काल के अविछिन्न प्रभाव में बहती ज्ञान की गंगा जिसके किनारे यंत्र-तंत्र विश्राम स्थल बने हैं, साधना रूपी पर्व और अवसर के, जिनमें रूक कर व्यक्ति प्राप्त कर ले अपने जीवन के लिये शीतलता और संतोष।
21 शताब्दी का आरम्भ होने का समय भारतीय वर्ष पद्धति से पौष माह में घटित होता है, सम्पूर्ण रूप से एक अद्भुत दिव्य चैतन्य माह, जिसका प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि सद्उपयोग करते थे कुण्डलिनी जागरण और योग की उच्च कोटि की साधनायें करने के लिये जीवन को ऊंचाई व ज्ञान की श्रेष्ठता तक ले जाने के लिये, अपने स्व को विकसित करने के लिये तथा देवी-देवताओं को अपने जीवन में स्थान देने के लिये। यह तो एक मिथ्या धारणा हमारे मन मस्तिष्क में बन गई है कि वे समाज से कट कर रहने वाले एकान्तिक व्यक्ति व सदैव तपस्या में ही लीन रहने वाले थे। सत्यता यह है कि उनका गृहस्थ जीवन, उनका सामाजिक जीवन आज की अपेक्षा हम से कहीं अधिक श्रेष्ठ, अधिक परिपूर्ण और अधिक सन्तुष्ट था, जिसकी पुष्टि होती है वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों से।
इसके मूल में रहस्य छिपा था, उनके द्वारा प्रत्येक अवसर की महत्ता के अनुरूप साधना को सम्पन्न करने में, और केवल इतना ही नहीं उन्होंने सदैव चिंतनयुक्त रहकर जीवन के एक-एक क्षण की महत्ता को समझते हुये प्रत्येक माह का विवेचन कर, उसके अनुरूप और अनुकूल साधना पद्धति का निर्माण स्वरूप रचना की।
यह पौष माह भी उनके इन्हीं प्रयासों का एक अंग है। जब उन्होंने अनुभव किया कि यह माह तो सम्पूर्ण रूप से देवत्वमय है, ऋषिमय है और यदि इस माह में अपने कुल के आदि पुरूषों, उन विशिष्ट ऋषियों की साधना की जाये जिनका नाम हम गोत्र का उच्चारण करते समय लेते हैं तो पूरे जीवन में अनोखी चैतन्यता और तेजस्विता आती ही है उनके मन में नववर्ष मनाने जैसी कोई धारणा नहीं थी, लेकिन इस बात का उन्हें पर्याप्त बोध हो गया था कि शीत ऋतु के पश्चात् और भारतीय परम्परा के अनुसार वर्षारम्भ के मध्य का यह काल एक ऐसा चैतन्य और ऊर्जामय अवसर है जबकि चैत्र नवरात्रि में की जाने वाली शक्ति साधनाओं के लिये आवश्यक ऊर्जा संग्रहित की जा सकती है। वास्तव में वे नवरात्रि के पूर्व इस काल का उपयोग अपने को पवित्र व उदात्त बनाने में करते थे। देव तर्पण, पितृ तर्पण और ऋषि तर्पण तो हमारी प्राचीन शैली का एक अभिन्न अंग रहा है। दैनिक जीवन का प्रारम्भ ही इस प्रकार से होता रहा है, और इसमें कोई नूतन बात नहीं, किन्तु पौष माह में वे जिस प्रकार से विशेष रूप से ऋषि पूजन करते थे, वह अवश्य ही साधना जगत का दुर्लभ और गोपनीय रहस्य है। केवल सप्त ऋषियों-सनक, सनन्दन, सनातन, कपित, आसुरी वोढु और पंच सिख का ही आह्नान और पूजन नहीं, वरन पुलह, पुलस्त्य, वशिष्ठ, मरीचि, नारद, भृगु, अंगिरा एवं इसी कोटि के अन्य उच्च आत्माओं का पूजन भी इसी विशेष माह में करने का विधान रखा गया है।
नव वर्ष का आगमन पुराने बीते हुये दिनों की कसैली यादों के अनुभव को भूल जाने का समय मानसिक तनाव, द्वन्द्वो को विस्मृत कर प्रसन्नता और उल्लास के आगमन का क्षण है और भी न जाने कितनी ही अभि-व्यक्तियों को उजागर करने का समय है यह। क्योंकि यह पल है जब हवाओं की सुमधुर संगीत की ध्वनि को सुना जा सकता है। जब उस संगीत पर थिरकने को जी चाहता है, जहां प्रातः की धूप एक सुखद एहसास लिये हुये होती है, जब सूर्य भी प्रेम के रंग में रंगा हुआ उदित होता है।
व्यक्ति भी नववर्ष के आगमन पर अपने तनाव को भूल कर, बाधाओं और समस्याओं को अलग कर, उल्लास युक्त हो, उमंग के साथ नववर्ष का स्वागत करता है, परन्तु अगले दिन से पुनः उन्हीं तनावों, समस्याओं और बाधाओं, उलझनों से जूझता ही रह गया है। व्यक्ति चाहे तो भी इस समस्याओं की व्यूह रचना से नहीं निकल पाता है, वह छोड़ना भी चाहे तो भी नहीं छोड़ पाता है। फिर ऐसे काल चक्र से निकल पाना किस प्रकार से सम्भव है, किस प्रकार व्यक्ति अपने तनावों को, बाधाओं को दूर कर अपने मार्ग को निष्कंटक करने में समर्थ होगा?
