श्री कृष्णोपनिषद् से में अपनी बात प्रारम्भ कर रहा हूं। वेद व्यास ने उन उपनिषदों का संग्रह किया, संकलन किया। उन्हीं में से एक श्री कृष्णोपनिषद् का यह श्लोक हे-
वेद व्यास ने इस श्लोक में यह बात कही है कि मनुष्य का अर्थ है मृत या मरा हुआ, जिंदा केवल इसलिए है कि वह सांस ले रहा है। और यह सांस समाप्त हो जाती है तो शरीर के सारे अंग प्रत्यंग तो उसके होते है, मगर फिर भी वह मृत कहलाता है। हाथ, पांव, आंख, नाक, कान, उनमें कहीं कोई त्रुटि नहीं आती मगर फिर भी वह मृत कहलाता है। और जीवित इसलिए कहलाता है कि सांस लेने की क्रिया उसमें हे ओर सांस लेता भी है सांस निकालता भी हे। अन्दर लेता भी है, छोड़ता भी है ओर तीन कार्य करता है, सांस लेता है, धारण करता है और छोड्ता है। ओर वेद व्यास ने मनुष्य को मृत क्यों कहा? क्या सांस लेने या नहीं लेने से ही व्यक्ति जीवित या मृत हो जाता है?
वास्तव में मृत व्यक्ति वहीं हे जिनमें हौसला नहीं है, साहस नहीं है, क्षमता नहीं है, और संकटों से मुकाबला करने की क्षमता नहीं है ऐसे लोग मृत हें, मनुष्य तो हैं, जिंदा भी हैं, घूमते फिरते भी हैं, मगर उसके बाद भी मरे हुए से हैं, इसीलिये कि उनमें एक नीरसता है, उसमें कोई नवीनता नहीं है, कोई नयापन नहीं है, कोई चेतना नहीं है, कोई प्रबुद्धता नहीं है। और यदि जीवन में संकट नहीं है, बाधायें नहीं हैं, अडचने नहीं हैं, कठिनाइयां नहीं हैं तो मनुष्य जीवन हो ही नहीं सकता। मनुष्य जीवन उसको कहते हैं कि हर पग पर समस्याएं आएं, कठिनाइयां आएं और हम उन पर विजय प्राप्त करें। वहीं जीवित मनुष्य रह सकता है जो ऐसा कर पाता है।
और विज्ञान इस बात को स्वीकार करता है कि जिन्होंने संघर्ष किया जो संघर्षशील व्यक्ति हैं या जानवर हैं या जीव हैं वे ही जीवित रहे। जिनमें संघर्ष करने की, समस्याओं से जूझने की क्षमता समाप्त हो गई, वे मर गए। अभी कुछ समय पहले बीच में आपने बहुत हो हल्ला सुना होगा कि डायनासोर होता था जो संसार का सबसे लंबा चौडा प्राणी था, मगरमच्छ, हाथी या व्हेल मछली तो उसके सामने एक दम तुच्छ प्राणी थे और अभी एक फिल्म भी बनी थी डायनासोर पर। आज से हजारों साल पहले आखरी डायनासोर की मृत्यु हो गई और एक का भी अस्तित्व नहीं रहा, एक भी डायनासोर जीवित नहीं रहा। क्यों नहीं रहा? इतना बड़ा-चोडा प्राणी तुम्हारे जेसे कम से कम पांच सौ आदमी उसके मुंह में आ सके वह जीवित नहीं रहा और आप जीवित हैं, इसका क्या कारण था? वह क्यों नहीं जीवित रहा?
और आपको मालूम होना चाहिए कि आज से तीन हजार साल पहले भी मेंढक था और आज भी जीवित हैं। सबसे पुराने जो जीव हैं-केवल दो है जो पिछले हजारों सालों से हमारे बीच हैं- एक तो काकरोच और एक मेंढक। बाकी सब जातिया धीरे-धीरे नष्ट होती गई, बदलती गई या परिवर्तित होती गई। पर उन दोनों में कुछ परिवर्तन नहीं आया और दोनों आज भी वही हैं जो आज से तीस हजार साल पहले थे। तीस हजार साल बहुत बड़ी उम्र है और तीस हजार वर्षों से वे जीवित हैं। ऐसा क्यों है?
ऐसा इसलिए है कि वे प्रत्येक परिस्थिति में जीवित रहने की क्षमता रखते हैं। आपने देखा कि होगा कि बरसात में मेढ़क पानी में तैरते हैं, आवाज करते हैं और जब समाप्त हो जाती है बरसात तो किसी खोखले पत्थर में वह मेढक घुस जाता है और उसके ऊपर एक परत आ जाती हैं, वायु की परत हो या रेत की परत हो। यदि आप भी चार घंटा बाहर बैठ जाए तो आपके ऊपर रेत की परत आ जाएगी। और यदि आप सफेद कुर्ता पहन कर चांदनी चौक में निकल जाएं तो आपके ऊपर एक धुएं की, रेत की परत आ जाएगी और कुर्ता काला हो जाएगा और चार दिन तक चलेगे तो आपके ऊपर मैल की परत चढ़ जाएगी और दस दिन आप स्नान नहीं करे तो आपके शरीर पर मैल इतना चढ़ जाएगा कि आप को चार बार साबुन लगाना पडेगा।
आपने खुद चढ़ाया नहीं उस मैल को, मगर मैल चढा, कपड़ों पर भी चढा। मेंढक छ: महीने उस पत्थर में रहते हें और बाहर से उनको ऑक्सीजन मिलती ही नहीं। उसके बाद भी वे जीवित रहते हैं। तो जो जीव छ: महीने बिना ऑक्सीजन के रह सकता है वह मर नहीं सकता, क्योंकि उसमें संघर्ष करने की क्षमता है, एक पॉवर है, एक ताकत है। वह एहसास करता है कि जीवन में एक संघर्ष है, कठिनाई है और कठिनाई होते हुए भी वह जीवित रहने की एक क्षमता और ताकत रखता हे। इसलिए मेंढक जीवित है इसलिए काकरोच जीवित है। इसलिए ऊंट जीवित है कि वह तीस दिन तक बिना पानी के जीवित रह सकता हे, हम ओर तुम नहीं रह सकते। बिना पानी के वह तीस दिन चल सकता हे, मरूस्थल में, रेगिस्तान में। यह केवल एक छोटा सा उदाहरण है, मगर यह छोटा उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि आप समझ सकें कि जिंदा वही व्यक्ति रहता है जिसमें संघर्ष करने की पूर्ण क्षमता हो, और संघर्ष वह कर सकता है जिसके सामने समस्याएं आएं।
