आज गणेश चतुर्थी के अवसर पर मैं गणेश उपनिषद् के श्लोक से अपनी बात प्रारंभ कर रहा हूं। इस श्लोक में कहा गया है कि लक्ष्मी, रूद्र और गणपति तीनों एक ही पर्याय है। यह अलग बात है कि हम देवताओं को अलग-अलग टुकड़ों में बाटंकर देखने के आदि हो चुके है। जो हमारे जीवन में सुख देने वाले हैं औ इससे भी बड़ी बात जो हमारे जीवन के अभाव, दुखों और कष्टों को दूर करने वाले है, वे गणपति, हैं। साधना करना तब सार्थक होता है जब हमारी समस्याओं का निदान हो। भगवान गणपति, लक्ष्मी और रूद्र सभी साधकों एवं शिष्यों का कल्याण करें, ऐसा ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं। हम जो कुछ भी बोलते हैं वह शब्दमय और ब्रह्ममय होता है। इसलिए हमारे बोलने के पीछे हमारी चेतना का, हमारी तपस्या का, हमारे व्यक्तित्व का आभास होना चाहिए। यदि हमारे पास तपस्या का अंश नहीं है, साधना का अंश नहीं है तो हमारा जीवन व्यर्थ है और साधना, तपस्या और सिद्धियां उम्र के साथ-साथ नहीं मिलती। अनुभव के साथ मिलती हैं। जीवन में बड़ा आदमी उम्र से नहीं आंका जा सकता।
जो ज्ञान से बड़ा है उसे बड़ा कहते हैं, जो आयु से बड़ा है उसे बड़ा नहीं कहते। इसलिए जब शुकदेव प्रवचन करने बैठे, बारह साल के शुकदेव थे और 126 साल के उनके पिता थे। पिता नीचे बैठे जमीन पर और मंच पर, व्यास पीठ पर शुकदेव बैठे जो केवल बारह वर्ष के थे। ऋषियों ने कहा अनर्थ हो रहा है। पिता नीचे बैठ रहा है और पुत्र ऊपर गद्दी पर बैठा है। ऐसा कैसे संभव हैं? यह तो हमारी भारतीय परंपरा के विपरीत है। शास्त्रों ने कहा-नहीं। शास्त्र की मर्यादा ही यही है। गुरु को उम्र से नहीं आंका जाता, उनके ज्ञान से आंका जा सकता है। निश्चय ही उनके पिता के अनुभव और ज्ञान और सिद्धियों और साधनाओं की अपेक्षा शुकदेव ज्यादा अनुभवी हैं, ज्यादा ज्ञानवान हैं और व्यास पीठ के अधिकारी है।
इसलिए जीवन के किसी भी क्षण में ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है, अनुभव की प्राप्ति हो सकती है, साधना की प्राप्ति हो सकती है। और मैंने पहले भी यही बात की थी कि वैदिक मंत्र के माध्यम से भी और साबर मंत्र के माध्यम से भी सिद्धि और सफलता प्राप्त हो सकती है यदि उस मंत्र के पीछे तपस्या का भाव हो, यदि वह मंत्र बिल्कुल प्रामाणिक हो और वह मंत्र सही व्यक्तित्व से प्राप्त हो तो। ये तीनों बाते जरूरी हैं। मंत्र सही व्यक्तित्व से प्राप्त हो तो। एक मलेच्छ के घर में मिला हुआ अन्न अशुद्ध होता है, एक गरीब, निर्धन ब्राह्मण के घर से मिला एक अन्न का दाना भी अपने आप में पवित्र और दिव्य होता है। रूपया तो एक जैसा होता है परन्तु कसाई के पास से पांच रूपये दक्षिणा मिलना और गरीब आदमी के पास से आठ आने मिलना, इनमें आठ आने ज्यादा मूल्यवान है, ज्यादा महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसके पीछे उस व्यक्ति की पवित्रता का भाव है।
