कृष्ण यह श्लोक कह रहे हैं तब भीष्म हाथ जोड़ कर खडे हो गए और उन्होंने कहा कि ये कौरव और पांडव आपको नहीं समझ पाये, किसी ने आपको मित्र कहा, किसी ने शत्रु कहा, दुर्योधन ने आपको शत्रु कहा, अर्जुन ने सारथी कहा, युधिष्ठिर ने आपको मित्र कहा, द्रौपदी ने आपको सखा कहा, मगर आप इन सबसे परे हैं। आपका जो वास्वतिक रूप है वह मैं कुछ-कुछ अंश अहसास कर रहा हूं। तो कृष्ण ने भी गीता में कहा है- ये यथा मां प्रपजस्ते ते तथाव्यं भजाम्यं जो जिस ढंग से मुझे देखता है मैं उसी ढंग से उसके साथ हो जाता हूं। यदि कोई मुझे प्रेमी के रूप में देखता है तो मैं उसका प्रेमी हो जाता हूं। कोई मुझे शत्रु के रूप में देखता है। तो मैं उसका शत्रु हूं, घोर शत्रु हूं, जो मित्र के रूप में में देखता है उसका पूर्ण मित्र हूं, कोई सहायक के रूप में देखता है तो मैं सहायक हूं, जो जिस रूप में देखता है, जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं उसी रूप में उसके साथ हो जाता हूं। तुमने मुझे देवत्व रूप में देखा है क्योंकि तुम्हारे ज्ञान नेत्र खुले हैं, इसलिए मैं तुम्हारे सामने साकार विराट् रूप में हूं। अर्जुन ने मुझे सारथी के रूप में देखा है तो मैं सारथी हूं, दुर्योधन ने मुझे शत्रु के रूप में देखा है तो मैं शत्रु हूं। ठीक वही स्थिति जो गीता में कही कि ये यथा मां प्रपज्स्ते—-जो जैसा मुझे देखता है, जैसी आंखों से, जिस चिंतन से, जिस विचार से, वह मुझ से वैसी ही उपलब्धि प्राप्त कर सकेगा।
अगर आप कहेंगे कि गुरूजी सामान्य ही हैं, तो आपको सामान्यता ही मिल पायेगी। यदि आप विशिष्टता देख पाएंगे तो आपको विशिष्टता मिल पायेगी। यदि आप प्रेम देख पायेंगे तो आपको प्रेम मिल पायेगा। आप कुछ नहीं देख पायेंगे तो आपको कुछ नहीं मिल पायेगा। मैं तो उसी जगह खड़ा हूं, आप किस रूप में मुझे देखते हैं वह आप पर निर्भर है और कोई रूप अपने आप में गलत नहीं होता। शत्रु रूप भी अपने आप में सही है, मित्र रूप भी सही है, प्रेम रूप भी सही है। हर चीज अपनी जगह सही है। आंख की जगह आंख सही है, पैर की जगह पैर सही है आप कैसा चिंतन करते हैं उस पर निर्भर है। कृष्ण ने भीष्म से कहा यह महाभारत युद्ध जब मैंने प्रारंभ कराया तो हजारों आलोचनायें हुई, मगर मैंने इसलिये करवाया क्योंकि पाप बहुत बढ़ गया था और उस समय युद्ध शुरू करवाया, जब ग्रहण काल आरंभ हुआ, जिससे विजय पाण्डवों की ही हो।
ग्रहण काल का इतना महत्व है। मगर हम कितने विपरीत जा रहें हैं। ग्रहण काल में बैठ जाते हैं हाथ पर हाथ रख कर कि ग्रहण है अभी कुछ नहीं करना चाहिये। पानी भी नहीं पीना चाहिये, खाना भी नहीं खाना चाहिये, खाना पकाते नहीं हैं। लोग कुछ करते नहीं और घर में बंद होकर बैठ जाते हैं। शब्द तो है ग्रहण यानि स्वीकार करना और हमने उसे त्याज्य बना दिया, छोड़ दिया, बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर हम चले गए। हमें ज्ञान ही नहीं रहा। इसलिये नहीं रहा कि बीच में कोई गुरू की कड़ी मिली नहीं, जो समझा सके कि यह ग्रहण है, यह त्याज्य नहीं है। राम जब युद्ध करते-करते थक गए, पसीना आ गया तो उन्होंने मुड़कर के पीछे देखा, तो वहां गुरू विश्वामित्र खड़े थे। राम ने कहा कि मैं इस रावण को तो मार नहीं सकता। मैं मारता हूं तो फिर से खड़ा हो जाता है। विश्वामित्र ने कहा तुम एक घड़ी ठहर जाओ। एक घड़ी का अर्थ है छत्तीस मिनट। एक घडी ठहर जाओ। ग्रहण काल प्रारंभ होने वाला है उस समय ठीक नाभि में तीर चलाओंगे और शत्रु समाप्त हो जायेगा। छत्तीस मिनट तुम्हें ज्यों-त्यों व्यतीत करने हैं क्योंकि ग्रहण काल में ही तुम विजय प्राप्त कर पाओगे।
आप विश्वामित्र संहिता को पढें, राम ने राज तिलक से पहले वशिष्ठ को प्रणाम नहीं किया, विश्वामित्र को प्रणाम किया कि आपने मुझे सही समय का ज्ञान दिया और यह समझाया कि आप में बहुत उपलब्धि परक चीज है, सब कुछ प्राप्त करने की क्रिया है, छोडने की क्रिया नहीं है। और वास्तव में ग्रहण काल में सब कुछ प्राप्त कर लेने का अद्भुत समय है, ऐसा समय जहां पराजय होती ही नहीं। मगर आप पर निर्भर है कि आप किस प्रकार से उन क्षणों का प्रयोग करते हैं। अब उस समय में आप गालियों को ग्रहण करना चाहें तो गालियों को ग्रहण कर लें, आलोचनाओं को ग्रहण करना चाहें तो आलोचनाओं को ग्रहण कर लें। मन में शंकायें होंगी तो आपकों शंकायें ही प्राप्त हो पायेंगी, ज्ञान प्राप्त करेंगे तो ज्ञान प्राप्त हो पायेगा। श्री कृष्ण ने कहा कि मैं बार-बार जन्म लेना चाहता हूं और मनुष्य जीवन लेना चाहता हूं, गर्भ से जन्म लेना चाहता हूं, फिर नटखट बालक बनना चाहता हूं और मुस्कुराते हुए, हंसते हुए, खिलखिलाते हुए और वीरता से शत्रुओं को समाप्त करना चाहता हूं।