समस्याएं आएंगी ही नहीं तो संघर्ष करेगा भी क्या? किससे संघर्ष करेंगे, दीवारों से? दरवाजों से? पत्थरों से? वह संघर्ष होता ही नहीं। और पति पत्नी के बीच संघर्ष नहीं होता, मतभेद होते हैं। आप मतभेद को लड़ाई झगड़ा कहते हें, में कहता हूं मतभेद हें। वह कहती है कि मैं प्लाजा पर फिल्म देखने जाऊगीं आप कहते हें नहीं रिवोली पर पिक्चर देखने जाएंगे। लड़ाई झगड़ा कोई नहीं है, बस वह एक अलग बात कहती है आप एक अलग बात कहते हैं। और यह एक टकराहट है आपके जीवन की इसलिए घर में एक टकराव की, एक तनाव की स्थित है। वह आपका संघर्ष नहीं है। आपका संघर्ष पुत्र से भी नहीं है। आपका संघर्ष पत्नी से भी नहीं हे और आपका संघर्ष खुद से भी नहीं है। इसलिए आप समाप्त हो जाते हें धीरे-धीरे क्योंकि कोई संघर्ष नहीं है। और हमारे ऋषि दो सो साल, तीन सो साल जीवित रहे यह हमने सुना। ओर यदि आप उस साधनात्मक लेवल पर हें तो आप देख सकते हैं कि पांच सौ साल, हजार साल के ऋषि योगी आज भी जीवित हैं और इतनी आयु लिए हुए हैं ओर हम केवल साठ साल या सत्तर साल जीवित रह पाते हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है कि हम साठ साल की आयु में ही मर जाते हें, सत्तर साल के होकर मर जाते हैं, बहुत मुश्किल से गिन कर के अस्सी साल के दो चार व्यक्ति आप मुझे दिल्ली में दिखा पाएंगे। सो साल किसी के होते हें तो भारत सरकार उसका अभिनंदन करती है, तिलक करती है गुलजारी लाल नंदा का कि तुमने सोंवा साल शुरू कर दिया। क्या सोंवा साल प्राप्त करना बहुत बडी घटना हे? मेंढक ने तो साठ हजार साल आयु प्राप्त कर ली। व्यक्ति सौ साल भी उम्र प्राप्त नहीं कर पाता, व्यक्ति इसलिए टूट जाता है क्योंकि उसके सामने संघर्ष है ही नहीं और संघर्ष नहीं है तो व्यक्ति का जीवन एकरस हो जाता है और जहां एकरसता हे वहां मृत्यु है। आज सुबह उठे, स्नान किया, पैंट पहनी, कार्ता नाश्ता किया, टिफिन हाथ में लिया और ऑफिस चले गए। फिर आफिस से वापस आए, पत्नी की भी सुनी, दो बाते पत्नी को सुनाई खाना खाया और सो गए। तीस दिन महीने के ऐसे ही होता हैं। एक संडे के अलावा ऐसा ही होता है। बस संडे को कहते हैं आज संडे आठ बजे अखबार पढ़ते हैं ओर पड़े रहते हैं, बेड टी पी लेते हैं। अगला संडे भी वैसा ही होता है।
जीवन में कोई प्राब्लम आई, कोई समस्या आई, कोई तनाव आया, कुछ ऐसी अनिश्चितता आई कि कल होगा या एक घंटे बाद क्या होगा? किसी ने तलवार लेकर आपके सिर पर रखी? कोई बंदूक की गोली लेकर आपके सामने खड़ा आप बस बचते रहें। बचना आप का धर्म है। इसका मतलब यह नहीं, कि आप ए,के. 47 के सामने खडे हो जाए कि गुरुजी ने कहा है संघर्ष करना। मगर यदि कोई सामने खड़ा हो जाए तो आपमें यह क्षमता होनी चाहिए कि आप उसे धक्का देकर उसके सीने पर खडे हो सकें। इतनी ताकत आपमें होनी चाहिए ओर वह ताकत तब आ सकती है जब आप में आत्मबल हो। यदि आत्मबल नहीं है तो आप जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते ओर ज्योंहि कोई गोली चली आप मर जाएंगे। और यदि आत्मबल हैं तो आप खडे होकर उसे एक लात मारेंगे उसकी ए.के. 47 राइफल एक तरफ गिरेगी और वह एक तरफ गिरेगा। आप उसकी छाती पर बैठकर सफलता प्राप्त कर लेंगे।
दोनों स्थितियां आपके सामने हैं। प्रत्येक व्यक्ति भयभीत है, जब संसार में पैदा होता है, उस क्षण से लगाकर मृत्यु तक उसके जीवन में और कुछ नहीं होता बस भय होता है और वह भय पीछा करते हैं आप और कोई दूर से नहीं करता। मां बाप भय पैदा करते हें उसके मन में कि बाहर मत जाना सड़क पर एक्सीडेंट हो जाएगा और स्कूल से सीधे दो बजे घर आ जाना नहीं तो कुछ हो जाएगा और यह तू मत खाना इससे तकलीफ हो जाएगी और उसको हर क्षण हम कोसते रहते हैं कि तुम्हें यह नहीं करना है, तुम्हें वह नहीं करना है, ऐसा करने से तकलीफ हो जाएगी, ऐसा कर करने से यह हो जायेगा, ऐसा करने से वह हो जाएगा। ओर हम उसे भय के अलावा .. “आते कुछ देते ही नहीं क्योंकि हम खुद भी भय से पैदा हुए हैं और हमने उनको भय यह ली ! दिया और भय दिया इसलिए व्यक्ति कायर बना, बुजदिल बना। हम अपने लड॒को को ताकतवान नहीं बना सके, साहसवान नहीं बना सके। कोई अस्सी किलो का आदमी ही ताकतवान नहीं बनता। गांधी जी तो बयालिस किलो के ही थे सिर्फ और आप और हम से बहुत ज्यादा ताकतवान थे, अंग्रेजों से लोहा लिया, एक संघर्ष किया लाखों लोगों से और उनकी वाणी में इतनी ताकत थी कि हजारों लोग सूली पर चढ़ गए, फांसी पर चढ़ गए, गोलियां… खा गए। आपके कहने से एक व्यक्ति भी गोली नहीं खाएगा। आपके कहने से के एक भी संघर्ष नहीं करेगा। आपके कहने से एक व्यक्ति भी कॉलेज छोड कर ! सड॒क पर नहीं उतरेगा आपके कहने से एक व्यक्ति भी अपनी पत्नी को छोड कर। जेल में नहीं जाएगा। आपने और उस आदमी में ऐसा डिफरेंस क्या था? यह तो अभी की घटना है कण पचास साल, साठ साल पहले की।
डिफरेंस यह है कि आपमें आत्मबल नहीं है। उस व्यक्ति में आत्मबल था कि में… ऐसा कर के छोड़ूंगा। और आपमें आत्मबल नहीं है तो आप सोचते हैं कि होगा या तो नहीं, फिर भी कोशिश कर लेते हैं यहीं से आपका भय स्टार्ट हो जाता है और जब भय आरम्भ हो जाता है तो उस भय के साथ मृत्यु जुडी होती है क्योंकि मृत्यु और भय एक ही शब्द हैं। आपने सैनिकों को देखा होगा। आर्मी वाले क्या करते हैं कि आर्मी ऑफिसर एक दिन में उनको एक हजार बार एक लाइन बुलवातें हैं। जो डरा से सो मरा बस, उनकी यही प्रार्थना होती है, उनकी स्तुति भी यही होती है कोई… जय जगदीश हरे नहीं करते वो। सुबह उठते ही सबसे पहले यही बोलते हैं कि जो डरा सो मरा। फिर दौड़ते हैं तो भी यही कहते हें- जो डरा सो मरा। पूरे दिन भर में एक सैनिक को एक हजार बार बुलवाते हैं वो। एक या दूसरे से मिलते हैं, बात करते हैं तो नमस्ते नहीं करते वो कहते हे- जो डरा सो मरा। दूसरा भी कहता है- जो डरा सो मरा। यदि आप आर्मी फील्ड में जाएं तो वहां दीवारों पर कुछ और लिखा नहीं होता, श्री कृष्ण शरणं मम लिखा नहीं होता, भगवान श्रीकृष्ण या राम जी की जय ऐसा लिखा नहीं होता। वहां केवल यहीं लाइन लिखी होती हैं।
