ देगी, कपड़े बदल देगी। तू घबरा मत, मेरे साथ चल, तेरे साथ मैं भी छलांग लगा रहा हूं। ऐसा नहीं कि मै धक्के दे रहा हूं। तुम कहते हो – नहीं गुरूजी! बस एक लड़की की शादी करनी है, लड़की की शादी हो जाये तो मैं छलांग लगा दूंगा गुरूजी। आप भरोसा रखो मेरे ऊपर गुरूजी, मेरे ऊपर भरोसा तो रखो।
—और भरोसा रखते-रखते तुम्हारे और मेरे बीच पचीस जन्म निकल गये। अब भरोसा नहीं रख सकता। तुम्हारे ऊपर से मेरा विश्वास उठ गया है। हर बार तुमने मुझे धोखा दिया है। हर बार मैंने तुम्हें कहा है कि तुम इस जनम-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाओ। ये बार-बार मां के गर्भ से जन्म लेना और तीन-चार साल मल-मूत्र में रहना, तुम बिल्कुल एक शूद्र की तरह मल और पिशाब में लिपटे जीवन व्यतीत करते हुये ग्याराह-बारह साल के होते हो और वापस उसी चक्कर में घूम जाते हो। फिर मर जाते हो, फिर जन्म ले लेते हो। और फिर मैं तुम्हें किसी मोड़ पर मिलता हूं। बार-बार तुम यों ही मुझसे हाथ छुड़ा लेते हो। फिर अगली बार तुम कहते हो – गुरूजी आप मुझपर भरोसा रखिये, मैं आपका शिष्य हूं, आप मेरे गुरू हैं, आप मेरे प्राण हैं, गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु! और फिर आंख बन्द कर ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ और ‘गुरूदेव! अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में’ गाने लग जाते हो। मैं कहता हूं कि तुम ये क्या कर रहे हो?
तुम कहते हो – गुरूजी थोड़ा सा एक काम और रह गया है, दो चार महिने और लगेंगे। अरे अभी तुम तो चिल्ला रहे थे कि सौंप दिया सब भार तुम्हारे हाथों में। ‘सब सौंप दिया इस जीवन का सब भार’ गा भी रहे हैं, नाच रहे हैं और फिर जब मैं कह रहा हूं कि तुम्हें चलना हैं तो तुम कह रहे हो – गुरूजी चलना कहां है, अभी दो-दो लड़कियां कुंवारी बैठी हैं, उनकी शादी भी तो करनी है। वह तो शाम को कह दिया था कि ‘सौंप दिया अब सौंप दिया’। अब ऐसे कोई सौंपा थोडे ही जाता है गुरूजी। ये तो भजन में सब लोग गा रहे थे ‘अब सौंप दिया’ तो हमने भी गा लिया – ‘अब सौंप दिया, अब सौंप दिया’। ऐसे सौंपा नहीं जाता गुरूजी!