और मैं भी आपको ज्ञान देना चाहता हूं। मगर इसमें बहुत परिश्रम है, एक प्रकार का जूझना है। आप कुनैन लेंगे नहीं, इसलिए शक्कर में घोल कर के मैं आपको कुनैन देने का प्रयास कर रहा हूं। मगर दूंगा जरूर जिससे कि आप सफलता प्राप्त कर लें। आदमी का अर्थ समाप्त होने की क्रिया है। जब पैदा होता है तो पैदा होते ही वह कुछ मृत्यु की ओर सरक जाता है। किसी की उम्र मान लो साठ साल है तो ज्यों ही पैदा हुआ तो पांच मिनट बाद उस साठ साल में पांच मिनट कम हो गये, यानि वह सरकने लग गया मृत्यु की ओर। जीवन की ओर नहीं सरक पाया और एक दिन ऐसा आयेगा कि वह मर जायेगा और एक दिन ऐसा भी आयेगा कि लोग उसे भूल जाएंगे और भूलने के लिए हम पैदा हुये नहीं है और हमें भूल गए तो हमारा जीवन बेकार, आपके गुरू भी बेकार आपका शिष्य बनना भी बेकार और मैं भी बेकार फिर। इसलिए कुछ ऐसा करें कि लोग याद रखें, आने वाली पीढियां याद रख सकें। और ऐसा तब हो सकता है जब आप देवत्व बन सकें। मनुष्य हो पर ऐसे मनुष्य हो जिसमें पौरूष हो, ताकत हो, जोश हो, जिसमें हिम्मत और साहस हो।
आपने पढ़ा होगा या सुना होगा कि राजस्थान में खाटू स्थान है। वहां श्याम कृष्ण की मूर्ति है वहां पर हर वर्ष 2 लाख लोग एकत्र होते हैं। मगर वहां कृष्ण की मूर्ति है ही नहीं। वह बब्रुवाहन की मूर्ति है। भीम का पुत्र घटोत्कच, घटोत्कच का पुत्र बब्रुवाहन या बरबरीक। कृष्ण जानते थे कि बब्रुवाहन जैसा वीर संसार में है ही नहीं, अर्जुन तो इसके सामने तिनके की तरह है। उड़ जायेगा एक क्षण में और मुझे अर्जुन को विजय दिलानी है। अब कूटनीति मुझे क्या चलनी चाहिए? उन्होंने बब्रुवाहन को बुलाया और कहा- तुम कैसे वीर है? तुम वीर हो भी? उसने कहां-मैं अभी आपको प्रमाण दे देता हूं। उसने तीर उठाया और पीपल के बिखरे हुए पत्ते इक्कीस। एक तीर से इक्कीस पत्तों को छेद दिया और इक्कीसवां पत्ता कृष्ण के पैर के नीचे था। बब्रुवाहन ने कहा-श्री कृष्ण अपना पैर हटा लीजिये वरना पैर भी छिद जायेगा। उसने इतने उड़ते हुये पत्तो को एक तीर से छेद दिया।
कृष्ण ने सोचा-पांडव नहीं टिक सकते इस बब्रुवाहन के सामने। संभव ही नहीं है क्योकि यह कौरवों की तरफ है। कृष्ण ने कहा या तो तुम शत्रु बन जाओ या एक वरदान दो। दोनों में से एक काम कर लो। बब्रुवाहन ने कहा- आप जो भी चाहें वह मैं कर लूंगा। आप चाहें तो मैं सबको अकेला समाप्त कर सकता हूं। इतनी ताकत मुझमें है और आप अगर कुछ मांगें मुझसे तो मैं देने को तैयार हूं। आप कृष्ण हैं और मैं जानता हूं कि आप क्या हैं। आप वरदान मांग लीजिए। जो आप मांगेंगे वह मैं आपको दूंगा। कृष्ण ने कहा मुझे तुम्हारा सिर चाहिए। बब्रुवाहन ने कहा इतनी सी बात है। मैं सिर दे देता हूं, मगर मैं यह चाहता हूं कि आप इतनी उंचाई पर मेरा सिर रखें कि मैं महाभारत युद्ध को देख सकूं। बस इतना ही आपसे चाहता हूं। उसने अपना सिर काट करके कृष्ण के हाथ में दे दिया और कृष्ण ने कहा तुम मेरा ही रूप बन करके इस संसार में पूजे जाओगे। राजस्थान में खाटु एक जगह है।
वहां पर कृष्ण की मूर्ति है और वास्तव में वह बब्रुवाहन की मूर्ति है जिसकी कृष्ण के रूप में आज भी पूजा होती है और आज भी वहां हर वर्ष कम से कम ढाई-तीन लाख लोग इक्कठे होते हैं। यह वीरता का सर्वोच्च उदाहरण है। मनुष्य अपने आप में इतना वीर बन सकता है, ताकतवान बन सकता है। फिर वह वृद्ध बनता ही नहीं। वह वास्तविक पौरूष है और अस्सी साल की उम्र में भी एक पौरूषता आ सकती है, ताकत आ सकती है, क्षमता आ सकती है और वह हो सकता है, जब हम पुरूष से महापुरूष, महापुरूष से देवत्व बनें। और देवत्व बनने की क्रिया इतनी आसान नहीं है। मैं सिर्फ कहूं उससे आप देवता नहीं बन पायेंगे। जब हमारे शरीर के अंदर जो अणु हैं, जब उन अणुओं को परिवर्तित किया जायेगा तब देवत्व स्थापन हो पायेगा और जब देवत्व स्थापन होगा तो साधना हो पायेगी। मनुष्य यों साधना कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसका मन उसके कंट्रोल में नहीं आ सकता। इतने उच्च योगी नहीं है और योगियों के मन भी शांत नहीं है, योगी होने के बावजूद भी यह कोई जरूरी नहीं कि मन शांत रहे ही। भृतहरि ने कहा है घास-फूस, पत्ते, हवा और पानी पीकर के भी वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, गर्ग बैठें हैं उनका मन भी चंचल रहता है तो गुरूदेव मेरा मन स्थिर कैसे हो पायेगा और आप कह रहे हैं कि अपना मन स्थिर करो। मैं यह कैसे करूंगा? उनके ही मन स्थिर नहीं हो पा रहे हैं जो घास फूस खाते हैं। मैं तो अन्न खाता हूं, दूध पीता हूं, घी खाता हूं तो मेरा मन शांत कैसे होगा?