यह क्या चीज है? ऐसा क्यों करते हैं? भय निकालने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी कोशिश करते हैं इसलिए वह उन हथगोलों और बमों के बीच निर्भीकता से चला जाता हे। मर सकता हे जिंदा भी रह सकता है। मगर जिंदा रहने के चान्स ज्यादा होते हैं क्योंकि उनमें एक हिम्मत, एक साहस, एक क्षमता पैदा होती है कि देखा जाएगा। जीवन के एक छोर पर जन्म हे, दूसरे छोर पर मृत्यु हे, हम दोनों के बीच में हैं- मर जाएंगे तो मर जाएंगे। और जिंदा रह जाएंगे तो जिंदा रह जाएंगे, कृष्ण ने भी अर्जुन को यही कहा था, गीता में कि अर्जुन तुम बहुत कायर, तुम बहुत ही बुजदिल हो क्यों कि तुम्हें ऐसा ही पैदा किया गया। तुम भयभीत हो, तुममें ताकत और निर्भीकता नहीं हे, तुममें क्षमता नहीं है, तुममें ‘ हौसला नहीं है। और मैं कहता हूं, कि तू मरण को प्राप्त कर, तू मर जा पहले। यदि तू मर भी जाएगा तो स्वर्ग मिलेगा आगे जहां अप्सराएं नृत्य करती हैं। जो कृष्ण ने कहा में वह बात दोहरा रहा हूं. स्वर्ग हैं, नर्क हैं, अप्सराएं हैं या नहीं हैं में इस विषय को नहीं उठा रहा हूं। जो कृष्ण ने कहा मैं उस बात को कह रहा हूं। उस अर्जुन को समझाने के लिए श्री कृष्ण ने कहा- कि यदि तू जिंदा रह गया तो विजय प्राप्त करेगा, लोग जय जयकार करेंगे और आने वाली पांच हजार पीढियां तुम्हें याद करेंगी। दोनों स्थितियों में तुम्हें लाभ ही लाभ है, हानि हे ही नहीं। जीत जाओगे तो भी लाभ हे मर जाओगे तो भी लाभ हे।
और अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हुआ, धनुष बाण हाथ में लिया, गांडीव हाथ में लिया और उन पर शर संधान कर के तीर संधान कर के अपने सामने जितने भी खडे थे उन्हें समाप्त कर के विजय प्राप्त की। यहां तक कि उसके पुत्र की मृत्यु हो गई अभिमन्यु की युद्ध में मृत्यु हो गई। यहां तक की द्रोणाचार्य की भी मृत्यु हो गई उनके गुरु जी, यहां तक की भीष्म की भी मृत्यु हो गई, मगर फिर भी सारे पांडव अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर ओर श्री कृष्ण जीवित रहे, मर नहीं सके। क्या विशेषता थी कि वे मर नहीं सके और दुर्योधन, दुशासन जो थे वे मर गए। ऐसा हुआ था? युद्ध तो दोनों के बीच बराबर हो रहा था, बराबरी थी दोनों में, दोनों के गुरु एक ही थे, द्रोणाचार्य कौरवों के भी गुरु थे और द्रोणाचार्य पाण्डवों भी गुरु थे। कौरवों को भी द्रोणाचार्य ने पढ़ाया और पांडवों को भी द्रोणाचार्य ने पढ़ाया। लेकिन कौरवों में भय था कि हम हारेंगे इसमें दो राय नहीं है। हम हार जाएंगे क्योंकि उधर कृष्ण बैठे हैं। और पांडवों को पूर्ण विश्वास था कि हम हार ही नहीं सकते, क्योंकि हमारे साथ कृष्ण खडे हैं। हम कहां से हारेगें, हारने का सवाल ही नहीं हे। यह भय और अभय के बीच की स्थिति थी और वह व्यक्ति जिंदा रह सकता है जो संघर्ष कर सकता है। जो संघर्ष करने की क्षमता रखता है, जो संघर्ष को अपने जीवन में निमंत्रण देता है, जो संघर्ष को बुलाता है, जो अपने सामने संघर्ष को उत्पन्न करता है। और फिर संघर्ष से जूझता हे वहीं सफलता प्राप्त कर सकता है। और जूझ कर सफलता प्राप्त करता हे तो आनन्द असीम आनन्द की अनुभूति होती है।
कोर्ट में आप केस लड़ते हैं तो हर बार आप भयभीत रहते हैं कि हारेंगे या जीतेंगे कहीं हमारा वकील दूसरे के साथ तो नहीं मिल गया क्यात है पता नहीं और आपके मन में तनाव और तनाव के अलावा कुछ नहीं होता। मगर जब आप जीत जाते हैं तो आपके चेहरे की प्रसन्नयता और मुस्कुराहट उतनी तेज होती है कि शीशा भी एकदम तडक जाता हे। उन दिन क्या हो गया था और आज क्या हो गया है? पहले आप भयग्रस्त थे जीते तो भय से मुक्त हुए इसलिए यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी है तो जूझना ही पड़ेगा- तनाव के साथ नहीं विश्वास के साथ, दूढ़ता के साथ। और जब संन्यासी दीक्षा लेता है तो निर्भीकता से दीक्षा लेता हैं। हममें से प्रत्येक संन्यासी है। आप में से कोई गृहस्थ है ही नहीं क्योंकि पत्नी आपकी हे नहीं, पुत्र आपका है नहीं, पति आपका है नहीं, बंधु बांधव आपके हे नहीं, मकान जायदाद आपके है नहीं। अगर ये आपके होते तो आपके साथ चिता पर चले जाते ये सब। कोई जाता नहीं हे मैंने तो देखा है नहीं, अपने सत्तर साल के इतिहास में मैंने तो देखा नहीं कि पति गया तो पत्नी भी साथ में मरी, मकान को भी जला दिया, नोट के टुकड़े भी अंदर आग में डाल दिए, बक्से भी अंदर डाल दिऐ, हीरे मोती भी अंदर डाल दी। ऐसा मैंने तो देखा नहीं शायद आपने भी नहीं देखा। सुना वश बस राम नाम सत्य है आगे गया गत है।
आगे क्या गत है, अब आगे तो किसने देखा। और हम स्नान करके वापस घर आते हैं कि फिर तराजू में दस छटाक कम तोलते हैं और हम दुकानदारी ही चलाते है। फिर अपने बच्चे को कहते हैं देख सड़क पर मत जाना एक्सीडेंट… हो जाएगा, देख उसका ऐक्सीडेंट हो गया मदनलाल का देख एक्सीडेंट हो गया, देख हरिराम का एक्सीडेंट हो गया। तू बाहर मत जाना। और हम उनको कायर, हम उनको बुजदिल बनाते हैं। गृहस्थी कोई होती ही नहीं चीज ओर संन्यास भी नहीं होती चीज। इसलिए संन्यास चीज नहीं होती कि जिसकी आंख में विकार हे, जिसकी आंख में गंदगी है, जो लड़की को देखने के बाद कामातुर हो जाता है, आप उसे केसे संन्यासी कहेंगे। वह केसे संन्यासी हुआ। केश रखने से ही संन्यासी हो गया?
