पराजय का तात्पर्य है, पीडा, हानि, नुकसान, बाधा, विरोध, कार्य में अपूर्णता, अपमान इत्यादि यदि कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है, तो वह आपकी पराजय है, और बार-बार पराजय मिलती है तो उत्साह भी समाप्त हो जाता है, पराजित होना अथवा न होना आप पर ही निर्भर करता है। क्योंकि आपमें स्वयं में ही कोई कमी रहती है, अथवा दोष होता है, चाहे वह दोष किसी प्रकार के तांत्रिक प्रयोग से हो अथवा ग्रहदोष, पराजित होने का तात्पर्य है, आप पर कोई हावी हो रहा है, आप दब कर जी रहे हैं, और ऐसा जीवन में होता ही रहता है। अपराजेय होने का तात्पर्य है, कि आपके दोष दूर हो जाये, आप अपने-आपको पहिचान सकें, अपने संकल्प के अनुसार कार्य कर सकें, दूसरे यदि आपको हानि भी पहुंचाने का प्रयास करें, तो आपको हानि न पहुंचे, जो भी शत्रु आप पर किसी भी प्रकार तांत्रिक प्रयोग करें वह उल्टा पड़ जाये, आपको प्रभावित करने की बजाय उल्टा उसे ही हानि दे दे, तभी तो विशेषता है, जीवन का आनन्द है।
मनुष्य को यह जीवन इसलिये प्राप्त हुआ है, कि वह इस जीवन में पूर्णता प्राप्त करें, अपने जीवन में इन्द्रधनुष के समान सभी रंगों को देखे, उन्हें अनुभव करें, और इन अनुभवों को ग्रहण करने के पश्चात् जीवन में प्रगति के उस स्तर पर पहुंच जाये, कि उसे पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त हो सके, जीवन इसलिये नहीं मिला है, कि आप एक लीक पर चलते जाये, अपितु कुछ ऐसा करते रहें जिससे कि आगे बढ़ने का मार्ग निरंतर खुलता रहे, इस सफल मार्ग को, जो केवल उन्नति की ओर ले जाता है का आधार निश्चय ही कुछ सहयोगी, कुछ प्रेरणा प्रभूत व्यत्तिफ़त्व अवश्य होते हैं। साधारण व्यक्ति तो कोल्हू के बैल की तरह ही एक ही लीक पर चक्कर लगाता रहता है, और उसका जीवन पूरा हो जाता है, तब बुढ़ापे में वह सोचता है, चिन्ता करता है कि अरे यह जीवन तो पूरा होने को आ गया, कुछ कर ही नहीं पाया, मेरे साथ के लोग कितना आगे बढ़ गये।
यह सब क्या है, यह कोई बुद्धि कोई चमत्कार नहीं है, यह तो केवल एक साधारण समझ है, जिस समय को उचित प्रयोग में लाने से व्यक्ति उन्नति की एक-एक सीढ़ी निरन्तर चढ़ता रहता है, जीवन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही स्थितियों का संगम है, दोनों क्षेत्र पूर्णतः अलग-अलग नहीं है, कहीं न कहीं एक दूसरे से अवश्य ही मिलते हैं, आवश्यकता केवल इस बात की है, कि दोनों ही स्थितियों में सामंजस्य रखा जाये, वे व्यक्ति सौभाग्यशाली होते हैं। जिन्हें अच्छे मित्र मिलते हैं, अच्छे सहयोगी मिलते हैं, और सबसे बड़ी बात उन्हें पूर्ण योग्य गुरू प्राप्त होते हैं, जिनके एक आशीर्वाद से ही, जिनकी कृपा से ही उनके हृदय में हर समय उत्साह बना रहता है।