मन शांत हो पायेगा, जब आपके अणु परिवर्तित हो पायेंगे। आपने अखबार में पढ़ा होगा कि भेड़ की अणुकृति लेकर पूरी की पूरी भेड़ बना दी नई। एक अणु को लेकर उस भेड़ में से एक अणु निकाला, उसका दूसरी जगह बीजारोपण किया और ठीक वैसी की वैसी भेड़ बना दी और पूरे संसार में तहलका है कि पूरी की पूरी अगर एक भेड़ बना दी तो वैसा का वैसा आदमी भी बन जायेगा आपके अंदर से एक अणु निकाल करके। आपकी तरह ही बीस और व्यक्ति खडे़ हो जायेंगे और पहचान नहीं सकेंगे कि असली व्यक्ति कौन है। पत्नी भी नहीं पहचान पायेगी कि इनमें से असली कौन है। इतनी क्रांति आ रही है और यह क्रांति इसलिये आ रही है कि अणु को पहचानना प्रारंभ कर दिया। विज्ञान ने और हम उससे पहले ही अणु को पहचान गये थे। कणाद ने अणु की पूरी व्याख्या की है। कणाद ने और कुछ लिखा ही नहीं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति देवत्व तब स्थापन कर सकता है जब उसके अणु परिवर्तित होंगे और हमारे अणु अगर राक्षसमय ज्यादा हैं तो हम राक्षस वृत्ति के होंगे।
और हम राक्षस वृत्ति के हैं, हमें स्वीकार करना पडे़गा। हम केवल आलोचना करते है, गालियां देते हैं मन में, वितृष्णा रखतें हैं, झूठ बोलते हैं, दूसरों के प्रति ईर्ष्या रखते हैं। राक्षस वृत्ति अधिक है, देवत्व वृत्ति बहुत कम है, आती है, और मिट जाती है। स्थायी देवत्व वृत्ति तब बन पायेगी जब हमारे अणुओं में परिवर्तन होगा। यदि आपके अंदर हृदय या नई किड़नी लगायें तो ब्लड टेस्ट होगा। ए ग्रुप है या बी ग्रुप है वह तो देखा ही जायेगा। उसके बाद मांस पिण्ड देखा जाएगा कि आपका मांस और जिसकी किडनी दे रहें हैं वह मांस एक जैसा है या उसके बाद में जो मांस के अंदर अणु है वे मिलायेंगे। अणु मिलेंगे तो वह हृदय समाहित हो पायेगी। इसके लिये अणु तक पहुंचना पड़ेगा। केवल आपको दीक्षा देने से काम नहीं चल पायेगा। आपके अणुओं तक पहुंचने की क्रिया जो देगा तो आपको राक्षस भी बनाया जा सकता है और आपको देवता भी बनाया जा सकता है, पुरूष, महापुरूष और देवता इसलिए हैं कि हम वो सारे नक्षत्र देख लें, वे सारे ग्रह देख लें, सारा ब्रह्माण्ड देख लें इस मनुष्य शरीर में रहते हुये कि चंद्र लोक क्या है, शुक्र लोक क्या है, अगर ये सब देखे ही नहीं तो फिर मनुष्य शरीर धारण ही क्यों किया और फायदा भी क्या हुआ।
धनवान कैसे बन सकते हैं, करोड़पति कैसे बन सकते हैं, योग्य संतान कैसे पैदा कर सकते हैं, वह सब क्षमता प्राप्त करना अणुओं के माध्यम से हो सकता है। देवताओं के यहां देवता पैदा हो सकते हैं। राक्षसों के यहां राक्षस ही पैदा होंगे। अधिकतर बेटा बाप की तरह ही बनेगा। अधिकतर चेहरा ऐसा ही बनेगा और वृत्तियां भी ऐसी ही बनेंगी। इसलिए अणुओं को परिवर्तित करने की जरूरत है। किंतु अणुओं को परिवर्तित आम आदमी, आम गुरू नहीं कर सकता। जिसको ज्ञान ही नहीं है, वह ऐसा नहीं कर सकता। अब अणु हैं कहां?
आप अगर मांस निकालें तो मांस तो अणु है नहीं। मांस के टुकडें-टुकडे़ कर दें तो वे भी अणु नहीं हैं और शरीर के एक-एक रोम में अणु है। अणु का अर्थ है कि एक सुई की नोक पर हजार अणु आते हैं। उन अणुओं को परिवर्तित करने पर देवत्व प्राप्त हो सकता है और यदि आपको देवत्व की ओर अग्रसर होना है तो उन पूरे अणुओं को परिवर्तित करना पड़ेगा और वे अणु परिवर्तित होंगे मंत्रों के माध्यम से क्योंकि कहा गया है- मंत्राधिनाश्च देवता। ये सारी जो क्रियायें हैं वे मंत्रों के अधीन हैं। मंत्र का अर्थ है, मैं बोलूं और आपके कानों में उतरे। मैं बोलूं और उसका प्रभाव हो। मैं अगर आपको मां की गाली दूं तो आप एकदम पत्थर लेकर खड़े हो जाएंगे। ज्योंही मैं गाली दूंगा आप एकदम क्रोधित हो जाएंगे। मैंने तो आपको हाथ भी नहीं लगाया। मगर शब्द द्वारा आपको क्रोध दिला दिया और आप मारने को तैयार हो गये। आपके और मेरे बीच में क्या था?
