गुरु वह व्यक्तित्व होता हे जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करता हे यहां अज्ञान का तात्पर्य परम शक्ति के प्रति, परमात्मा के प्रति श्रद्धा और समर्पण का अभाव और स्वयं के प्रति अज्ञानता का भाव। आप अपने जीवन में पचासों संतो से मिलते हैं। लेकिन क्या किसी ने आपके हृदय को स्पर्श किया है, यदि नहीं किया तो छोड़ दीजिए। इतना अवश्य है कि वह आपके शिक्षक अवश्य हुए लेकिन गुरु नहीं हो सकते, गुरु वही व्यक्तित्व है जो आपके स्वयं के प्रति अज्ञान के अंधकार को दूर करे आपके हृदय को प्रेम और विश्वास रूपी भावों से भर दे और आपको पूर्ण जाग्रत की अवस्था में ले जाये। वही आपके गुरु है।
गुरु शब्द पर बार-बार मेरा जोर देने का उद्देश्य यही है कि आप गुरु शिष्य संबंधो को समझ सकें। जब आप कहते हैं कि ‘वे मेरे गुरु है’, वे आपके गुरु क्यों हैं? इसका उत्तर केवल आप स्वयं दे सकते हैं।
नदी के जल में एक पत्थर पड़ा है ओर जब हम उस पत्थर को बाहर निकालते हैं और सूर्य की रोशनी में रखते हैं तो थोड़ी ही देर में वह पत्थर सूख जाता है। वह पत्थर जल विहीन होकर खुश्क हो जाता है। इसलिए यह संभव है कि आपको जो गुरु मिले हैं, उन्होंने आपके हृदय को प्रभावित नहीं किया तो आपकी स्थिति ठीक इसी प्रकार है जेसे नदी के जल में पड़ा हुआ यह पत्थर है। गुरु के सम्पर्क में आएं और आपका मन मस्तिष्क, हृदय पूर्ण रूप से प्रभावित न हो और आपमें ज्ञान का प्रकाश उदय नहीं हो, आत्म साक्षात्कार की स्थिति प्रारम्भ नहीं हो तो वे आपके गुरु केसे हो सकते हैं? गुरु और शिष्य का संबंध हृदय मन और आत्मा का संबंध रहता है।
गुरु वह महान व्यक्तित्व है जो आंतरिक ज्ञान नेत्र को जाग्रत कर दे। उनकी उपस्थिति ऐसी लगे कि हृदय में साक्षात् सूर्य प्रकाशमान हो गया है। जिनके उपस्थित होने मात्र से भीतर ही भीतर एक हलचल मचने लगती है, एक आनन्द आने लगता है, एक अनुभूति होती है वही व्यक्तित्व आपका गुरु है।
इसके लिए सबसे पहले आत्म अवलोकन कर अपनी कमियों के बारे में विचार करना चाहिए और ऐसे व्यक्तित्व को ढूंढना चाहिए जो आपके भीतर के संदेहों को दूर कर सके जो आपको आंतरिक रूप से प्रकाशवान कर सके। आपको पूर्णत्व की ओर यात्रा प्रारम्भ करवा सके। यह कोई व्यक्ति भी हो सकता है, घटना भी हो सकती हे, वस्तु भी हो सकता है, स्थान भी हो सकता है अथवा कोई अन्य स्थिति। बुद्ध ने अपना कोई गुरु नहीं बनाया और ज्ञान प्राप्त करते-करते हजारों स्थानों पर घूमे तथा एक वृक्ष के नीचे बैठ कर समाधि अवस्था में गये और उनका आंतरिक प्रकाश प्रगट हो गया, उस वृक्ष को उन्होंने बोधि वृक्ष कहा। जहां उन्हें पूर्ण केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार शिष्य बनने के लिए यह आवश्यक हे कि दो क्रियाएं साथ-साथ चलें-प्रथम क्रिया में सीखने की भावना हो, ग्रहण करने की भावना हो, दूसरी स्थिति में आंतरिक रूप से मौन हो अर्थात् भीतर जो अहंकार भरा पड़ा है। वह पूर्ण रूप से समाप्त हो जाए तब गुरु की उपस्थिति मात्र से, गुरु के ध्यान मात्र से एक मौन संभाषण प्रारम्भ हो जाता है। अन्यथा गुरु शिष्य संबंध में अत्यधिक विचित्र स्थिति आ सकती है।
गुरु शिष्य संबंधों में और गुरु शिष्य परम्परा में वर्तमान स्थिति में चाहे कितना भी व्यवधान आ गया हो अथवा कितनी ही भ्रांतियां फैल गई हो लेकिन यह ध्रुव सत्य है कि आत्म ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता रहती ही है। हर व्यक्ति ज्ञानवान है। यह बात ठीक उसी तरह की है कि आपके वाहन की चाबी घर में पड़ी है और आपको इसकी जानकारी भी है कि चाबी घर में है लेकिन यह इच्छा है कि कोई तत्काल बता दे कि चाबी कहां रखी है जिससे अधिक श्रम नहीं करना पडे। इसलिए गुरु तो अत्यंत आवश्यक है। गुरु अपनी उपस्थिति मात्र से प्रेरणा देते हैं, मानसिक तौर पर जब हम एक महान व्यक्तित्व को देखते हैं तो हमारी यह धारणा और अधिक मजबूत होती है कि हम भी इस प्रकार का आदर्श दिव्य जीवन जी सकते हैं।