हम गुरु को किस रूप में आंकते हैं? हमारे अंदर कितना पवित्रता का भाव है, कितनी श्रद्धा का भाव है, कितनी चेतना का भाव है उससे हम गुरु को आंक सकते है। आंकने के लिए कोई और पैमाना नहीं है, बुद्धि नहीं है। बुद्धि के माध्यम से तो आप ज्ञान को आंक ही नहीं सकते और पूरा जीवन बीत जाएगा आप बुद्धि से कुछ प्राप्त भी नहीं कर सकते और पूरा जीवन अगर बीत गया तो एक बहुत बड़ा मूल्यवान अवसर आपके हाथ से निकल जाएगा। खोएगा कुछ नहीं पर मिलेगा भी कुछ नहीं।
और यदि इसी को आप जीवन कह देंगे तो फिर आपकी जीवन की परिभाषा अलग है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की परिभाषाएं अलग-अलग होती हैं। सोचने का तरीका अलग-अलग होता है। सुनने का भाव तो एक ही होता है परन्तु आप उसे ग्रहण किस प्रकार से करते हैं वह महत्वपूर्ण है। जब बुद्ध अपना प्रवचन समाप्त कर चुके, तो समाप्त करने के बाद बोले कि आगे का घंटा आपके लिए बहुत शुभ है। जाओं और कुछ करो, सिद्धि प्राप्त होगी।
श्रोताओं में एक बनिया भी बैठा था, उसने सोचा-बुद्ध ने बिल्कुल सही समय बताया है। अब डंडी मारने का सही टाईम आ गया है। इस एक घंटे में उन्होंने कहा है सिद्धि मिल जाएगी मुझे, सफलता मिल जाएगी। वह सीधा गया शेयर मार्केट और भाव ताव ऊंचा नीचा करके आ गया। एक वेश्या भी प्रवचन सुन रही थी। उसने सोचा-बुद्ध ने बिल्कुल सही कहा है, जरूर मुझे जाते ही ग्राहक मिल जाएगा। वह सीधी अपने घर गई बीच में रूकी नहीं। गई तो ग्राहक मिल गए। उसने कहा- बुद्ध बहुत ज्ञानवान है। बिल्कुल सही, प्रामाणिक बात कही है।
श्रोताओं में एक ज्ञानी भी बैठा था। उसने सोचा यह बिल्कुल सही समय है साधना करने का, समाधि लगाने का और वह उसी समय समाधि में लीन हो गया। बात तो एक व्यक्ति ने एक ही कही थी, समझने के भाव अलग-अलग थे। मैं कहूंगा तो एक ही बात परन्तु आप में से हर एक अलग-अलग रूप में समझेगा। जैसी आपकी बुद्धि है, जैसे आपके विचार है, जैसी आपकी धारणा है, जैसा आपका चिंतन है उसी प्रकार से आप समझ सकेंगे। इसलिए गुरु को आंकने के लिए एक आत्म चक्षु चाहिए। ये चर्म चक्षु जो हमारे पास है उनके बाद ज्ञान चक्षु हैं और फिर दिव्य चक्षु या आत्म चक्षु हैं। जो मैं ज्ञान दे रहा हूं उससे ज्ञान चक्षु जाग्रत हो सकते हैं, और उन ज्ञान चक्षुओं के माध्यम से दिव्य चक्षु जाग्रत हो सकते हैं, फिर आपका अंदर देखने का भाव हो सकेगा और दिव्य चक्षु के बाद आत्म चक्षु जाग्रत हो सकेंगे जहां कुण्डलिनी जागरण की क्रिया होती है, जहां अपने आप में पूर्णता की प्राप्ति होती है और अपने आपमें श्रेष्ठता की प्राप्ति होती है। यह तो एक क्रिया है। मगर गुरु से संपर्क में रहना भी एक बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान बात है।