शब्द थे! मैंने शब्द बोला, वह आपके अंदर उतरा और उसका प्रभाव हुआ। अगर आपको शब्द द्वारा क्रोध दिला सकता हूं तो शब्द द्वारा देवत्व भी स्थापित कर सकता हूं। और क्रोध भी वह नहीं दिला सकता है, गुरू जो क्रोध कर ही नहीं सकता। अगर मैं खुद क्रोधमय बनूंगा तो आपको क्रोधमय बना पाऊंगा। अगर खुद मरा हुआ हूं तो आपको क्या क्रोधमय बना पाऊंगा? आपके और मेरे बीच में शब्द हैं और शब्दों ने आपको क्रोध दिलाया है। शब्द ही मिलकर के मंत्र बनते हैं गाली एक मंत्र है, जिसने आपको क्रोध दिला दिया। एक मंत्र ऐसा भी है जो आपको देवता बना सकता है, शब्दों का जो योग है वह मंत्र कहलाता है। वह चाहे अच्छा है, चाहे बुरा है। और जब तक हम देवता बनेंगे नहीं, तब तक साधनाओं में सफलता मिलेगी नहीं इसलिए पहले हम पवित्रीकरण करते हैं कि अपवित्रे पवित्रः—गंगा जल स्नानं कुर्यात—संकल्प करते हैं, यज्ञोपवीत हाथ में लेते हैं। बाहरी कर्मकाण्ड तो करते हैं पर अंदर कुछ परिवर्तित होता ही नहीं। यह होता नहीं है इसीलिये तो जैसे आप साल भर पहले थे वैसे मेरे सामने आकर खडे़ हो जाते हैं। इसमें आपका दोष है ही नहीं। इसलिए नहीं कि आप उस स्थिति में मेरे सामने आकर खड़े हुए ही नहीं। साधना करते-करते आप धीरे-धीरे उस स्थिति पर पहुंच सकते हैं कि फिर गुरू एकदम से अणु परिवर्तित कर सकता है। कि अब एम-ए पास लड़का हो गया है। अब मैं इसे डॉक्ट्रेट करा सकता हूं। पहली क्लास वाले को तो डॉक्ट्रेट करा भी नहीं सकता था इतने घिसते-घिसते पांच साल, दस साल गुरू को विश्वास होता है कि अब वह अणु परिवर्तित करके उन्हें देवता बना सकता है। फिर वह संसार को दिखा सकता है। कि ये उसके शिष्य हैं जिन पर उसको गर्व है।
यह जीवन की एक महत्वपूर्ण क्रिया है अणु परिवर्तन की जो कि ग्रहण काल में ही सम्पन्न होती है। और ग्रहण काल में सफलता मिलती है। असफल हो जायें, संभव ही नहीं। गुरू को मालूम है कि ग्रहण के क्षण कितने बहुमूल्य हैं। यह जरूरी नहीं कि आप परिवर्तित हों। आप परिवर्तित होंगे तो एक क्षण के लिए होंगे, वापस वैसे ही बन जाएंगे। मगर आपके अणु परिवर्तित करने पर आपकी जो भी इच्छा होगी वह पूरी होगी ही, आप जो भी चाहेंगे वह होगा ही। देवता जो भी चाहता है वह प्राप्त हो जाता है। क्योंकि कल्पवृक्ष अपने आपमें देवतामय है। मैंने कहा कि आप जैसा मुझे याद करेंगे, मैं बन जाऊंगा। आप मुझे समझें कि यह ज्ञानवान है तो आप जो कुछ मेरे पास बैठकर मांगेंगे वह मैं दूंगा और आपको मिलेगा, हर हालत में मिलेगा। यदि आप उस भावना के साथ मेरे पास बैठेंगे तो वह भावना पैदा होगी जब आपके अणु परिवर्तित होंगे। मन को बदलने से कुछ नहीं होगा। मन तो फिर भटक जायेगा। ज्योंही आप मुझसे दूर गये और मन भटक जाएगा। आपका मन फिर से बदल जाएगा और जो कुछ आपने किया, वह बेकार हो जाएगा।
मगर अणु बदलने पर आपका मन नहीं बदल सकता। फिर आप चाहें कि आप चिर यौवन बनें तो चिर यौवनवान बनेंगे, पुत्रवान बनेंगे, धनवान बनेंगे, लक्ष्मीवान बनेंगे। मैं भी चाहता हूं आप एक बार करोड़पति बनें, देखें कि एक करोड़ रूपये गिनने में क्या आनंद आता है। वह भी करके देखें आप। देखें जंगल में जा करके कि जमीन पर लेट कर चांद तारों को देखने में मजा क्या है-वह भी आप देखें। पांच दिन भूखे रहकर भी आप देखें और हलवा पूरी भी खाकर देखें। सब भोग आपके जीवन में होना चाहिये, यौवन, सौंदर्य, स्वास्थ्य, पौरूष, क्षमता और जीवन के सारे भोग विलास मैं चाहता हूं मिलें आपको। मैं ऐसा गुरू नहीं हूं कि यह सब आपको मिलना नहीं चाहिए, आप मेरी सेवा करते रहिए। आप मेरी सेवा मत करिए। मेरे हाथ हैं दो और एक हजार हाथ हैं जिनके माध्यम से मैं अपनी सेवा कर सकता हूं। कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया तो अपने साथियों को कहना पड़ा कि अपनी-अपनी लाटियां टेकिए जरा, पर्वत बहुत भारी है।
वे बेचारे ग्वाले लाठी टेककर पर्वत को कैसे उठाएंगे, मगर फिर भी कृष्ण ने उनको श्रेय दिया। मैं भी श्रेय दे रहा हूं आप मेरी सेवा करें। आप क्या मेरी सेवा करेंगे? राम खुद सीता को ढूंढ कर ले आते, लेकिन उन वानरों को श्रेय देना था सुग्रीव को, नल को नील को, हनुमान को। हम कहते हैं कि हनुमान जी ने बहुत बड़ा काम किया और हनुमान भी खुश कि मैंने काम किया प्रभु का। और आप भी खुश हो रहे हैं कि मैंने गुरूजी का कार्य किया। हो सकता है आप अभी जुड़े हों, पांच दस साल पहले, आप नहीं थे बीस साल पहले कौन काम करता था? क्योंकि आप मेरे हैं इसलिए आपको सेवा का अवसर मैं दे रहा हूं। बाकी आपसे मुझे कुछ चाहिए नहीं। मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि आप देवत्व मय बनें। देवत्वमय बनेंगे तो आगे के जीवन का उपयोग कर पाएंगे, मानव शरीर तो केवल अस्थि चर्ममय देह है, चमडी, मांस, हड्डियां। चौथी चीज कोई है ही नहीं। जिस प्रेमिका को हम बिना देखे एक पल रह नहीं सकते कि तुम्हारे बिना जीवन अंधूरा है, मैं मर जाउंगा और वह मर जाए तो आप एक क्षण देखना नहीं चाहेंगे। आप ही कहोगे- जलाओ इसको जल्दी से। क्या हो गया आपको? एक मिनट पहले तो आप रह नहीं पाते थे उसके बिना और अब एक मिनट बाद जलाने की क्रिया शुरू कर दी आपने। इसलिए कि आप अणुओं से नहीं जुडे़ हुए थे, शरीर से जुड़े हुए थे। सुंदर शरीर था इसलिए जुड़े हुए थे। शरीर और अणु में यह अंतर है और अणु परिवर्तित होंगे तो आप देवता बन पायेंगे।