पिछली बार भी इसी तरह मैं तुम्हारी बातों में आ गया था। मैं फिर कहता हूं कि तुम कर क्या रहे हो? तुम कहते हो – गुरूजी! वो सब तो ठीक है, मगर आप खुद ही सोच लो गुरूजी। मैं क्या कर सकता हूं। मगर आप भरोसा रखो, बस दो-चार साल की और बात है। पांच साल बाद फिर कोई बात नहीं होगी गुरूजी। इसलिये अब तक तो मैं ये कहता रहा कि तुम अपना हाथ मुझे दे दो, परन्तु अब मैं पहली बार कह रहा हूं कि तुम्हें हाथ नहीं देना है मुझे, बहुत हो गया अब, अब मैं खुद तुम्हारा हाथ पकडूंगा। क्योंकि मैं अपना हाथ दूंगा तो फिर तुम हाथ छुड़ाकर किनारे हो लोगे ओर छुड़ा लेते हो। इसलिये हर बार ठगा मैं गया हूं, छला मैं गया हूं, तुम नहीं छले गये हो। हर बार धोखा मैंने खाया है, तुमने धोखा नहीं खाया है। हर बार मैंने तुम पर विश्वास किया है। मगर इस बार ऐसा सम्भव नहीं है। अब इस जीवन में ऐसा नहीं हो सकता। अब इस जीवन में मैं तुम्हें बार-बार जन्म-मरण नहीं देना चाहता। और मैं नहीं चाहता कि तुम श्मशान में जाकर सो जाओ। और मैं नहीं चाहता कि तुम आक के पेड़ बन जाओ।
और मैं ये भी कहता हूं कि तुम्हे कुछ करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं तुम्हारे पास बैठा हुआ हूं। तुम्हें केवल आनन्द और मस्ती के साथ नाचते रहना है, तुम्हें जीवन को समझना है, तुम्हें दुःख और चिन्ता भुला देनी है। तुम्हारी चिन्तायें मैं अपने आप भोग लूंगा। तुम्हारी चिन्तायें मुझपर हैं, तुम्हारे दुःख मुझपर हैं, मैंने अगर तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लिया है तो मेरी जिम्मेवारी है। अगर शादी होती है और पत्नी का हाथ पकड़ लेते हैं, तो पति की जिम्मेवारी है कि पत्नी को पूरे जीवन तक वो रोटी खिलाये, उसको कपड़े दे, उसके सुख-दुःख में शामिल हो।
इसीलिये मैं तुम्हारा हाथ पकड़ नहीं रहा था, मैं अपना हाथ दे रहा था। मगर फिर मैंने सोचा कि ऐसा चलेगा नहीं। जन्म दिवस पर्व रखने का मेरा चिन्तन यह नहीं था कि मैं तुमसे कोई बात चीत करूं। मेरा चिन्तन यह था कि मेरे-तुम्हारे बीच जो एग्रीमेण्ट होता हैं हर बार जो समझौता होता है वह टूट जाता है। लेकिन मैं तुमसे वायदा कर चुका हूं और मैं वायदा तोड़ नहीं सकता। प्रभु के सामने मुझे खड़ा होना है। देहगत अवस्था में तुम्हें मैं रखना नहीं चाहता, प्राणों से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता हूं। मैं तुम्हे दिखा देना चाहता हूं कि जीवन का आनन्द क्या है, जीवन की मस्ती क्या है? जीवन की चेतना क्या है? जीवन की धड़कन क्या है?
मैं तुम्हें परिचय कराना चाहता हूं प्राणों में उतरने की उस क्रिया का जिससे बुद्ध ने आनन्द प्राप्त किया, जिससे कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे सके, उसे कह सके कि तुम जो देख रहे हो, वह श्मशान है। तुम सोच रहे हो कि तुम भीष्म को मार रहे हो, तुम बाण चला रहे हो, लेकिन तुम बाण नहीं चला रहे हो। भीष्म तो पहले से ही मरा हुआ है, उसे मैं पहले ही मार चुका हूं। तुम तो केवल निमित्त हो, मैं तुम्हें निमित्त बना राहा हूं। मैं तो तुम्हें बस कह रहा हूं कि तुम्हें युद्ध में कूदना है। तुम्हें और कुछ करना नहीं है, तीर तुम चला ही नहीं सकते, तुममें तीर चलाने की ताकत नहीं है। अगर