क्योंकि एक चंदन का टुकड़ा भी एक बिल्कुल सूखी हुई खेजड़ी की लकड़ी के संपर्क में आ जाता है तो खेजड़ी की लकड़ी जिसमें कुछ नहीं होता वह भी अपने आप में सुगंधमय हो जाती है, चाहे वह चंदन की जाति से पैदा नहीं भी हुई हो। एक संगति का प्रभाव भी पड़ता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि एक ही बार में आपके दिव्य चक्षु या ज्ञान चक्षु जाग्रत हो जाएं। हो भी सकता है परन्तु ठोकर लगने की आवश्यकता है, समझने की आवश्यकता है, अपने अंदर ज्ञान को तो उतारने की आवश्यकता है। इसीलिए मैंने कहा कि साधना इतनी सरल है, इतनी सामान्य है परन्तु आपने उसको हौव्वा बना रखा है। आपने सोचा कि साधना बहुत कठिन होती है और आपको जो गुरु मिले उन्होंने कहा- अरे! यह साधना तुम नहीं समझ सकते बच्चे! तुम इन चीजों को नहीं समझते, हम समझते हैं। हम बहुत बड़े योगी हैं, तुम क्या समझोगे।
आपने अगर उनसे कहा- अच्छा महाराज समझाओ। तो वे कहेंगे- अरे तुम नहीं समझ सकते। वे खुद नहीं समझे और आपको कहते हैं तुम नहीं समझ सकते। तुम समझ नहीं सकते और यों जिंदगी बीत जाएगी। और आप पीछे भी पड़ें उनके तो वे कहेंगे- अच्छा बेटा लंगोट धोओ। कभी तुम्हें ज्ञान दे देंगे। अब लंगोट धोते-धोते दो साल बीत गए, चार साल बीत गए, न महाराज को कुछ ज्ञान है और न आपको कुछ दें और यूं ही जिन्दगी चली जाती है। साधना इतनी कठिन है ही नहीं। साधना तो बहुत सरल है। देवताओं का सामीप्य पाना तो बहुत सरल है, बिल्कुल आसान है। आपका सामीप्य पाना फिर भी कठिन हैं। किसी मनुष्य को अपने अनुकूल बनाना बहुत कठिन है। प्यार भरे शब्दों को बोलकर उनको अपना बना लेना आसान नहीं होता । मगर देवताओं को अपने अधीन बनाना बहुत सरल है। एक टैक्नीक चाहिए, एक क्रिया चाहिए।
अगर आपको कुछ ज्ञान नहीं है और इस कार में बैठेंगे तो कार का स्टीयरिंग पकड़ने से कार चलेगी ही नहीं। मगर एक छोटी सी टैक्नीक है कि पांव दोनों कहां रखने हैं, हाथ कहां रखने हैं, आंखें कहां रखनी हैं। एक सैटिंग है थोड़ी-सी और सैंटिग अगर आ जाएगी तो कार चल जाएगी। सैटिंग आ गई तो साधना सम्पन्न हो जाएगी। सैटिंग समझाने की बात है। जो इस रास्ते पर चला है, जिसने इस रास्ते का अनुभव किया है वही यह सब समझ सकता है। इसीलिए कहा गया है कि जीवन में सौभाग्यदायक क्षण हैं कि गुरु प्राप्त हो जाएं। मगर सौभाग्य गुरु पूजन से नहीं होता है।
अब मैं तो बिल्कुल विपरीत बात कर रहा हूं। लोग तो कहते हैं गुरु की पूजा करनी चाहिए। गुरु को चंदन लगाना चाहिए, गुरु को अक्षत चढ़ाने चाहिए, गुरु को पुष्पों का हार पहनाना चाहिए। यह भी जरूरी है। मगर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि गुरु के हृदय में उतर जाने की क्रिया हो। उनके होठों पर तुम्हारा नाम आ जाए। कुछ ऐसी साधना हो, कुछ ऐसा चिंतन हो। गुरु तो एक है और आप शिष्य लाखों है। और एक के होठों पर लाखों नाम अंकित नहीं हो सकते। यह जीवन का सौभाग्यदायक क्षण होता है कि गुरु मिलें। गुरु मिलना ओर गुरु के होठों पर अपना नाम अंकित करना बहुत कठिन काम है। इतना आसान या सरल नहीं है।