देवता बनेंगे तो आप उनके समकक्ष बन पायेंगे जो कृष्ण हैं, जो इंद्र हैं, जो यम हैं, जो कुबेर हैं, जो रूद्र हैं, जो शिव हैं, जो विष्णु हैं जो ब्रह्मा हैं, आप उनके लेवल पर खडे हो पायेंगे। फिर आप जहां चाहें वहां जन्म ले सकेंगे। अगर चाहेंगे तो ही जन्म ले सकेंगे जिस गर्भ में चाहें उस गर्भ से जन्म ले सकेंगे। ब्रह्माण्ड के जिस लोक में जाना चाहें, जा सकेंगे। और यदि भेड़ के एक अणु से पूरी भेड़ बना सकते हैं, तो आपके तो शरीर में लाखों अणु है, लाखों अणुओं से तो असीमित शक्ति प्राप्त हो सकती है एक अणु बम पूरे हिरोशिमा, नागासाकी को समाप्त कर सकता है। परन्तु उस असीमित शक्ति को अणुओं को परिवर्तित करके ही प्राप्त किया जा सकता है और यह परिवर्तन की क्रिया ग्रहण काल में ही हो सकती है। ऐसा क्षण आयेगा तो पूरा शरीर आलोकित होगा विलोडि़त होगा। पूरे शरीर में एक भूकंप आयेगा, एक भूचाल सा आयेगा। और आज आप देख ही रहे हैं कि विश्व में क्या हो रहा हैं बूथ कैप्चरिंग हो रही है, गोलियां चल रही है, बम फट रहें हैं, इतने लोग मर रहें हैं, हर जगह व्यक्ति असुरक्षित सा हो गया। यह क्या हो गया? पूरा विश्व बदल गया, नेता बदल गये, स्थिति बदल गई आपका पूरा जीवन ही बदल गया। अब यह रचनात्मक भी हो सकता था और आगे हो सकता है परंतु मनुष्य शरीर से नहीं सबसे पहले आपके अणुओं को परिवर्तित करने की जरूरत है। अब उसके दो तरीके हैं या तो साधना के माध्यम से या दीक्षा के माध्यम से तरीके तो दो ही हैं।
या तो कृष्ण अर्जुन को समझायें कि समझ ले मैं देवता, मैं महापुरूष हूं और या फिर अपना विराट रूप दिखायें। तीसरी कोई स्थिति थी ही नहीं कृष्ण के पास। समझाते-समझाते थक गये तो उन्होंने अपना विराट रूप दिखाया कि मैं तुम्हारा सारथी नहीं हूं। घोडे़ चलाने वाला नहीं हूं मैं, पूरा ब्रह्माण्ड मेरे अंदर समाया हुआ है, देख ले अब। तब जाकर ज्ञान हुआ अर्जुन को, तो या तो मैं साधना कराऊं या आपको दीक्षा दूं। अब मैं आपको मंत्र दूं तो आप मंत्र जप कर नहीं पायेंगे। करेंगे भी तो शरीर से करेंगे। कभी करेंगे, कभी नहीं करेंगे कभी आप खाना खा कर करेंगे, कभी आलस्य में करेंगे, कभी आप सफर में होंगे और आप नहीं कर पायेंगे। नहीं कर पायेंगे तो मेरी मेहनत बेकार हो जायेगी और आप भी कहेंगे कि गुरूजी कुछ हुआ ही नहीं। मैं यह स्थिति टालना चाहता हूं। यह स्थिति टालने के लिए एक तरीका है, ब्रह्माण्ड रूप दिखाना और दूसरा तरीका है दीक्षा देना।
यह साधना के द्वारा भी हो सकता है, पूर्ण अणु परिवर्तित देवत्व सिद्धि और यह दीक्षा के माध्यम से भी हो सकता है। दीक्षा देना गुरू के लिए कठिन है क्योंकि उसे अपने शरीर का, अपनी तपस्या का अंश देना पड़ता है। पुत्र पैदा करना बहुत कठिन है क्योंकि मां के पूरे शरीर के खून को निचोड़ कर वह पी लेता है। जो कुछ खाती है मां, उसका पूरा रस, बच्चे के पेट में ही जाता है। मां के शरीर में ताकत धीरे-धीरे कम होती रहती है, वह अशक्त होती रहती है, उठ नहीं पाती है, चल नहीं पाती है। क्या हो गया उसको? सारा रस तो वह बच्चा, ले लेता है और यदि मैं दीक्षा दूंगा तो मेरा सारा तत्व तो आप ले लेंगे। इसलिए गुरू सहज ही दीक्षा देते ही नहीं—और दीक्षा मिल जाये यदि कोई सद्गुरू ऐसी दीक्षा दे दे तो पूर्णता का एहसास होता ही है।
जो भी पुरूष हैं वे पुरूष तभी पूर्णता प्राप्त करते हैं जब उनमें एक स्त्रीत्व आता है, नारीत्व आता है। कभी आप अपने आप को गुर्जरी या गोपी बनाकर देखें और फिर कृष्ण के भजन को सुनें, फिर आप को एहसास होगा कि चित या मन कितना कोमल बन जाता है। और हृदय प्रेम से सिक्त हो जाता है। पौरूषता में जब तक एक नारी सुलभ कोमलता नहीं आ पायेगी तब तक सर्वागीण विकास भी नहीं हो पायेगा। जीवन केवल पुरूष से नहीं बन सकता, जीवन केवल स्त्री से भी नहीं बन सकता। भगवान शिव अपने आपमें अर्द्धनारीश्वर कहलाये। आधा शरीर नारी का था, आधा शरीर पुरूष का था। कृष्ण को भी अर्द्धनटराज कहा गया, आधा एकदम लक्ष्मी स्वरूप था और आधा नारायण स्वरूप थे। ऐसा क्यों कहा गया? अर्द्धनारीश्वर