इसलिए गृहस्थ व्यक्ति भी संन्यासी है और संन्यासी व्यक्ति भी गृहस्थ हे। और गृहस्थ व्यक्ति भी गृहस्थ नहीं है और संन्यासी व्यक्ति भी संन्यासी नहीं है। दोनों एक ही जगह जाते हैं, एक ही प्रकार की लकडियों में जलते है और एक ही जग जाते होंगे। ताबूत या कब्र में उसे गाड़ देते हैं, अमर या नदी में प्रवाहित कर देते है या लकडियों में जला देते हैं। तीनों में से कोई एक स्थिति बनती है क्योंकि कोई मरने के बाद उसको रखता ही नहीं। और पत्नी कहती है कि तुंरत ले जाओ और जला दो। मुश्किल से चार घटें भी आंगन में रख दें तो बहुत बड़ी बात है हां, अतिंम दर्शन करने के लिए बर्फ की सिल्लियां चारो तरफ रख देते है क्योंकि नेताजी हैं उनको चौबीस घंटे रखना ही पडेगा तो रख देते हे और 24 घंटे के बाद जला देते है। बस इतना ही डिफरेंस होता है। मृत देह 24 घंटे नहीं रख सकता। चार घंटे बाद उसमें बदबू आने लग जाती है। आठ घंटे बाद उसमें कीडे पड़ने लग जाते हैं, चौबीस घंटे बाद उसको किसी का की हिम्मत नहीं होती। अब आपका शरीर कितना ताकतवान कितना क्षमतावान है, कितना संघर्षवान है इसका आप निर्णय कर सकते हैं। इस शरीर में ताकत नहीं है, और भय के अलावा इस जीवन में कुछ नहीं, प्रारम्भ से ही आपके मन में भय है, और जहां भय है वहां मृत्यु है क्योंकि भय ओर मृत्यु एक ही चीज हैं। कृष्ण भी हमें क्यों याद आ रहा हैं, मुझे क्यों याद कर रहें हैं? और मदनलाल जैसे क्यों नही याद आ रहे जो कृष्ण के साथ पैदा हुए है। इतने कौरव पेदा हुए थे आप में भी कौरव होगें पांडव होगें क्योंकि आपका जन्म तो बराबर तो होता ही रहा है या तो कौरव की सेना में रहे होगें या पोडव की सेना में होगें। मगर आपका नाम मुझे याद नही कि द्वापर में आपका नाम क्या था, मगर कृष्ण का नाम याद हें। इसलिए कि उन्होने जिंदगी के प्रारम्भ से लेकर अंत तक संघर्ष के अलावा, कुछ किया ही नहीं। सुख नहीं मिला उन्हे जिन्दगी में ।
‘ सुख जैसी चीज उन्होने देखी ही नहीं। पेदा होते ही कंस ने मारने की कोशिश की, दो महीने का था पूतना ने आकर मारने की कम कोशिश की थोडे से बडे हुए तो बकासुर आया, फिर कंस ने एक और राक्षस को भेजा, फिर ओर किसी प्रकार से उपक्रम किया, कालिया नाग आया और उनको डसने की कोशिश की। आप मुझे बताइए कि जिंदगी के प्रारंम्भ से लेकर अंत तक कृष्ण को कौन सा सुख मिला? एक दिन भी एक मिनट भी सुख नहीं मिला। मगर कहां हारे जीवन में कहा पराजित हुए, एक बार भी हारे नहीं, विजयी हुए और उन सारे संघर्षो का सामना करतें हुए। इसलिए कृष्ण याद आ रहे हैं, इसलिए मदन लाल याद नहीं आ रहे है। इसलिए हेमराज याद नहीं आ रहा हे। और राम ने कहां सुख देखा मुझे बता दीजिए। और एक दिन भी सुख देखा हो तो मुझे बता दीजिए। एक दिन भी। पत्नी के साथ जंगल-जंगल भटकें एक राजा के बेटे होकर, पिता का दाह संस्कार नहीं कर सकें, केकेयी ने षडयंत्र किया कि भरत किसी तरह राजगद्दी पर बैठ जाए, और वे षडयंत्र उस समय भी चलते थे आज भी चलते हैं ओर संघर्ष के अलावा राम ने कुछ देखा ही नही इसलिये राम आज याद आ रहे हें।
मेरा कहने का अर्थ यह है कि अगर हमारे जीवन में संघर्ष नहीं है तो हम मृत्यु युक्त हैं, हममें और एक मरे हुए व्यक्ति में डिफरेंस कोई नहीं है, इसलिए हम मरे हुए व्यक्ति हैं तो आश्चर्य है ये कि मरे हुए व्यक्ति हैं और सांस ले रहे हैं । और ऐसे लोगो को देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि ये कैसे मृत व्यक्ति है, जो सास भी ले रहें है और चल रहें हें। एक छोटा मोटा शिकारी था जिसे खास बंदूक चलाना आता नहीं था। बेटे ने एक दिन कहा आप बहुत बडे शिकारी है……….उसने कहा शिकारी! मैने एक गोली मारी और एक गोली से बीस बाघ समाप्त। शेर का शिकार करना सीखे तो आप मुझ से सीखें। तो बेटे ने समझा बहुत बहादुर का पुत्र हूं। उसने कहा पिता जी चलिए। तालाब के किनारे घूमते घामते। वहीं ऊपर एक चील उड़ रहीं थी, एक कौआ उड रहा था। बेटे ने कहा – आपने बाघ को मार दिया तो उस कौए को मार सकते हैं बंदूक की गोली से बाप ने कहा – यह दो मिनट का काम है। उसने बंदूक से गोली चलाई कौआ उड़ गया। बेटे ने कहा – कौआ तो मरा नहीं?