मैं यहां नहीं बैठा होता तो तुम कुछ नहीं कर सकते। तुममें यह ताकत, यह क्षमता नहीं है। और जब अर्जुन तीर चलाता तो कर्ण का रथ एक दम से पांच गज पीछे सरक जाता था। कर्ण भी बहुत बड़ा योद्धा था, बहुत बहादुर था, लेकिन फिर भी रथ पांच गज पीछे सरकता था, एक तीर से। और जब कर्ण बाण चलाता तो अर्जुन का रथ एक गज पीछे सरकता। अर्जुन गर्व से बहुत फूल कर बोला – कृष्ण! मेरी बाणों की ताकत देखो। तुम कर्ण की बहुत तारीफ करते थे कि वह तीर चलाने में बहुत ताकतवान है। मैं जब तीर चलाता हूं तो उसका रथ पांच गज पीछे धकेल देता हूं। मगर उसके तीर से मेरा रथ केवल एक गज ही पीछे सरकता है।
कृष्ण ने कहा – मैं जो बैठा हुआ हूं जो तीनों लोकों का भार लेकर, इसलिये ये रथ एक गज ही सरकता है। इसलिये तुम्हारा रथ रूका हुआ है अर्जुन! नहीं तो तुम्हारा रथ कब का ध्वस्त हो गया होता। तुम कुछ नहीं कर रहे हो, लड़ तो मैं रहा हूं तीर तो मैं चला रहा हूं, तुम तो निमित्त मात्र हो। मैं भी तुम्हें यही कह रहा हूं कि तुम्हें केवल नजदीक आना है। तुम्हें केवल शिष्य बनना है, तुम्हें केवल उपनिषद बनना है, तुम्हें वेद बनना है, तुम्हारे प्राणों की धड़कन और मेरे प्राणों की धड़कन एक बननी है। बस और कुछ नहीं करना है, तुम्हें कोई साधना नहीं करनी है, तुम्हें कोई माला-मंत्र जाप नहीं करना है, तुम्हें कोई चेतना नहीं करनी, तुम्हें कोई आरती नहीं उतारनी है, कुछ करने की जरूरत नहीं है, तुम केवल नाचो-गाओ और मुस्कुराओ। तुम्हारी सारी चिन्तायें, सारा बोझ मैं लेने के लिये तैयार हूं, मैं ले रहा हूं। मगर तुम्हें मुस्कुराना है।
मैंने तुम्हें आवाज देकर बुलाया है, भीड़ को इकट्ठा नहीं किया है, पत्रिका में लिखकर बुलाया है, क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे ये जीवन के क्षण फिर उसी तरह व्यतीत हो जायेंगे। लेकिन मैं तुम्हें बुला रहा हूं क्योंकि मैं तुम्हें वह आनन्द देना चाहता हूं, जो बुद्ध ने लिया, जो वशिष्ठ और विश्वामित्र ने लिया। मैं ऋषियों और मुनियों के जीवन को और उनकी आत्माओं को वापस यहां उतारना चाहता हूं। मैं वापस पृथ्वी पर वह युग लाना चाहता हूं, तुम्हारे माध्यम से। तुम्हें प्राणश्चेतना देकर दुनिया को बता देना चाहता हूं, तुम्हारे माध्यम से। तुम्हें प्राणश्चेतना देकर दुनिया को बता देना चाहता हूं कि मैं इन सारे लोगों को सूर्य बनाकर दिखा सकता हूं। और मैं दिखा दूंगा।
क्योंकि मैं मुर्दा गुरू नहीं हूं, मैं श्मशान में जाने वाला भी गुरू नहीं हूं, मैं इस प्रकार से हतोत्साहित और निराश होने वाला भी गुरू नहीं हूं। ऐसा गुरू बनने की मुझे जरूरत भी नहीं है। न मुझे तुमसे कुछ लेना है, न तुमसे कुछ आकांक्षा है, क्योंकि तुम मुझे कुछ दे ही नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं। तुम्हारे पास केवल शरीर है, उसकी मुझे जरूरत है नहीं। वह शरीर तुम्हारी पत्नी के पास बंटा हुआ है, बेटों के पास बंटा हुआ है, भाईयों के पास बंटा हुआ है। तुम उसे बांट कर रखो, वे सब तुम्हारी देह से सम्बन्ध रखते हैं। जब तक तुम्हारी देह है तब तक तुम्हारी पत्नी है। और ज्योंहि तुम्हारी देह शान्त हुई, वह लिख देगी – दिवंगत पतिदेव। कोई पूछेगा कि तुम्हारा उनके सम्बन्ध का क्या हुआ?