कहने के पीछे क्या मतलब था उनका? क्या शिव के त्रिशूल में ताकत नहीं थी? क्या उनके सुदर्शन चक्र में कोई मूढ़ता आ गई थी? हृदय का जो रस प्रवाह होता है वह दोनों की संयुक्तता से होता है अगर मैं नारी बन कर के कृष्ण के भजन को सुनूं तो एक रस एक संगीत अलग तरह का आ पायेगा। एक नारी पुरूषत्व को मनन करके, कृष्ण में अपने आप को लीन करती हुई भजन सुनेगी तो उसमें एक अंतर आता है। जीवन खाली पुरूष बनने से नहीं चलता, जहां पुरूष बनना होता है वहां पुरूष ही बनना पड़ता है और जहां नारी आवश्यकता है तो नारी ही बनना पड़ता है और यहां नारी बनना पड़ता है। सारे भक्त कवियों ने, ऋषियों ने, योगियों ने, मुनियों ने, नारी बन करके ही भगवान को अपनाया है, चाहे वे कृष्ण हों, चाहे शिव हों। एकाकार होने के लिए दोनों का सम्मिलन होना आवश्यक है और इनके सम्मिलन को योग कहते हैं। जहां योग शब्द आया है तो उसका अर्थ है दोनों का संयोजन। हम अपने आप में स्त्रीत्व की भावना को भी सम्मिलित करें। हमारी आंख में भी लज्जा, मुस्कुराहट, आकर्षण, सम्मोहन आये और हममें ताकत और क्षमता भी आये।
और ऐसा होगा तो ही जीवन में आनन्द होगा, एक मस्ती होगी मस्ती आपके अंदर से ही प्रकट होगी, बाहर से मस्ती कहीं से आती ही नहीं, कोई नहीं देगा आपको मस्ती बाहर से। बाहर से तो दुख आयेगा, वेदना आयेगी, तकलीफ आयेगी। चाहे आपका बेटा हो, चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, वहां से अपको प्रसन्नता आ ही नहीं सकती। आयेगी तो केवल आपके भीतर से आयेगी। आप अपने मन को आलोडि़त-विलोडि़त करेंगे तभी जीवन में एक आनन्द, एक उल्लास, उमंग, जोश और जो आप चाहते हैं वह प्राप्त हो पायेगा। मन के अंदर से वह चिंगारी फूटे इसलिए भजन गाये जाते हैं, सुने जाते हैं। यदि कबीर को सुनें तो उसने कहा- मैं राम की बहुरिया हूं। चैतन्य महाप्रभु ने कहा- मैं तो कृष्ण की दासी हूं जो उसमें लीन हूं। पुरूष होकर भी क्यों उन्होंने नारी सुलभता प्रदर्शित की? और नारी कोई इतनी कमजोर होती तो फिर बगलामुखी नहीं बनती, महाकाली नहीं बनती। उनका भी हमारे जीवन में एक बड़ा रोल है। प्रत्येक व्यक्ति को बिगाड़ने में और प्रत्येक व्यक्ति को ऊंचा उठाने में एक नारी का ही योगदान होता है। उसका सत्यानाश भी कर सकती है। तो नारी कर सकती है, और उसका निर्माण भी कर सकती है तो नारी कर सकती है। महाभारत युद्ध हुआ तो केवल एक द्रौपदी की वजह से हुआ। द्रौपदी ने कहा-तुम अन्धे है, अन्धो के अन्धे ही पैदा होते हैं।
उस एक वाक्य ने पूरी महाभारत बना दी और करोड़ों लाखों लोग कट गये। एक सीता के कारण पूरी रामायण बन गई, राम-रावण युद्ध हो गया और पूरा रावण-कुल समाप्त होगा तभी पूर्णता आ सकेगी। यह तभी होगा जब अणु परिवर्तन होंगे। तभी आप आनंद और सुख की अनुभूति कर पायेंगे। और अभी आपके जीवन में आनंद और उल्लास इसलिए नहीं है क्योंकि आप बाहर से सुख प्राप्ति की आशा कर रहें हैं और बाहर से सुख मिल नहीं मिल सकता। राधा ने एक बार कृष्ण से कहा मैं निर्लज्ज होकर के आपके साथ क्यों जुडी हूं?
कृष्ण ने कहा- राधा। पहली बार नहीं जुडी हो। इससे पहले चालीस जीवन तुम्हारे मेरे साथ बीत चुके हैं। तुम चाहो भी तो नहीं टूट सकोगी। यह ये तो चार दिन कुछ कहेंगे, चार दिन प्रशंसा कर लेंगे। समाज क्या कर लेगा? और समाज ने किया क्या? क्या बदनामी की ? और बदनामी से क्या हो जाता है? और नाम से फिर क्या हो जाता है? समाज कभी आपको ऊँचा नहीं उठने देगा, समाज बंधन को कहते हैं, समाज मन को घायल करने की अवस्था को कहते हैं। समाज पग-पग की रूकावटों को कहते है। इसका मतलब यह नहीं कि आप निर्लज्ज हो जायें, मगर इसका मतलब यह भी नहीं कि आप भयभीत हो जायें। जो कुछ करें बिल्कुल स्पष्ट व्यक्तित्व के साथ करें।
बहादुर बनें तो ताकत के साथ प्रहार करें और क्षमता, यह ताकत साधनाओं और दीक्षाओं के माध्यम से ही आ पायेगी। और जो दीक्षायें मैं दे रहा हूं यह परम्परा आज की ही नहीं है यह परम्परा पिछले पच्चीस हजार, पचास हजार वर्षों की है। आप इसको समझ नहीं पा रहें है और मैं बार-बार कह रहा हूं आप समझ नहीं पा रहे हैं । इसका मतलब यह है कि आपका ज्ञान बहुत अधिक ऊँचाई पर उठ गया है जो मेरी छोटी सी बात आपके हृदय में पच नहीं पा रही। क्योंकि आप इतने अधिक होशियार, इतने अधिक चतुर, इतने अधिक चालाक हैं कि जो मैं कह रहा हूं वह बात आपको समझ नहीं आ रही है। मगर एक क्षण आयेगा तब मेरी बात आपके मन में घूमेंगी, तब आप एहसास करेंगे कि किसी ने बहुत सही कहा था, हम समझ नहीं पाये उस समय और वह क्षण चला जायेगा। जो जीवन चला गया, जो क्षण चले गये वे वापस नहीं आ सकते। उनकी स्मृतियां आ सकती हैं, उनकी यादें आ सकती हैं। जो कुछ भी मैं आपके सामने ज्ञान स्पष्ट कर रहा हूं उसके पीछे मेरा तो कोई स्वार्थ है ही नहीं स्वार्थ यह है कि मैं कुछ निर्माण करूं, स्वार्थ यह है कि मैं कुछ मंदिर बनाऊँ, कुछ देवालय बनाऊँ, कुछ ऐसा बनाऊँ, कहते हैं मूर्तियां बोलती नहीं पहले बोलती थी तो मैं सिद्ध करके दिखा दूं कि ये मूर्तियां बोलती हैं, ये मंदिर सजीव हैं, सिद्ध है, जाग्रत है, चैतन्य है। उन लोगों की सहायता करूं जो दरिद्र है, गरीब हैं, अशक्त हैं और किन वजह से हैं? वे अपने खुद के कर्मों की वजह से है।