इसलिए सरल नहीं है कि मरे हुए गुरु के पीछे चलना तो बहुत आसान होता है, सुखदायक होता है। ऐसा गुरु तकलीफ दायक होता ही नहीं क्योंकि वह तुम्हें कुछ बोल ही नहीं सकता बेचारा। उसका चित्र लगा दिया, अगरबत्ती, धूप, दीप लगा दिया और गा दिया- जय गुरुदेव दया निधि दीनन हितकारी———————। एक सुबह आरती गा दी, एक शाम को गा दी। अब मूर्ति कुछ बोलेगी नहीं और आप भी खुश कि गुरु जी की आरती कर दी। इसलिए श्लोक में कहा गया है कि अत्यंत सौभाग्यदायक क्षण वो हैं जब हम जीवित जाग्रत गुरु के संपर्क में हो। हर एक के नसीब में यह बात नहीं हो सकती। हो सकता है आज से चालीस साल बाद जो पीढ़ी पैदा होगी उसे ऐसा गुरु शायद नहीं मिल पाएगा। जीवित और जाग्रत गुरु खतरनाक भी होता है। वह तुम्हें डांट भी सकता है, वह तुम्हें यह भी कह सकता है ऐसा नहीं करो यह गलत है और तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचेगी। तुम सोचोगे- ये गुरुदेव कमाल है। उनको क्या जरूरत है कहने की हम ऐसा करें, ऐसा न करें। हम जो कर रहे हैं सही कर रहे हैं।
मगर जीवन का आनंद भी वह है कि हम जीवित जाग्रत गुरु के पास रह सकें, उनकी सामीप्यता अनुभव कर सकें, उनकी सेवा कर सकें, उनके प्रति श्रद्धा पैदा कर सकें, उनके प्रति समर्पण पैदा कर सकें। और यह सबसे कठिन काम है। आप आज मिले हैं, दो दिन साथ रहेंगे फिर तीन दिन बाद पता चल जाएगा क्यों कठिन काम है। आप चले जाएंगे अपने घर, मैं चला जाऊंगा अपने घर। मैं आपको आवाज भी दूंगा तो आप आयेंगे नहीं। नहीं आयेंगे तो फिर वापस वे क्षण नहीं मिल पाएंगे, आयेंगे ही नहीं संभव ही नहीं होंगे। वो क्षण मिलें और हम उनका लाभ उठा पाएं यही सबसे बड़ा सौभाग्य है जीवन का। और जब गुरु को प्राप्त कर लिया, तो सब कुछ प्राप्त कर लिया क्योंकि शास्त्र कहते हैं-
फिर या तो शास्त्र झूठे हैं, या यह लाइन उन्हें लिखनी ही नहीं चाहिए थी और लिखी है कि गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु रूद्र है तो फिर अलग-अलग देवताओं की पूजा करने से कोई फायदा भी नहीं। फिर एक गुरु तो हैं ही। हम उनकी साधना, उनकी आराधना कर लें। करें और जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लें। गणपति ने भी ऐसा ही किया। जब एक बार देवता सब इकट्ठे हुए तो सब देवताओं ने कहा कि जब पूजन क्रम आरम्भ हो तो सबसे पहले किसकी पूजा की जाए। विष्णु ने कहा- मैं बड़ा हूं, शंकर ने कहा- मैं तो सबसे बड़ा हूं ही, सबसे पहले मेरी पूजा होगी। ब्रह्मा ने कहा- मैं तो आदि कर्ता हूं जगत की उत्पत्ति मैंने