– तो कहेगी, सम्बन्ध था! वह ‘है’ से सीधे ‘थे’ हो जाता है। ‘है’ से ‘थे’ इसलिये हो जाता है कि तुम्हारा उनका सम्बन्ध केवल देह का है। एक क्षण में ‘है’ और एक क्षण में ‘थे’ बन गये। और मैं तुम्हें कह रहा हूं कि मेरा और तुम्हारा सम्बन्ध में ‘है’ और ‘थे’ का भेद नहीं है। अगर मैंने आज से पचीस जन्म पहले भी तुम्हें आवाज देकर गले से लगाया ‘है’ तो वह सब वैसा ही आज भी ‘है’ और आज से पचीस साल बाद भी वैसा ही रहेगा। और अगर हाथ छुड़ा लिया तो फिर अगले जन्म में फिर हाथ पकडूंगा, और कोई रास्ता है ही नहीं, मगर मैं ऐसा क्षण लाना चाहता नहीं हूं।
मैं तम्हें गणित सिखाने के लिये यहां नहीं बैठा हूं कि यहां ऐसा करना है, और तुम सोचने लगे कि गुरूजी ने ऐसा कह दिया है, कैसे करना होगा, अब क्या होगा। मैं कह रहा हूं कि तुमने सोच-विचार में बहुत समय व्यतीत कर दिया। तुमने मानसरोवर में डुबकी लगाई ही नहीं और अगर मानसरोवर में डुबकी लगाई ही नहीं तो हंस बन भी नहीं सकोगे। कौए बन सकते हो, पंखों में वह ताकत नहीं आ सकती, क्योंकि तुम्हारे पंख मुर्दा हो चुके हैं। उड़ने की क्षमता भूल गये। तुम जरूर वशिष्ठ गोत्र के हो, विश्वामित्र, अत्रि और कणाद गोत्र के जरूर हो। हो सकता है कि उस भारद्वाज का खून तुम्हारी रगों में बहा हो। बहा हो आज से पांच हजार साल पहले, वह धीरे-धीरे खून बहता-बहता गया, अब उस खून में वह ताकत नहीं है। ताकत इसलिये नहीं रही, कि वे तो उड़ना जानते थे, उन्होंने तो आकाश को नापा, उन्होंने पूरी पृथ्वी को देखा, पूरे ब्रह्माण्ड को देखा, भारद्वाज ने देखा, पर तुम उनकी सन्तान होते हुये भी मानसरोवर में डुबकी लगाना भूल गये हो।
भूल इसलिये गये हो, क्योंकि पिछले पचीस-तीस जन्मों से तुमने डुबकी लगाने की क्रिया ही भुला दी है। किनारे पर खड़े रहे। और किनारे पर खड़े रहने वाला हंस नहीं बन सकता। वह केवल कौआ बन सकता है, वह केवल थोड़ा सा उडा फिर बैठ गया, थोडा सा उडा, फिर समाप्त हो गया। उसको हंस नहीं बना सकते, और मैं तुम्हें हंस बनाने के लिये यहां खड़ा हूं। क्योंकि तुम हंस हो, तुम अपनी जाति भूल गये हो। मैं तुम्हें याद दिला रहा हूं, कि तुम भारद्वाज गोत्र के हो, तुम वशिष्ठ गोत्र के हो। मैं तुम्हें याद दिला रहा हूं कि तुम अत्रि गोत्र के हो, तुम्हारा खून वही का वही खून है। मगर तुम भुला चुके हो अपने को, तुम अपने पूर्वजों को भुला चुके हो। मैं उस स्टेज को वापस लाना चाहता हूं, मैं तुम्हें अपनी शक्ति से परिचित कराना चाहता हूं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम हंस हो और तुम्हें मेरे साथ मानसरोवर में डुबकी लगानी है। और मैं तुम्हें मानसरोवर में डुबकी लगाकर उस आनन्द को देना चाहता हूं, उस मस्ती को देना चाहता हूं, उस जीवन को देना चाहता हूं जो मृत्यु की ओर नहीं जा सकता है। इस जीवन में मृत्यु तुम्हारे पास आ नहीं सकती। और अगर तुम्हें मृत्यु आ जाये, फिर मुझे धिक्कार है, फिर तुम्हारे अन्दर कोई कमी नहीं है।