आजकल किसी-किसी के मन में एक प्रश्न उठता है, कि एक गुरु के सभी शिष्यों की प्रगति एक समान क्यों नहीं होती, सभी एक समान क्यों नहीं बनते हैं? इसका कारण है शिष्यों का अधिकार भेद। एक ही गुरु से शक्ति प्राप्त शिष्यों में सब समान नहीं होते, इसी से किसी शिष्य में शक्ति का पूर्ण प्रभाव, किसी में अल्प प्रभुत्व दिखाई पड़ता है, ओर किसी का पतन ही हो जाता हे, श्रीगुरु के रहन-सहन तथा व्यवहार में ऐसा-वेसा क्यों? इस प्रकार शंका संदेह करने से पूर्णत्व की प्राप्ति और गुरुत्व की सिद्धि में रूकावट हो जाती है, जो कोई गुरुजनों में दोष देखता है, तथा क्रोध, रोष आदि भावना करता है, वह कभी शिष्य हो ही नहीं सकता, जिसने अपने को पूर्ण रूप से गुरुदेव को समर्पण दे दिया, उसने गुरुदेव से सम्पूर्ण लिया, सब कुछ प्राप्त किया और वही शिष्य हे, जिसने पूर्ण दिया उसने पूर्ण पाया, जिसने कुछ बचा रखा, थोड़ा कुछ छिपा रखा, उसने उतना ही कम पाया।
इसके साथ ही ऐसे गुरुओं से भी सावधान रहें जो कि अपनी गलतियों को स्वीकार करने में घबराते हों जो आपकी इच्छाओं की पूर्ति का सही मार्ग ओर क्रिया बताने के बजाए उन इच्छाओं को रोकने को कहते हैं जो यह गर्व करते हैं कि केवल उनके माध्यम से ही उनके द्वारा बताई गई क्रिया द्वारा ही आत्मज्ञान प्राप्त हो सकता है। पूर्ण सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं। उसके अलावा और कोई मार्ग ही नहीं है।
वास्तव में गुरु का कार्य शिष्य को शिशु की भांति समझते हुए उसे बड़ा करना है। हर समय हाथ पकड़ कर उसे अपने पास नहीं रखना है। गुरु का कार्य है शिष्य को मानसिक स्वतंत्रता प्रदान करना जिससे वह स्वयं दिव्यता का विकास कर सके।
व्यक्ति की मानसिकता में जो संदेह उसे घेरे रहते हैं और इन संदेहो और अविश्वास के कारण वह अपनी आत्म स्थिति को अनुभव नहीं कर पाता। गुरु उस ऊर्जा की रचना का प्रवाह करते हैं जिसे शिष्य आंतरिक रूप से ग्रहण करता है और उसके संदेह धीरे-धीरे दूर होते रहते हैं। इस आंतरिक ऊर्जा का प्रवाह केवल गुरु के माध्यम से ही हो सकता हे। इसके अलावा दूसरे सब माध्यम में व्यक्ति के ‘इगो ‘ बीच में अवश्य आ जाते है। इस शक्ति प्रवाह के कारण ही गुरु शिष्य परम्परा सदैव जीवन्त रहेगी। किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं हो सकती।
गुरु जिन्हें हम सदगुरु कहते हैं उसका तात्पर्य है सत्+गुरु, सत् का अर्थ सत्य और गुरु का तात्पर्य है अंधकार को दूर करने वाला। इस कारण हम ज्ञान तो कई व्यक्तियों से प्राप्त कर सकते हैं लेकिन सदगुरु उन सब का सम्मिलित रूप है जो हमारी पूर्ण मुक्ति और पूर्ण ज्ञान का केन्द्र बिन्दु हें और हृदय के कपाट को खोल देते हैं। इस प्रकार वास्तविक गुरु सदगुरु ही हमें अंधकार से दूर प्रकाश की ओर ले जाते हें और अपनी दिव्यता के द्वारा शिष्य को अनुभव व अन्य ज्ञान प्राप्त कराते हैं। इस कारण इस युग में हमें गुरु की ओर भी अधिक आवश्यकता है।
शिष्यत्व ग्रहण करना यानी गुरु को स्वीकार करना, समर्पण करना, यह एक बड़ा जटिल और रहस्यमय विषय है, शिष्य वह हे जो ध्यान, ज्ञान, विज्ञान, और प्रेम द्वारा श्रीगुरु का बन कर रहता है, जैसे बून्द सागर में मिलकर सागर बन जाती है, वेसे ही शिष्य शुद्ध भावना से अपने अन्त: करण में गुरु के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, और थोडे ही समय में उनके समान बन जाता है। चित्तमय महामंत्रवीर्य शिष्य का एक अनोखा आश्चर्यमय योगाग्निमय शरीर बना कर उसे अपने जैसा ही अर्थात् श्रीगुरु जेसा ही बनाता हे, तब शिष्य गुरुमय बन जाता है।
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