बाप ने कहा – यही तो विशेषता है कि गोली लगने के बाद भी मरा नहीं । आप देखिए लगी उसको, फिर भी उड़ता रहा। यह मंत्र-तंत्र हे तुम नहीं समझ पाओंगे। यह साधना है। यह अपने बेटे को भुलावे में डालने के लिए झूठी प्रक्रिया थी। उसको भयभीत करने की प्रक्रिया थी। उसको गुमराह करने की प्रक्रिया थी। वह खुद तो गुमराह था ही बेटे को भी गुमराह कर दिया और हम जीवन में यही करते हैं- खुद गुमराह होते हैं और दूसरों को भी गुमराह करते हैं। इसके अलावा आप कुछ करते नहीं, कर नहीं सकते। आप में से अधिकांश जब मेरे पास आते हैं तो एक ही बात कहते हैं कि बहुत तनाव है, बहुत दुःख है, परेशानी है, बेटी कहना मानती नहीं, मेरे बेटे कहना मानते नहीं, मैं बीमार हूं, मुझे यह तकलीफ है। और इसके अलावा आप कुछ बात करते ही नहीं है। और मैं सोचता हूं कितना आश्चर्यजनक व्यक्ति है, मरा हुआ है और सांस भी ले रहा है और बात भी कर रहा है। ऐसे व्यक्ति इस पृथ्वी पर ही मिलते हैं, हर जगह नहीं मिलते। हम में निर्भयता जो है वह जीवन की श्रेष्ठता है, सत्यता है, प्रामाणिकता हें। ओर वे व्यक्ति जिंदा पशु जिंदा रहे, वे पक्षी जिंदा रहे वे कौट पंतग जिंदा रहे, वह नभचर और जलचर जिंदा रहे, जिन्होने संघर्ष करने की क्षमता रखी। जो संघर्ष करते रहे, स्ट्रगल करते रहे वही बच पाएं। और आप टालते रहते हैं कि जीवन में यह भी प्राब्लम नहीं आए वह भी प्राब्लम नहीं आए, अमृतसर जाना नहीं हे गुरुद्वारे में माथा टेकना नहीं है क्योंकि कभी कहीं भी ए.के. 47 चल जाएगी। और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि ए.के. 47 को कोई गोली अभी तक आपके लिए बनी ही नहीं हे। जब ऐसे कारखाने बने ही नहीं तो आपको लगेगी कहां से और आप पहले से ही डर रहे हैं। गोली बनेगी ए.के. 47 में जाएगी आपको लगेगी तब देख लेंगे। अभी आप क्यों तनावग्रस्त हो मगर नहीं आप कहते हैं। अमृतसर से गुजरना ही नहीं हमें वहां रात को टिकना ही नहीं हमें, हमे तो सीधा जम्मू तवी जाना है तो वहीं जाएंगे, बीच में रूकना ही नहीं और अमृतसर आते ही आप बिल्कुल दुबक कर बैठ जाएंगे। दूर से ही माथा टेक देंगे।
कि हमें जाना ही चाहिए में ऐसा भी नहीं कह रहा कि आपको नहीं जाना चाहिए। में ऐसा कह रहा हूं कि आपके मन में जो भय है यह मिटना चाहिए। और आपमें से अधिकांश व्यक्ति उस भय को लेकर मेरे पास आ रहे हैं, जो घटना घटी ही नहीं आपके जीवन में उससे आप भय खा रहे हें। जब लड॒का बिगडेगा तब बिगडेगा, अब आज से ही क्यों तनाव में है कि लड़का बिगडेगा, लड़का बिगडेगा। छ: बजे आना चाहिए साढे छ: बजे आना चाहिए। और पैंट पहननी चाहिए, जीन्स पहनता है। कहना नहीं मानता गुरुजी आप सोच लीजिये कितनी परेशानी है। और मेरी बेटी जो है वह सात बजे आती है और उसकी आंखे कह रही है कि वह ठीक नहीं है, कहीं गड़बड़ जरूर है, अब गुरुजी आप खुद सोच लीजिए। अब गुरुजी क्या सोचेंगे? बेटी तुम्हारी। पांच नहीं सात बजे आ रही हे, अब गुरुजी बेठे बैठे कया करेंगे। नहीं गुरुजी आप ठीक कर दीजिए। यह आपकी स्थिति आपके लिए मुझे बताना स्वाभाविक है। आपका विश्वास है कि ये गुरुजी है और मेरी समस्या को दूर करेगें। और समस्याओं को दूर देविक साधना और सहायता के माध्यम से की जा सकती है। जहां दैवीय बल हो उससे ऐसा किया जा सकता हैं। जहां देवीय बल हो उससे ऐसा किया जा सकता हे, मनुष्य के बल से नहीं। जब देवताओं का बल हमारे साथ हो तो हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं, तब हम निर्भीक बन सकते हें, युद्ध में विजय प्राप्त कर सकते हैं, पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं, धनवान बन सकते हैं और जीवन में सब कुछ प्राप्त कर सकते हें जो हम चाहते हैं। आप जीवन में धन चाहते हैं और मैं कहता हूं कि आपको धनवान होना चाहिए। मैं कहता हूं कि इतना अधिक होना चाहिए कि आप गिनते गिनते थक जाएं। हि ! मैं बुद्ध नहीं हूं कि आपको कहूं कि धन त्याग दो, बुद्धं शरणं गच्छामि संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। न मैं महावीर स्वामी हूं कि सब कपडे खोल देना चाहिए। मैं ऐसी सलाह आपको नहीं दे रहा हूं।
मैं कह रहा हूं आपके पास बहुत वैभव होना चाहिए बहुत मकान होने चाहिए। ऊंची गाड़ी होनी चाहिए, आपको धनवान होना चाहिए क्योंकि आप मेरे शिष्य है, धन होना चाहिए, यश होना चाहिए, मान पद प्रतिष्ठा ऐश्वर्य होना चाहिए और वह सब कुछ देविक बल से प्राप्त हो सकता है आपके प्रयत्नों से प्राप्त नहीं हो सकता। आपकें प्रयत्नों से प्राप्त होता तो अब तक आप करोडपति होते। क्योंकि प्रयत्न करने में आप कसर रखते ही नहीं। दिन भर परिश्रम करते रहते हैं। प्रत्येक प्रकार से प्रयत्न करते हैं छल, बल, ताकत, युक्ति, चतुराई, चालाकी, मककारी धूर्तता, समझदारी-कोई चीज छोड़ते नहीं आप।
मगर उसके बावजूद भी आप उतनी ही तकलीफ में बंधे रहते हैं आप चाहे तकलीफ फाइनेंसियल हो, चाहे पुत्र की हो, चाहे पुत्री की, चाहे पत्नी की। जिसे आप शादी कर के लाए वहीं आपके कंट्रोल में नहीं है। डेटिंग वेटिंग करकुआओ होंगे, बगीचे में गए होंगे, दो चार महीने- डेटिंग की होगी उसने आपको परखा होगा, आपने उसे परखा होगा लेकिन फिर भी घर लाते ही झगड़ा शुरू ओर जिन्दगी भर फिर लड़ाई झगड़ा चल रहा है आपका। यह हुआ क्या? केसे हो गया? इसलिए हुआ कि वह भयभीत है कि अगर यह मर गया तो मैं कैसे रहूंगी आओ, कुछ साले ने मकान भी नहीं बनाया अभी किराए के मकान में रह रहा है, और मरेगा जरूर यह तो फिर मैं कहां जाऊंगी यह गड़बड हो जाएगी, मैं करूंगी क्या? वह भयभीत है। वह कहती है- अच्छा चलो एक मकान तो बनाओं अरे रहने के लिए कोई स्थान भी नहीं है, तुम केसे आदमी हो, लोगों ने देखो कितने मकान बना लिए मदनलाल ने बना दिया तुम ने बनाया ही नहीं। वह भयभीत आपसे नहीं है, वह भयभीत आने वाली स्थिति से हैं।