मगर न तो तुमने मुझे कभी पहिचानने की कोशिश की और न कभी पहिचाना। न मैंने कभी परिचय दिया, न मुझे परिचय देने की जरूरत है। न तुम मुझे पहिचान सकते हो, तुम्हारी आंखों में वह ताकत, वह क्षमता है ही नहीं। तुम मुझे एक सामान्य मनुष्य समझ कर बैठ गये हो। तुमने समझ लिया है कि धोती कुर्ता पहने हुए एक व्यक्ति है जो बिल्कुल मेरी तरह ही हंसता है, मुस्कुराता है, बोलता है, रोता है, मेरी तरह पत्नी है, बाल बच्चे हैं, वह भी अपनी लड़कियों की शादी करता है, धन कमाता है और बैठा हुआ है। तुमने ऐसा ही समझा। भीष्म, कर्ण, युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, दुर्योधन और अर्जुन भी वैसा ही समझ रहे थे कृष्ण को। अर्जुन ने कृष्ण से पूछा – फ्कि मैं उदास होता हूं तो आप उदास क्यों हो रहे हैं? आपने मुझे विराट रूप दिखाया है, और गीता में कहा है कि मैं स्वयं हूं, तुम कुछ नहीं हो, भीष्म कुछ नहीं है, भीष्म को तो मैंने मारा है, इस दुर्योधन को मैं मार रहा हूं, द्रोणाचार्य को मैं मार रहा हूं तुम तो निमित्त बन रहे हो। तुम कुछ कर नहीं सकते, तुममें ताकत नहीं है। और जब ऐसा है तो मैं पूछता हूं कृष्ण कि आप फिर उदास क्यों हो रहे हैं? फिर आप भी मेरी तरह परेशान क्यों हो रहे हैं?“
कृष्ण ने कहा – मैं इसलिये उदास हूं कि मैं तुम्हारे बीच में रहना चाहता हूं। अगर मैं बिल्कुल अलग हो गया, तो तुम मेरी बात सुन सकोगे नहीं। मैं तुम्हारे रथ पर बैठा हूं, इसलिये तुम मेरी बात सुन रहे हो। इसलिये मैं तुम्हारे साथ मुस्कुरा रहा हूं मैं तुम्हारे साथ रो भी रहा हूं। मैं तुम्हारे साथ उदास भी हो रहा हूं। मैं तुम्हारे साथ हंस भी रहा हूं। एक ही रथ पर बैठा हूं कि तुम मेरी बात समझ सको। कृष्ण भी यही कह रहे थे और मैं भी वही कह रहा हूं। मैं भी तुम्हारे रथ पर बैठा हुआ हूं क्योंकि मैं तुम्हारे जीवन का सारथी हूं। बैठा हुआ हूं इसलिये कि तुम मेरी बात सुन सको। अगर मैं दूसरे रथ पर खड़ा हो जाऊंगा, हिमालय के किनारे पर खड़ा हो जाऊंगा, तो तुम मेरी बात सुन नहीं पाओगे, तुम्हारे कानों में वो ताकत नहीं है। इसलिये तुम मुझे पहिचान नहीं पा रहे हो। अर्जुन भी उसे नहीं समझ सका, उसने केवल सारथी ही समझा, घोड़े चलाने वाला।
कृष्ण को अपमान भी मिला, गालियां भी मिलीं, शायद जितना अपमान कृष्ण को मिला, उतना तो संसार में किसी व्यक्ति को मिला ही नहीं। इतना मिलने के बाद भी वह अपने आप में मुस्कुराता रहा। फिर भी चैतन्य बना रहा। हजारों हजारों गोपियों से उसने प्रेम किया, उसके बाद भी वह योगेश्वर बना रहा। ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरूं’ – उसको जगत का गुरू कहा गया। इसलिये कि वह अपने आप में जीवित जाग्रत व्यक्तित्व था। महाभारत युद्ध हुआ तो कृष्ण ने कहा – ‘अर्जुन तू जीतेगा, क्योंकि मैं तेरे साथ हूं मैं तेरे साथ हूं तो तू हार नहीं सकता!’