न मैंने आपको गरीब बनाया न मैंने आपको अमीर बनाया गरीब बनें आप कोई न कोई पूर्व जन्मों के कारण से मगर मेरे पास आये हैं। तो मै वह चैतन्यता दूंगा ही दूंगा कि आपके जीवन के अभाव दूर हो सकें। आप मुझसे नहीं जुडें, एक साल नहीं आयें मेरे पास, तो आपको एहसास होगा कि आप खोखले से हैं आपको लगेगा कि आपके पास कुछ हैं ही नहीं। आपमें और एक गली के सामान्य मनुष्य में फिर कोई डिफरेंस रहेगा ही नहीं फिर चेंज क्या होगा आपमें? आज आप मेरे पास आते तो यह तो एहसास आपमें है कि मेरे पास गुरूजी हैं, मुझे भी यह तो एहसास है कि आप मेरे शिष्य हैं जिनको मैं दूंगा और वे ग्रहण करेंगे। यह छोटी बात नहीं है। यह अपने आपमें एक उपलब्धि है। गुरू से कुछ प्राप्त करना या नहीं करना यह बहुत बड़ी घटना नहीं है। मेरा और आपका जुड़ना अपने आपमें बहुत बड़ी घटना है, एकाकार हो जाना बहुत बड़ी घटना है, तब मैं आपको वीरोचित बना सकूंगा, पौरूषवान बना सकूंगा, ब्राह्मण बना सकूंगा।
आपको परिवर्तित करने से पहले यह आवश्यक है कि पूर्णता के साथ अणुओं को परिवर्तित कर दूं। अंदर से, जड़ से ही जब परिवर्तित हो जायेंगे तो एक जीवन में क्रांति हो पायेगी। किसी पेड़ पर एक गुलाब की कलम लगाने से गुलाब नहीं पैदा होगा, अंदर से बीजारोपण ही ऐसा कर दिया जाये कि गुलाब ही विकसित हो तब आप समाज में अलग से दिखाई देंगे। तब आंख में चिंगारी होगी, तब आपमें स्नेह होगा, प्यार होगा, एक पागलपन होगा, एक दृढ़ता होगी। एक ऐसा जुनून होगा जो आपके पास ही होगा, तब आप मेरे बिना नहीं रह पायेंगे और जब वह क्षण आये तब आप समझ लीजिये आप मेरे शिष्य हैं। उससे पहले आप शिष्य नहीं हैं। उससे पहले आप केवल श्रोता हैं, जिज्ञासु हैं, जानना चाहते हैं। एक जिज्ञासु और शिष्य में हजारों मील का डिफरेंस है। अगर आप गुरू के साथ सामीप्यता नहीं अनुभव करते तो और एक इंच का डिफरेंस है। अगर आप गुरू से एकाकार होना अनुभव कर लें, जब आपकी आंखों में आंसू छलक जाये जब आपको एहसास हो जाये कि अंदर कुछ घटना घटित हो रही है तो समझें आप शिष्य हैं।
अंदर जो कुछ घटित होगा वह अणु के परिवर्तन से होगा। अणु परिवर्तन की यह क्रिया एक ऐसी क्रिया है कि हमारे अंदर जितना भी दैन्य है, दुःख है, दरिद्रता है, पाप है वे सब जल जायें, समाप्त हो जाये हमारे अंदर जो अविद्या है, हमारे गले में जो संगीत नहीं है, हमारे पैरों में जो थिरकन नहीं है, हमारे चेहरे पर जो उल्लास नहीं है ओर ये जो सब माइनस पॉइंट्स है ये समाप्त हो जायें, ऐसी यह क्रिया है। मैं आपको बताना चाहता हूं कि निर्मुक्त बनिये, स्वच्छंद बनिये, मस्ती के साथ रहिये। जो क्षण मेरे साथ बीत जायें वे धरोहर होंगे। न जाने कौन सा क्षण ऐसा हो सकता है। कृष्ण ने कहा- मैं जा रहा हूं, मेरा जितना काम था मैं कर चुका हूं। अब पूरे संसार को सुधारने का ठेका न कृष्ण ने लिया था न सुधारा, ना सुधरेगा। मुठ्ठी भर लोग ही सुधरेंगे और वे मुठ्ठी भर लोग ही संसार में परिवर्तन ला सकते हैं। एक चांद ही पूरे आकाश को रोशनी देगा, हजारों तारे मिलकर भी रोशनी नहीं दे पायेंगे।
कणाद ने पूर्ण रूप से अणु की थ्योरी बताई थी कि आदमी पूर्ण रूप से परिवर्तित होता हुआ जो चीज बनना चाहे वह बन सकता है और गुरू जो चीज बनाना चाहे वह बना सकता है। मैं आपको वैसा ही पूर्ण बनाना चाहता हूं। मगर आपको मेरे प्रत्येक शब्द को रचा-पचा लेना पड़ेगा, उतारना पड़ेगा। केवल सुनना नहीं है, आप श्रोता नहीं है। मैं रामायण की कथा नहीं सुना रहा हूं कि रावण सीता को उठा कर ले गया और राम ने उसे तीर मार दिया, मैं कथायें नहीं सुनाता। मैं जो कुछ दे रहा हूं बिल्कुल नवीनता के साथ दे रहा हूं, शास्त्रेचित दे रहा हूं, मर्यादानुकूल दे रहा हूं। जो कुछ छिपा हुआ ज्ञान है वह आपको दे रहा हूं जिससे कि यह चीज जीवित रह सके।