पति भी भयभीत है कि अगर बीमार पड़ गई तो अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ेगा, डॉक्टर की फीस 1200 रूपये हें, फीस हे, फिर दवा, क्या करें? वह पत्नी को बहकाता रहता है कि तुम्हें कोई तकलीफ नहीं हे, छोटा मोटा बुखार हे आता ही रहता है ओर मर भी जाएगी तो कोई फर्क नहीं होगा मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि दूसरी शादी नहीं करूंगा। बस भरोसा रख मेरे ऊपर। एक पत्नी मरने लगी तो पति का हाथ पकड़ कर कहा- देखना, मैं मर जाऊंगी घंटा, डेढ़ घंटे से ज्यादा जिंदा नही रह पाऊंगी। पति ने कहा- मुझे लग रहा हे तेरी अंतिम सांसे चल रही है, तू मर जाएगी ऐसा लग रहा है ओर अभी तो उम्र ही तेरी 40-42 साल की हे। पत्नी ने कहा- आप मेरा कहना मानेंगे? पति ने कहा- तेरी अंतिम इच्छा है जरूर पूरी करूगा। पत्नी ने कहा- आप दूसरी शादी कर लेना, बच्चे छोटे-छोटे हें। पति ने कहा- चलो तुम्हारी बात मान लूंगा पर छः: महीने पहले विश्राम करूंगा, पहले आराम करूंगा बहुत दुखी हो गया हूं मैं तुम्हारे साथ रहते रहते। जब छ: महीने विश्राम कर लूंगा तो फिर शादी कर लूंगा। अभी छ: महीने तक तो मुझे माफ करना, उसके बाद देख लूंगा। आप खुद सोचिए कि पति कितना, दुखी ओर तकलीफ में है ओर आपने, कितना उसे कोंच कोंच कर दुखी कर दिया है। और उसने भी आपको उतना ही भयभीत कर दिया हैं। और आप दोनों ने मिलकर बेटे को कर दिया हे। मैं शादी को भयपूर्ण घटना नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं।
जो निर्भय होता है वह जीवित हो सकता है। ओर निर्भय तब आप हो सकते हैं जब आपके सामने संघर्ष आएंगे। और संघर्ष तब आएंगे जब आप बुलाएंगे संघर्ष को, टेन्शन आए, बाधाएं आएं, परेशानियां आएं, कठिनाईयां आएं और नहीं हो पांए तो गुरु के पास जाएं और पूछे कौन सी साधना है, कौन सी तरकीब हे, कोन सा मंत्र है, देविक बल हम कहां से प्राप्त करें जिसके माध्यम से हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप किसी के यहां नौकर है ओर तीन चार आठ हजार रूपये तनख्वाह ले रहे हैं, आप ले रहे हैं तोताराम जी से तोताराम जी क्या महान हो गए? आपके लिए इसलिए महान हो गए. कि उनके पास एक लाख रूपये हे और आपके पास नहीं है। इतना ही तो डिफरेंस हे, आप इसलिए तोताराम जी से ले रहे हैं। आप हरिराम से ले ही नहीं रहे हैं। जिसके पास खाने को नहीं आपको कहां से देगा। उस देवता से हम प्राप्त कर पांएगे जिसके पास वह शक्ति है। अगर लक्ष्मी है तो हमे धनवान बनाने में वह क्षमतावान हो सकती है क्योंकि उस चीज में वह सिद्धहस्त है। अब उस देवी का बल प्राप्त केसे करें? वह आपको ज्ञान नहीं हे। और वह आपको ज्ञान नहीं है इसलिए आप भयभीत है और जिस दिन आपको बल प्राप्त हो जाएगा तब आप आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो जाएंगे। देविक बल के सम्पन्न नहीं हो पाऐंगे। जय हनुमान ज्ञान गुण सागर. इस प्रकार हनुमान जी आपके शरीर में आ ही नहीं सकते और हनुमान जी कुछ कर ही नहीं सकते क्योंकि आपके लिए कौन सी विधि, साधना उपयुक्त है जिसके माध्यम से आप सफलता प्राप्त कर सकते हैं। यह आपको ज्ञात नहीं है। इसलिए ज्ञात नहीं है कि आपके पास कोई गुरु नहीं है।
वहां तो गऊ दान पांच रूपये में करा देते हैं, और मैं तो गाय की पूंछ का एक बाल भी नहीं खरीद सकता पांच रूपये में। अब पांच रूपये में गऊदान कहां से करूंगा। मगर वे करा देते हैं दो रूपये में भी करा देते हैं। मैंने भी कराया हैं। जब मेरी मां की मृत्यु हुई तो मैं गया तो मुझे पता था यहां गऊदान कराना ही पड़ेगा, यहां वेतरणी पार मां को कराना ही पडेगा क्योंकि वो कहते हैं कि वैतरणी पार नहीं कराया तो मां यहीं टिक जाएगी। मुझे पता था यह सब फ्रॉड है, छल हे, झूठ है, उनको कुछ ज्ञान है ही नहीं। हरिद्वार में जाते है तो पहली बात यही पूछते हैं कोई मर गया है क्या। मैंने कहा मेरी मां मर गई। उसने कहा-हां ठीक हे, तुम्हारा पंडा मैं हूं। अब कोई प्रमाण है तुम्हारे पास मैं केसे मानू तुम पंडे हो, यहां तो इतनी भीड़ हें पंडो की कोई धोती खींच रहा है कोई कुर्ता खींच रहा है। तुम हो तो कोई प्रमाण तो दो। उसने कहा- चलो।
तुम उसके साथ चलते हो और वह बही निकालता है और पढ़ता है कि तुम्हारे दादा जी आए थे और दादाजी का नाम यह था। आप संतुष्ट होते हें कि दादाजी का नाम सही हे। ओर वह कहता हे- तुम्हारे दादाजी ने सोने की थाली दी। अब तुम सोचते हो दादाजी के पास पीतल के बर्तन तो थे नहीं वो तो तकलीफ पा रहे थे तो सोने की थालियां कहां से दे दीं। मगर पण्डे को इसलिए कहना पड रहा है, कि यह भी कुछ दे तो सही। दादाजी ने तो सोने की थाली दी नहीं पर यह तो पांच सो रूपये दे। वह इसलिए कहता है दादाजी आए थे सोने की थालियां दीं। हमारे हिस्से में तो आई नहीं मेरे भाई के हिस्से में भी नहीं आए, दादाजी सब कुछ यहीं. अधओ देकर समाप्त हो गए। आश्चर्य हे घोर आश्चर्य हे। पण्डा कहता है- तुम नास्तिक न बनो, तुम नास्तिक हो बच्चे। मैं आस्तिक हूं, नास्तिक नहीं हूं और मुझे अपने दादाजी के बारे में नॉलेज है, सोने की थाली क्या पीतल के बर्तन भी नहीं थे उनके पास। यह मुझे अच्छी तरह से ज्ञात है। पंडा कहता है अच्छा चलो छोड़ो तुम, मरा कौन हैं? मरी तो मेरी मां हैं चलो नीचे नदी पर फिर। वहां गए तो कहता हे- तुम्हें गऊ दान कराना पडेगा, तुम्हारे पास पैसे कितने हें। पैसे तो मेरे पास थे। मैं असत्य भी नहीं बोल सकता था तो सत्य भी नहीं बोल सकता था। पण्डे थे पांच सौ और अकेला, मुझे पकडते, बांधते और सीधा माताजी के पास भेज देते, यु गंगाजी में फेंक कर के। मैंने कहा-मेरे पास पैंतालीस रूपये है। पण्डा बोला- कंजूस, पेंतालीस रूपये लेकर मां का श्राद्ध कराने आया है। पैंतालीस रूपये में होगा क्या? मैंने कहा- मैं तो नौकरी से कमाता हूं बस इतने ही हैं ओर इसमें वापस जाने का किराया भी बाकी है। टिकट लिया नहीं मैंने, कोई रिजर्वेशन नहीं है मेर। कितना किराया लगता हैं? मैंने कहा पंद्रह रूपये। उसने कहा- अच्छ पैतालीस में से पंद्रह गए बचे तीस। तीस रूपये ला मैं गऊदान करा देता हूं।