और मैं भी कह रहा हूं कि जीवन के इस महाभारत युद्ध में तुम हार नहीं सकते, मैं तुम्हारे साथ में हूं। तुम जीवन जीना भूल गये हो, मैं तुम्हें प्रत्येक क्षण याद दिला रहा हूं कि तुम्हें मुस्कुराना है। तुम्हें इस बात की चिन्ता नहीं करनी है कि क्या होगा। क्या होगा, वह तो अब मेरे हाथ में है। क्या हो गया, वह तुमने कर दिया, वह तुम करके आये हो, बच्चे पैदा करने थे वो कर दिये – बड़े हुये, छोटे हुये, अच्छे हुये, बुरे हुये, कपूत हुये, सपूत हुये, पत्नी जैसी मिली मिल गई – वह सब तुम कर चुके हो। आगे क्या होगा, वह जिम्मेवारी मेरी है। वर्तमान में तुम्हें क्या करना है, तो मैं तुम्हें इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम्हें तो बस मेरे पास रहना है, हर क्षण, हर धड़कन, हर चेतना के साथ। हर क्षण मुस्कुराते हुये, हंसते हुये, खिलखिलाते हुये, हर क्षण आनन्दमग्न होते हुये। यह मग्न होने की क्रिया ही प्राणों में समा जाने की क्रिया है। एक तरफ खड़े होने से प्राणों में नहीं समाया जा सकता। इसके लिये तुम्हें प्रसन्न होना पड़ेगा, खिलना पड़ेगा। जब गुलाब खिलता है तो अपने आप सुगन्ध फैल जाती है, अगर गुलाब यहां से पचीस गज दूर खिला है, तो सुगन्ध अपने आप फैल जायेगी। उसके लिये गुलाब को पास लाने की जरूरत नहीं है। और अगर तुम मेरे प्राणों में समा जाना चाहते हो तो तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है। माला या मंत्र जाप करने से कुछ नहीं हो पायेगा। वह मैं अपने आप कर लूंगा, क्योंकि मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा है तो मैं समझता हूं कि मुझे क्या करना है।
मैं तुम्हें इतना ही कह रहा हूं, कि तम्हें मुस्कुराना है, हर क्षण तुम्हें चिन्तनयुक्त रहना है। हर क्षण तुम ऐसा समझ लो कि मेरे पास में हैं, हर धड़कन में मेरे पास में हैं, एक एक आंसू की बूंद में मेरे पास हैं, मेरी चेतना में, मेरी धड़कन में, मेरे प्राणों में हैं। क्योंकि मैं तुम्हें अन्दर उतारने की क्रिया समझाना चाहता हूं। मैं तुम्हें प्राणगत अवस्था में ले जाना चाहता हूं, क्योंकि जब तुम प्राणगत अवस्था में होगे तो तुम देख सकोगे अपने आपको, अपने पिछले जीवन को, उससे पिछले जीवन में मैं तुम्हारे साथ कहां था, यह तुम खुद देख सकोगे। मैं तुम्हें बता देना चाहता हूं कि तुम देख सकते हो। तुम्हारी इसी आंखों में वह ताकत है। तुम्हारे प्राणों में वो ताकत है, तुम चेतनायुक्त हो, क्योंकि तुम मेरे शिष्य हो, इसलिये तुम देख सकते हो।