नवरात्रि के नौ दिवस, शक्ति के वह नौ दिवस हैं, जो आपके भीतर पूर्ण आत्मविश्वास भरने में सहायक हैं, आपके एक-एक अणु को क्रियाशील करने में समर्थ हैं, और इस शक्ति का सही उपयोग आपको पूर्ण क्रियाशील बना कर उन्नति के विशेष मार्ग की ओर ले जाता है, लेकिन ऐसा क्यों होता है, कि प्रत्येक व्यक्ति को सफलता नहीं मिल पाती, वह दिन भर जी तोड़ परिश्रम करता है, नौकरी करता है, व्यापार करता है, लेकिन पूर्ण परिश्रम करने के बाद भी व्यापार में सफलता नहीं मिलती, जिस हिसाब से प्रति वर्ष उन्नति होनी चाहिये, नहीं हो पाती है, केवल व्यापार प्रारंभ कर देने से ही भौतिक सम्पन्नता सम्भव नहीं हैं।
जब आप अपने जीवन में कुछ करने की सोच लेते हैं, तो उस हेतु आपको कार्य तो करना पड़ेगा, केवल स्वप्न देखने से कार्य नहीं होता, लेकिन यह भी आवश्यक है, कि आप जितना परिश्रम करें, उस परिश्रम का उतना फल आपको अवश्य प्राप्त हो, कार्य के मार्ग में निरन्तर बाधायें क्यों आती हैं, इस सम्बन्ध में विवेचन अत्यन्त आवश्यक है, योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने के उपरांत भी आर्थिक दृष्टि से लाभ नहीं हो पाता है, लाभ होता है, तो पैसा रूक जाता है, दूसरे आप से उधार लेते हैं, तो वापस धन समय पर नहीं आ पाता है। अथवा आप अपने कार्य के लिये अथवा व्यापार के लिये किसी से आर्थिक सहयेाग अथवा उधार लेने जाते हैं, तो आपको धन नहीं मिल पाता है, जबकि आपमें बुद्धि, चातुर्य, कार्य क्षमता पूर्ण रूप से है, इन सब के पीछे कुछ न कुछ कारण अवश्य रहता है।
आप में कुछ अपनी बाधाओं को अपने भाग्य का दोष मान कर शान्त हो कर बैठ जाते हैं, कुछ लोग ग्रहों का दोष, ग्रह चक्र, दशा मान कर शान्त हो जाते हैं और धीरे-धीरे उन्नति की भावना मरती जाती है, जबकि ऐसा बिल्कुल ही नहीं होना चाहिये, क्या भाग्य को बदला नहीं जा सकता क्या ग्रह दोषों को मिटाया नहीं जा सकता है, क्या आपके विरूद्ध किये गये तांत्रिक प्रयोगों को समाप्त नहीं किया जा सकता है, ये सब संभव है, इसके लिये चाहे जिस विधि और साधना करनी पड़े, अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिये।
तंत्र तथा मंत्र का संसार अत्यंत विशाल है। उन साधनाओं को संपन्न करने के लिये हृदय में पूर्ण आस्था आवश्यक है। वहीं गुरू का पूर्ण आशीर्वाद एवं निर्देश भी, यदि आपको साधना का तत्व प्राप्त है और आप अपने कर्म पथ पर अग्रसर हैं, तो उन्नति अवश्य प्राप्त होगी, इस हेतु यह आवश्यक है, कि आपके जीवन में बाधायें नहीं रहें। आप जो भी कार्य करना चाहें वह आपको एक ही बार के प्रयास से पूर्ण हो जाये, जीवन में विजय श्री प्राप्त हो।
प्रत्येक साधना का एक विशेष समय अवश्य होता है, और उस समय में साधना सम्पन्न करने से सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है, क्योंकि उस समय ग्रहों की गति, वायुमण्डल में चेतना उसी प्रकार की होती है, जो कि आपके मन्त्रों के जाप के माध्यम से आपका कार्य सफल होता है। जीवन में अपराजित रहने का तात्पर्य है, प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना, अपनी क्षमता का सामर्थ्य के अनुसार जो काम हाथ में ले, उसमें पूर्णरूपेण लक्ष्य सिद्धि अवश्य प्राप्त हो जाये, शास्त्रों के अनुसार अपराजिता के छः अर्थ हैं-