मैंने कहा- कैसे दे दूं? सराय के रूपये देने बाकी है, पांच रूपये सराय वाले को देने है, फिर शाम को रोटी खानी हे, रे सुबह भी रोटी खानी है, रिक्शा करके स्टेशन जाना है। उसने कहा- यह केसा कंजूस है। दिन भर में पहला तो यजमान मिला, पहला ही कंजूस। अब इसके पास बस पांच रूपये बचते हैं। अच्छा ला, पांच रूपये ला। मैंने कहा पांच रूपये देने में मुझे तो कोई आपत्ति नहीं, मगर सुबह मेरा एक कर्ता गुम गया, अब आप सोचिए क्या पहन कर जाऊंगा। बाजार में तीन रूपये में कुर्ता आता है। उसने कहा अच्छा ला, दो रूपये ला तुम्हारी मां को बैतरणी पार करा दूंगा। अब दो रूपये में मेंढक भी नहीं आता ओर वह दो रूपये में गाय खरीद कर बैतरणी पार करा देगा। आपके गुरु हैं। वे तिलक लगाए हुए बस बेठे है और गुरु नहीं है तो आपको ज्ञान कहां से दे पाएंगे। इसलिए मैंने कहा कि दस लाख में से कोई एक गुरु होता है। यदि आपको जीवन में ऐसे गुरुमिल जाए तो यह आपका सौभाग्य ही होगा।
और संसार में गुरु शब्द वहीं, हे नहीं, टीचर शब्द है, मास्टर शब्द हे, जो पैसे लेकर काम करते हैं, वे हैं। मगर गुरु शब्द नहीं है। यह गुरु परंपरा केवल भारत में ही है। और आज से नहीं है पिछले पचास हजार वर्षों से हे। यह शब्द नहीं मर पाया, बाकी सब शब्द मरे मगर गुरु शब्द नहीं मर पाया। वशिष्ठ के समय भी यही शब्द था आज के समय में भी यही शब्द है क्योंकि गुरु कोई व्यक्ति नहीं हैं गुरु एक ज्ञान है, गुरु एक चेतना हे, गुरु है। में तुम्हारा गुरु हूं में यह नहीं कह रहा हूं पर जो मेरा ज्ञान है वह आपका गुरु हें। वह आपको सही ढंग से ज्ञान दे पाएगा चेतना दे पाएगा कि यह मंत्र है जो तुम्हारे लिए सही है, यह साधना सही हे। गुरु ही तुम्हे बताएगा और कहेगा तू मुझे दक्षिणा चढ़ा, न चढ़ा, चरण स्पर्श कर या नहीं कर मुझे इसकी जरूरत नहीं है, पेर पर जोर से सिर पटकेगा तो नाडियां आगे सरकेंगी अपनी खोपड़ी मैरे पैरों में रखना जरूरी है मगर मैं जो साधना दूंगा वह दैविक बल के लिए जरूरी होगा। ब्राह्यण आपको ज्ञान नहीं दे सकते सारे ब्राह्मण, दस पन्द्रह को छोड़कर कहते हैं कि ग्रह बहुत खराब है ग्रहण काल में बाहर नहीं जाना चाहिए, ग्रहण काल में खाना नहीं खाना चाहिए, मटको का जल फेंक कर मटके उलटे रखने चाहिए, ग्रहण समाप्त होते ही स्नान करना चाहिए, उसके बाद सब काम करना चाहिए।
वास्तव में ग्रहण कोई खराब है ही नहीं मगर बाकी सारे गुरु उल्टा कहते हैं और आपके परिवार वाले भी ग्रहण का बुरा मानते हैं क्योंकि उन्होंने अपने बड़ों से यही सीखा, और आप भी यही कहते है अपने बेटे को कि ग्रहण काल में कुछ नहीं करना चाहिए, ग्रहण काल खराब हे। क्योंकि राहु आता है और सूर्य को मुंह में डाल देता है डालता हे तो ग्रहण हो जाता है। इतना बड़ा सूर्य उसको राहू कैसे मुंह में डालेगा मेरे समझ में नहीं आता। आपकी समझ में शायद् आ रहा होगा पर मेरी समझ में नहीं आता। सांइन्स इस बात को स्वीकार नहीं करता। मगर गीता में कृष्ण कह रहे हैं कि ग्रहण से श्रेष्ठतम कोई समय है ही नहीं, अद्वितीय समय है, एक समय है कि उस समय जो कुछ भी किया जाए उसमें सफलता मिलती ही है। और इसलिए महाभारत युद्ध ठीक उस समय शुरू हुआ जब ग्रहण काल था और पांडव विजयी हुए। पांडवों ने कृष्ण से कहा शंख बजा दें, युद्ध आरम्भ कर दें। कृष्ण ने कहा- अभी नहीं, अभी ठहर जाओ।
पांडवो ने कहा- ठहर जाओ? कौरव सामने खडे हैं, तलवार लिए खडे हैं, उनके शंख बज रहे हैं भीष्म तेयार खडे हे ओर आप कहते हैं ठहर जाओ? कृष्ण ने कहा-अभी ठहर जाओ। अभी नहीं क्योंकि “कालोयं निर्विदा विपुला च लक्ष्मी
काल क्षण अपने आप में बहुत मूल्यवान है। मैंने भी थोड़ी देर पहले कहा कि मैं दस मिनट बाद प्रयोग कराऊंगा। आपने सोचा गुरुजी को कोई काम होगा अन्दर क्योंकि आप तो तर्कवान है न, कुछ न कुछ सोचा ही होगा। अब मेरे साथ तो कमरे में कोई था ही नहीं, बस बेठा था और दस मिनट बाद इसलिए आया कि प्रयोग के लिए वह समय प्रयुक्त हो जहां आपको लाभ मिल सके।
जब राम रावण युद्ध हुआ तब भी राम ने ज्योहि तीर संधान किया तो हनुमान ने कहा महाराज ठहर जाइए। युद्ध का अभी सही समय नहीं आया है। युद्ध में यदि विजय प्राप्त करनी है तो आपको रूकना पड़ेगा और मैं तो सेवक हूं में आज्ञा तो नहीं दे सकता मैं तो विनप्र निवेदन कर सकता हूं मगर आप विश्वामित्र से पूछिए कि यह समय उपयुक्त है, आप ध्यान में अपने गुरु को लाइए, और उनको आज्ञा चक्र में स्थापित करिए। यह सब बात इसलिए समझा रहा हूं कि जब राम कर सकते है तो आप भी आज्ञा चक्र में गुरु को स्थापित कर सकते हैं आप भी हृदय से गुरु को स्थापित कर सकते हैं।