यह दीक्षा गुरू से लेने के बाद आप खुद अपने आप में एक परिवर्तन अनुभव करेंगे, एहसास करेंगे कि हम अपने अंदर से बहुत कुछ परिवर्तित हो रहे हैं, जो हमारे पास नहीं था वह अब मैं प्राप्त कर रहा हूं। मैं जानता हूं कि लोग टूटेंगे। बिखरते-बिखरते जितने बच जायेंगे वे ही वास्तव में शिष्य कहलाने के योग्य होंगे क्योंकि हंसों की पंक्तियां नहीं होती, बहुत झुण्ड हंस के नहीं होते। दो चार हंस कहीं-कहीं दिखाई देते हैं। दो चार शेर दिखाई देते हैं। कई सौ वर्षों में जाकर एक व्यक्तित्व पैदा होता है सिर्फ, जो पूरे देश को एक नेतृत्व दे सकें, वह पैदा नहीं हुआ। नेताओं की बात नहीं कर रहा हूं। नेता एक अलग चीज है। वह तो आज है, कल नहीं है। कल लोक सभा अध्यक्ष थे आज सड़क पर खड़े हैं।
एक पुरूष, एक युगपुरूष, एक अद्वितीय व्यक्तित्व पांच सौ, छः सौ, हजार वर्षों के बाद पैदा होता है, हर दिन, हर गली में पैदा नहीं हो सकता। उस समय अगर हम उसको नहीं पहचान पायेंगे तो हम चूक जांयेगे, हम पिछड़ जायेंगे। कितने बुद्ध पैदा हुये, कितने ईसामसीह पैदा हुये, कितने मोहम्मद साहब पैदा हुये, कितने चैतन्य पैदा हुये, कितनी मीराबाई पैदा हुई? एक व्यक्ति ने पूरा परिवर्तन कर दिया और हम उसको नहीं समझा पाये तो हमारे जीवन की न्यूनता रही है और न्यूनता यह रही कि हमने कणाद को नहीं समझा अंदर के अणुओं को परिवर्तित नहीं किया इस बात का आप ध्यान रखें कि कोई एक उम्र का व्यक्ति ही गुरू नहीं होता। आपकी धारणाओं को मैं तोड़ रहा हूं। मैं आपमें उतनी शक्ति दे दूं कि आप कुछ भी कर लेंगे, अगर मैं कहूं कि जूझ जाओ तो आप जूझ जायेंगे। तुममें ताकत है, बल है तुममें एहसास है कि पीछे कोई खड़ा है इसलिये मन के दास बनने की जरूरत नहीं है। मैं साक्षीभूत हूं आपके प्रत्येक शब्द का, प्रत्येक घटना का, जिम्मेवार मैं हूं, जो कुछ प्रदान करना मेरी ड्यूटी है, उसमें न्यूनता होगी तो जिम्मेवारी मेरी होगी। मैं पीछे हटने की क्रिया नहीं करता हूं। मैं जम करके जूझने की क्रिया करता हूं। मैं जिदंगी भर जूझा हूं। जितना मैं जूझा हूं उतना आप दस हजार जन्म लेकर भी नहीं जूझ सकते, उतना मैं जूझा हूं अपनी जिदंगी से, अपने आपसे।
हरदम अपने आपको तोड़ा है और जोड़ने की क्रिया की है, यह मैं ही जानता हूं कि हिमालय कितना ऊबड़ खाबड़ है, यह मैं ही जानता हूं कि हिंसक पशु कैसे होते हैं, यह मैं ही जानता हूं कि गृहस्थ जीवन को संभालना कितना कठिन है, यह मैं ही जानता हूं कि दुष्ट व्यक्तियों के बीच जिंदा रहना सांस लेना कितना कठिन होता है, शिव ने अगर जहर पिया होगा तो बहुत कठिनाई के साथ पिया होगा। मगर उन्होंने चेहरे पर उप्फ़ नहीं आने दी। और ऐसा कह कर मैं कोई एहसान भी नहीं थोप रहा हूं और जहर मिल जाये कोई बात नहीं। एहसास तो हो जाये कितना जी सकता हूं। शायद इससे दस हजार गुना मैं पी सकता हूं। इतनी क्षमता है मुझमें, जूझूंगा और पूरी क्षमता के साथ जूझूंगा। यह तो एक गुरू शिष्य पिता-पुत्र के बीच का संवाद है। जहां पुत्र होगा तो पिता कहेगा और डाटेगा भी पुचकारेगा, सीने से लगायेगा और थप्पड़ भी मारेगा। मगर उसे अपने समान बनाने की क्रिया की कोशिश में लगा रहेगा। इसलिये नहीं कि वह स्वार्थी बने, वह धोखेबाज बने, इसलिये कि वह गुरू के वशीभूत बने। शिष्य को अपने आप में पुत्र कहा गया है, तनय कहा गया है, उसके शरीर के सदृश्य कहा गया है आप पुत्र हैं मेरे, आप शिष्य नहीं है। मेरे शरीर के किसी न किसी भाग है हिस्से हैं आप। आपसे मिलकर के एक चीज बनी है जिसे नारायण दत श्रीमाली कहते हैं।
ब्रह्मरंध्र जो है उसके माध्यम से हम पूरे शरीर के अणुओं को परिवर्तित कर सकते है। पूरे शरीर के अणु अगर एकत्रीभूत हैं तो आज्ञा चक्र में हैं या नाभि में है। दो जगह ही हैं। एक बच्चा अपनी मां से पूरी तरह से नाभि से जुड़ा होता हैं, और किसी जगह से जुड़ा नहीं होता वो और जब जन्म लेता है। तो नाभि के साथ नाल आती हैं। उस नाल से ही वह सारा रस ग्रहण करता हुआ जिंदा रहता है। सांस भी उससे ही लेता है। और बड़े होने के बाद आज्ञा चक्र जो है दोनों भौहो के बीच में पूरे शरीर के अणु वहां पूंजीभूत होते हैं। इसलिए औरत वहां बिन्दी लगाती है कि वह भाग ठंडा रहे। इसलिए ब्राह्मण यहां चंदन लगाते हैं कि यह भी ठंडा बना रहे। गर्मी में एकदम विस्फोटक न हो जाये। बिंदी लगाने के पीछे या चंदन लगाने के पीछे तर्क यह है। कोई सुंदरता की बात नहीं है।
और अगर कुछ गुरू से ज्ञान लें या दीक्षा जो इसी आज्ञा चक्र के माध्यम से ले सकते हैं और कहीं से ले भी नहीं सकते। इसी के माध्यम से पूर्ण अणु परिवर्तन भी संभव है। मैं आपको आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि एक सक्षम गुरू आपको मिले, मिले और वह पूर्ण अणु परिवर्तन करता हुआ आपको उस पूर्णता पर ले जाकर खड़ा कर दे जहां जीवन का आनंद है, एक मस्ती है, एक उल्लास है। मैं एक बार फिर आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं।
– सद्गुरूदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द
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