निश्चय ही इन सबका समाधान अपने गुरूदेव के सानिध्य में उच्चकोटि की साधना व दीक्षा है, यह एक ऐसा शस्त्र है जिस पर चलने वाला, जिसको धारण करने वाला व्यक्ति ही निर्भय हो पाता है, दृढ़ संकल्पित हो पाता है तथा वज्र की तरह बन जाता है।
प्राचीन समय से ही मानव नवीन सृजन के लिये अपने प्रथम आराधय सद्गुरू से शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान, साधना आत्मसात करते थे। जिसके द्वारा ही वे अपने जीवन में उच्च स्तर को प्राप्त कर पाये। इसी क्रम में वर्तमान में भी लोग अपने घर के बड़े बुजुर्गों, माता-पिता का आशीर्वाद लेकर नवीन कार्य सम्पन्न करते हैं।
लेकिन उनके जीवन में वह आनन्द, प्रेम, मधुरता, चैतन्यता, स्फ़ूर्ति, सम्पन्नता देखने को नहीं मिलती। क्योंकि वास्तविक रूप से नवीनता का सृजन जिस रूप में करना चाहिये उससे अधिकतर व्यक्ति वंचित ही रह जाते हैं, वो नूतनता के इस पर्व को अर्नगल क्रिया-कलापों में व्यतीत कर देते हैं। मुझे समझ में नहीं आता ये किस मानसिकता के शिकार हैं, जो समय साधना, पूजन, अपने इष्ट देव, गुरूदेव का चिंतन करने का होता है। वो ऐसे दिव्यतम अवसरों को शराब, सिगरेट, कान-फ़ोड़ू गीतो पर कूदने में व्यतीत कर देते हैं। यही कारण है कि उनके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन नहीं होता, अपने ही कर्मों के कारण वे अभाव युक्त जीवन व्यतीत करते हैं। कहते हैं व्यक्ति जिस प्रकार की क्रियायें करता है, वैसा ही भाव, चिंतन, कर्म का जागरण उसके जीवन में होता है। नवीनता का सृजन किस रूप में करना चाहते हैं आप? यह आप पर निर्भर है।
अपने सद्गुरू के सानिधय में नूतन शक्ति का सृजन कर जीवन को नवीन चेतना, स्फ़ूर्ति, उमंग, उत्साह, आत्मबल से नूतन निर्माण के लिये जीवन निर्माण साफ़ल्य शक्ति कुबेर लक्ष्मी चैतन्य दीक्षा, धूम्र वाराही कर्णपिशाचिनी शत्रुहन्ता दीक्षा, दुख, बाधा, पीड़ा, धनहीनता को भस्मीभूत करने हेतु कालभैरव गं विनायक मंत्रों से आहूति, आयु वृद्धि, आरोग्यता, कायाकल्प हेतु स्वःरूद्राभिषेक और नववर्ष नवीन चेतना आत्मसात युक्त सहस्त्र लक्ष्मी प्राप्ति दीक्षा और जीवन प्रगति की श्रेष्ठतम साधनायें पूज्य सद्गुरूदेव जी प्रत्येक साधक को नववर्ष की पूर्व संधया पर सम्पन्न करायेंगे। जिससे नूतनवर्ष हर स्वरूप में सुमंगलकारी भौतिक सुखों के साथ सभी लक्ष्यों की प्राप्ति लक्ष्मी स्वरूप में इस नूतन वर्ष में प्राप्त कर सकें और निरन्तर प्रगति के मार्ग पर गतिशील रह सकें।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,