जन्म से कोई महापुरूष होता ही नहीं आज तक नहीं हुआ। वे सब आपके जैसे ही थे, अपने कार्यों से संघर्ष से राम, कृष्ण, बुद्ध और चैतन्य बने। यदि आपने संघर्ष किया है तो आप राम बन सकते हैं, बुद्ध बन सकते हैं चेतन्य बन सकते है और जीवित रह सकते हैं दो हजार पांच हजार साल तक भी यदि अं आप में संघर्ष करने की क्षमता है, यदि आप निर्भीक है और चुनौतियों को सामने बुलाते हैं, हर समय चुनौतियों का सामना करते है, प्राब्लम आती है तो उसे फेस करते हैं यदि आपमें यह भावना यह क्षमता है तो आप जीवित रह सकते हें, संघर्षशील हो सकते हैं, ओर सफलता प्राप्त कर सकते हैं। ओर उसके देविक बल जरूरी हे। राम को भी विश्वामित्र की जरूरत थी। और जब राम ने उनसे पूछा तो थोड़ी देर बीत जाए उसके बाद तुम तीर संधान करना। अब कहां विश्वामित्र ठेठ अयोध्या के पास आश्रम में और कहां राम, ठेठ दक्षिण में रामेश्वरम के पास में और उसके भी आगे। मगर वहां से भी उनका आपस में संचार होता रहा। आप भी कहीं भी हो, चाहे यहां हो चाहे दो हजार मील दूर हो आपके आज्ञा चक्र में भी गुरु स्थापित हो सकते हैं और गुरु बता सकते हैं और आप गुरु की आज्ञा प्राप्त कर सकते हैं, गुरु आपको गाइड कर सकते हैं और आप गुरु से गाइड ले सकते हैं यदि आपका गुरु से अटेचमैंट है, यदि आपको विश्वास है। और यदि आपको गुरु में विश्वास हे, उसकी दी हुई साधनाओं में विश्वास है, तो फिर देवता भी आपको जीवन में सफलता दे सकते हैं और आप विजय प्राप्त कर सकते हें।
विजय का मतलब है कि जो आपके जीवन में समस्याएं हे उन पर सफलता प्राप्त होनी चाहिए। अभी वह, क्षमता प्राप्त हुई नहीं है आपको क्योंकि उस दैविक बल को प्राप्त नहीं कर पाए आप देविक बल को छोड़ो गुरु को प्राप्त नहीं कर पाए आप। जब गुरु को भी प्राप्त नहीं कर पाए कि तो देवता कहां से आपके जीवन में आ पाएंगे। इसलिए आपको विजय की जरूरत है, आपको संघर्ष करने की जरूरत है, निर्भय होने कौ जरूरत है आपको निडर होने की जरूरत है ओर आपकी जो भी इच्छा है उसको पूरा करने की जरूरत है। और प्रत्येक व्यक्ति के मन में इच्छा रहनी चाहिए “इच्छा विहीन पशु।’ जिसकी इच्छा है ही नहीं वह तो मरा हुआ है। आपमें इच्छा ही नहीं है, संघर्ष करने की भावना ही नहीं हे, और जब इच्छा नहीं होती तो आदमी मर जाता हे, जिंदा होते हुए भी मर जाता है। संन्यासी को जब दीक्षा दी जाती हे तो कहा जाता है- जा मर जा यह नहीं कहा जाता तू सुखी रह सम्पन्न रह सफल हो। ऐसा आशीर्वाद नहीं देते है। जब दीक्षा देते हे तो कहते है- तू मर जा। आज तक जितना तुम्हारे अन्दर डर था, भय था समस्यांयें थी, बाधाएं थी, उन्हें मार देता हूं में तुम्हे नया जन्म देता हूं। आज तुम्हे नवीन चेतना दे रहा हूं, आज से तुम्हे नवीन तरीके से काम करना हें। संन्यासी को जब भी गुरु दीक्षा प्रदान करता है तो अंत में यहीं कहता हे जा मृत्यु को प्राप्त हो जा। मर जाने का मतलब है कि आज तक का तुम्हारा जीवन जितना डरपोक था गया बीता था, घटिया था वह समाप्त हो गया। आप नए मनुष्य के रूप में जन्म ले सके, आज से आप नए बन सके, नवीनता का प्रारम्भ हो सके, नवीनता का संचार हो सके। जैसे सूर्य पर ग्रहण लगता है वैसे आपके ऊपर भी ग्रहण लग गया है, भय का, डर का, चिंताओं का, बाधाओं का, अड्चनों का, कठिनाइयों का। यह सब दूर हो सके और सूर्य की भांति आप चमक सके, रोशनी कर सके, पूरे संसार में आपका नाम हो सके। और आप सुनेंगे तो कहेंगे- यह अच्छा हे गुरुजी आपको तो अच्छा आशीर्वाद देना चाहिए कि लखपति हो करोडपति हो।
ऐसा तब हो सकेगा जब आपके पास देविक बल होगा। और देविक बल तब हो पाएगा जब आप गुरु के सान्निध्य में हो सके, और गुरु का सान्निध्य तब हो पाएगा जब गुरु का आप पर विश्वास हो पाएगा। ओर गुरु का विश्वास तब हो पाएगा जब आप उन पर पूर्ण विश्वास कर पाएंगे। इसलिए जीवन में आप संघर्षशील बने, विजयी बने ओर मैं कह रहा हूं आपके पास इच्छाएं होनी चाहिए, रोज नयी इच्छा होनी चाहिए और प्रत्येक इच्छा पर विजय प्राप्त करें आप एक साल में होगी या दस में होगी मगर इच्छाओं पर विजय प्राप्त होनी चाहिए। जहा भी कृष्ण है वहां विजय है- ऐसा गीता में कहा गया है। जब आप ने मान लिया कि यह व्यक्ति सत्य बोल रहा है और मेरा हितचिंतक है तो आपको विश्वास कर लेना पड़ेगा। आप शादी कर के आते हैं, उस अनजान लड़की से जिसे आपने देखा नहीं, ओर ज सत्रह साल की लड़की पहली बार शादी कर आपके घर आती हे, उससे कोई परिचित भी नहीं हे, अभी कोई उसे जानता भी नहीं, ‘ और एकदम से संदूक की चाबी उसे दे देते हैं यह क्या है? आप पडोसी को इतने साल से जानते हैं उसे देते नहीं मगर उसे क्यों देते हैं? की, क्योंकि आपको विश्वास है कि यह पैसे बरवाद नहीं करेगी। विश्वास एक क्षण में पेदा हो गया। और जहां अविश्वास होगा वहां रात को भी चाबी तकिए के नीचे रखेंगे आप। विश्वास गुरु के प्रति होना चाहिए अपने प्रति होना चाहिए, संघर्षशील होना चाहिए और आप जीवन में सफलता प्राप्त कर पाए। और निश्चय ही आप जीवन में विजयी हो पाए, देविक बल प्राप्त कर पाएं, पूर्ण रूप से सफल हो पाएं पर ऐसा ही में आपको आशीर्वाद दे रहा हूं।
जब गुरु है वहां विजय होगी ही होगी। क्योंकि जब गुरु होगा तो एक भय का संचार मिटेगा। और गुरु प्राप्त होगा तो दैविक बल प्राप्त होगा क्योंकि गुरु समझा पायेगा कि आपका जीवन क्यों बना है, वह बता पाएगा आपके लिए कौन सी साधना जरूरी हे। और इसके लिए गुरु शिष्य के बीच एक एग्रीमैंट होना चाहिए विश्वास का क्योंकि यह चीज तर्क की नहीं है, यह श्रद्धा की है। तर्क में तो न में आपसे जीत सकता न आप मुझसे जीत सकते। यह चीज तर्क की नहीं हे श्रद्धा की हे। |
सदगुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी महाराज
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