1- सभी प्रकार के शत्रुओ का पूर्ण दमन हो सके।
2- जीवन में किसी भी प्रकार का भय, बाधा, रोग, कष्ट या परेशानी न होना, सर्वथा रोग मुक्त हो कर जीवन व्यतीत करना।
3- वाद-विवाद मुकदमे इत्यादि में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त करना।
4- जीवन में अपनी आजीविका के सम्बन्ध में आने वाली बाधाओं की समाप्ति और कार्य सिद्धि।
5- किसी भी प्रकार की राज्य बाधा से पूर्णतः बचाव और कोई विपत्ति आये तो उसकी पूर्णतः निवृत्ति।
6- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपराजित रहते हुये पूर्ण आनन्द के साथ भोग और योग चेतना की प्राप्ति।
विजयादशमी एक ऐसा मुहूर्त सिद्ध पर्व है, जो आपके प्राणों में ऐसी शक्ति भर सकता है, कि आप स्वयं पूर्ण चैतन्यमय होकर क्रियाशील हो सकते हैं, विजयादशमी विजय को आह्नान करने का दिवस है, जिससे आपको अपने प्रत्येक कार्य में विजय ही प्राप्त हो, शत्रुओं पर आपका ऐसा तेजस्वी प्रभाव पड़े, कि वे आपके सामने झुके ही रहें, पूरे वर्ष स्तम्भन, शत्रु बाधा निवारण तांत्रिक दोष निवारण हेतु, इन दिवसों में की गई साधना अत्यंत फलदायक रहती है।
विजयदशमी के दिन की जाने वाली कुछ विशेष साधनाओं का विवरण नीचे दिया जा रहा है, आप अपने जीवन में सर्व श्री की प्राप्ति हेतु सद्गुरूदेव के सानिध्य में साधना अवश्य करनी चाहिये। और सफलता तब ही प्राप्त होती है। जब आप साधना के प्रति दृढ़ निश्चय हो व पूर्ण आत्मविश्वास के साथ सम्पन्न करें।
जीवन में अपराजित भाव होना ही पौरूषता का परिचय है। यदि आपमें पौरूषता है तो आप किसी भी क्षेत्र में पराजित नहीं हो सकते और विजयदशमी एक ऐसा ही पर्व है जब मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम ने अपने जीवन की सभी विषम परिस्थितियों, शत्रुओं, आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर पुरूषोतम मय चेतना से युक्त हुये, ऐसा ही प्रत्येक साधक जीवन की सभी विषम स्थितियों, विकारों, न्यूनताओं, अभावों, आर्थिक न्यूनताओ और रावण रूपी शत्रुओं का पूर्णरूपेण संहार कर सकें इस हेतु पूज्य गुरूदेव के दिव्य सानिधय में विजय दशमी के दिव्यतम पंच दिवसीय 20-21-22-23-24-25 अक्टूबर को कैलाश नारायण धाम दिल्ली में सर्व कार्य विजयश्री दीक्षा, अष्ट सिद्धि तारा वैभव लक्ष्मी दीक्षा, सहस्त्र चक्र जागरण दीक्षा, कर्ण पिशाचिनी शक्ति दीक्षा, सर्व सम्मोहन वशीकरण दीक्षा, दीर्घायु ललिताम्बा लक्ष्मी दीक्षा के साथ ही जीवन के सभी पक्षों पर विजय प्राप्त कर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्रों में शीर्ष उन्नति हेतु विजयोत्सव साधना, नव शक्ति मंत्रों से हवन, अष्ट लक्ष्मी दुर्गा शक्ति मंत्रों से अंकन की श्रेष्ठतम क्रियायें सम्पन्न होगी। जिससे आने वाला दीपावली उत्सव श्रेष्ठ स्वरूप में अक्षुण्ण रूप से निर्मित हो सकें। दीक्षा दिवसों में व्रतमय महाप्रसाद की व्यवस्था रखी गयी है।
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