और यदि तुम मेरे शिष्य हुये भी अपने मन से, अपने वचन से, अपने प्राणों से, अपनी चेतना से और उसके बाद भी मैं तुम्हें एकदम से हीरा नहीं बना सका, तुम्हें स्वर्ण नहीं बना सका, तो तुम्हारा कोई दोष है ही नहीं। तुम्हारी आवश्यकता यह है कि अगर तुम लोहा हो भी तो तुम बस पारस के पास पहुंच सको। पारस तक पहुंचने की यात्रा तुम्हें करनी पड़ेगी। पारस अपनी जगह है, समुद्र तक पहुंचने की यात्रा तुम्हें करनी होगी। तुम्हें अपने पांवों से मानसरोवर तक पहुंचना है। फिर मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर अन्दर कूद जाऊंगा, तुम्हें हिचकिचाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। तुम जो कुछ भी कर चुके हो, उसकी तुम्हें चिन्ता करने की भी जरूरत नहीं है। तुमने जो कुछ भी किया हो – अच्छा या बुरा। पर तुम अगर समुद्र में कूद लोगे तो मैं तुम्हारे साथ में हूं, डूबने तुम्हें नहीं दूंगा। बीच में तुम्हें नहीं छोडूंगा, मझधार में तुम्हारा हाथ नहीं छोडूंगा। मझधार में तुम्हें अलग नहीं होने दूंगा।
हर क्षण, हर पल, हर धड़कन मे मैं तुम्हारे पास में हूं, क्योंकि मैं तुम्हारा गुरू हूं और तुम केवल और केवल मेरे हो। इसीलिये अमृत का तात्पर्य है जीवित होना, तुम यहां आये हो मुर्दा होकर, तुम्हारे चेहरे पर चेतना नहीं है, तुम्हारे चेहरे पर खिलखिलाहट है नहीं क्योंकि भूल चुके हो तुम। मुर्दा व्यक्ति मुर्दा को ही पैदा कर सकता है। पैदा तो करता है, जीव तो डालता है, उसको मुस्कुराहट नहीं दे सकता। क्योंकि तुमने पैदा किया तो रोते हुये पैदा किया, हंसते हुये पैदा नहीं कर सके। हंसते हुये पैदा करना जीवन की एक चेतना है। इसलिये गुरू वापस जन्म देता है, तब ‘द्विज’ कहा जाता है। ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते’ – गुरू वापस दूसरी बार जन्म देता है, मैं तुम्हें वापस दूसरी बार जन्म दे रहा हूं। क्योंकि तुम रोते हुये पैदा हुये हो, मैं तुम्हें मुस्कुराने की कला सिखा रहा हूं, हंसना-खिलखिलाना सिखा रहा हूं, हर क्षण मगन होने की कला सिखा रहा हूं।
जब यहां गायन हो तो तुम नृत्य कर सको, झूम सको, मस्ती में थिरक सको, तुम्हें कोई ‘भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर वरेण्यम’ करने की जरूरत नहीं है, वह मैं अपने आप कर लूंगा। तुम्हारे जितने भी मंत्र जाप हैं, वो मैं करूंगा, तुम्हारी जो साधनायें हैं वो मैं करूंगा। तुम्हारी चिन्तायें, तुम्हारी बाधायें, तुम्हारे दुःख, तुम्हारी परेशानी वह सब मैं अपने ऊपर झेलूंगा, तुम्हें मुक्त होना है, मेरे प्राणों के साथ रहना है हर क्षण। और हर धड़कन के साथ, हर चिन्तन के साथ मुझमें समा जाना है। और अवश्य ही मैंने जो वायदा तुमसे किया है, उस वायदे को मैं पूरी तरह निभाऊंगा। तुम्हें उस जगह पहुंचाऊंगा जिससे कि प्रत्येक क्षण तुम्हारा आनन्दमग्न हो सके, उत्सवमय हो सके, मैं तुम्हें ऐसा ही आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
तुम्हारा अपना सदगुरूदेव निखिलेश्वरानन्द
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