की है। सबसे पहले मेरी पूजा होनी चाहिए। इन्द्र ने, वरूण ने, कुबेर ने, यम ने सबने अपने अपने दावे पेश किये। फिर किसी ने कहा- नहीं ऐसा नहीं, यह कोई कसौटी नहीं है। कसौटी यही होगी कि जो पहले पूरी सृष्टि की परिक्रमा कर लेगा और जो पहले परिक्रमा करके यहां वापस आ जाएगा वह सबसे प्रधान देवता माना जाएगा और फिर जो भी पूजन क्रम होगा देवताओं मे, दानवों में, मनुष्यों में तो सबसे पहले पूजा उसी की होगी।
सबने कहा- यह कौन सी बड़ी बात है। सबके पास अपना-अपना जो वाहन था उसको लेकर के उड़े। कोई गरुड़ के ऊपर बैठकर उड़ा, कोई बैल के ऊपर बैठ कर उड़ा, किसी के पास कोई वाहन था, किसी के पास कोई वाहन था। सब उड़े, मगर गणपति रह गए पीछे क्योंकि उनके पास था चूहा। अब चूहे पर बैठकर के उस पूरे ब्रह्माण्ड की कब तो परिक्रमा करें और कब पहुंचें? वे खड़े-खड़े सोचने लगे कि यह तो बड़ी गड़बड़ हुई। यह कसौटी क्या रखी। मेरा नाम तो बैठ ही नहीं सकता इन देवताओं में। फिर उनके मन में एक विचार आया, एक चिंतन आया। उन्होंने कहा कि शास्त्रों में कहा है कि-
पूरा ब्रह्माण्ड तो गुरु में समाहित है। जब गुरु को ब्रह्माण्ड कहा ही गया है और यदि शास्त्र सही है तो पूरा ब्रह्माण्ड गुरु में समाहित है ही। आज इस बात का भी निर्णय हो जाएगा कि क्या वास्तव में ही गुरु में पूरा ब्रह्माण्ड समाहित है या नहीं है। कुछ ही दूरी पर गणपति के गुरु बैठे हुए थे। उन्होंने गुरु के चारों और परिक्रमा की और परिक्रमा करके आकर के उस जगह बैठ गए सबसे पहले। और बाकी देवता तो बेचारे उड़ रहे थे, भाग रहे थे, दौड़ रहे थे और गणपति बस गुरु की परिक्रमा करके बैठ गए। अब जहां जहां भी गरुड़ जा रहा था विष्णु का, उन्होंने देखा कि आगे-आगे चूहे के पैर दिखाई दे रहे हैं। विष्णु ने कहा- कमाल है यह चूहा इतनी तेज कैसे दौड़ कर चला गया?
उन्होंने और तेज गरुड़ को दौड़ाया। शिव ने अपने बैल को दौड़ाया, उसकी पूंछ पकड़ी और कहा- दौड़ तेज दौड़। मगर जहां भी वे देखें तो आगे आगे चूहे के पैर के निशान। घूम-घाम करके सभी देवता वापस आए तो देखा की गणपति बैठे हुए थे। एक देवता आए, दूसरे आए, चौथे आये सभी आ गये। फिर सब ऋषि एकत्र हुए। देवताओं ने कहा- हमने परिक्रमा कर ली है। सबसे पहले विष्णु आये, फिर ब्रह्मा आये, फिर रूद्र आये, फिर इन्द्र आये, फिर वरूण आये। ऋषियों ने पूछा- दिखाई तो क्या दिया क्योंकि हम तेजी से भागते रहे, मगर चूहे के पैर बराबर दिखाई देते रहे, यह हमें आश्चर्य है थोड़ा और आश्चर्य यह है कि हमने पूरी पृथ्वी की परिक्रमा की और हम जहां जहां भी गए आगे आगे उन्हे देखते ही रहे। ऋषियों ने कहा- इसका मतलब पूरी पृथ्वी की परिक्रमा गणपति ने सबसे पहले की है क्योंकि आप सब देवताओं ने खुद अनुभव किया है, देखा है और आप ध्यानस्थ होकर देख लें कि क्या उन्होंने ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाया है या नहीं लगाया है। विष्णु ध्यान में बैठे, ब्रह्मा ध्यान में बैठे, रूद्र ध्यान में बैठे। उन्होंने देखा कि वास्तव में पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करते हुए गणपति उस स्थान पर आकर बैठ गए। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा वास्तव में ही गणपति हम सब में श्रेष्ठ है क्योंकि उन्होंने पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर हमसे पहले लगाया है। और उसके बाद से गणपति का सबसे पहले पूजन होने लगा। जहां भी कोई उत्सव होगा, विवाह होगा, कोई शुभ कार्य होगा तो गणपति का पूजन पहले होता ही है क्योंकि वे विघ्नों का नाश करने वाले हैं, समस्याओं का समाधान करने वाले हैं।
आपके पास पैसा है और विघ्न हैं, समस्यायें है तो पैसा कोई काम का नहीं है। तुम्हारे पास पत्नी है, पुत्र है और तुम खुद पड़े हो बीमार खाट पर और आंसू बहा रहे हो तो वे पत्नी और पुत्र क्या करेंगे, खडे़ हो जायेंगे, पंखा लगा देंगे, ज्यादा से ज्यादा एक नर्स का इंतजाम कर देंगे, मगर दर्द तो तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। समस्यायें तो आपको ही भोगनी पडे़गी। इसलिए कुछ प्राप्ति से पहले हमारे जीवन के अभाव दूर हो जायें। हमारे जीवन में जो अविद्या है, हमारे जीवन में जो कुतर्क हैं, हमारे जीवन में जो कमी है, न्यूनता है, वह दूर हो जाए। वह दूर हो जाये तो सब कुछ प्राप्त हो जाएगा और इन सबको दूर करने के लिए एकमात्र देव गणपति हैं। इसलिए गणपति की साधना देवताओं ने भी श्रेष्ठ कही है।
इस जीवन में आपको दो तीन चीजों की आवश्यकता है। बहुत लंबी चौड़ी आवश्यकताएं हैं ही नहीं। एक व्यक्ति चंदूलाल जी ने तपस्या की। उन्होंने सोचा चलों एक साधना कर ही लेते हैं। उन्होंने साधना की तो घनघोर साधना की। सालभर साधना की। लक्ष्मी प्रकट हुई। लक्ष्मी की साधना की थी। लक्ष्मी ने कहा-बोल क्या मांगना है? क्या इच्छा है? एक वरदान दूंगी। जो कुछ मांगना है मांग ले। चंदूलाल ने सोचा- समस्यायें तो मेरी बहुत हैं, पच्चीस हैं। अब इन्होंने कह दिया एक इच्छा मांग लें। अब एक से कैसे काम चलेगा। यह तो मामला बैठेगा नहीं। उसने कहा- मैं कल आपसे वरदान मांग लूंगा। मुझे चौबीस घंटे का समय दे दीजिए। आप अचानक आ गई। मुझे मालूम होता आप आ रही है तो मैं तैयार होता। आप एक दम से आ गई। ऐसा मत करिये। कल मांग लूंगा। लक्ष्मी ने कहा- अच्छा कल मांग लेना मगर एक मांगना। चंदूलाल ने सोचा- हम भूखे मर रहे हैं, खाने को रोटियां नहीं हैं, चलो पैसा मांग लेते हैं। बीस, पच्चीस पचास लाख मांग लेते हैं। वह घर गया, पत्नी से कहा- मैं जिन्दगी में तुमसे सलाह लिये बिना कोई काम नहीं करता लेकिन क्या हैं मैंने एक साधना कर ली थी चुपचाप और लक्ष्मी आ गई।
पत्नी ने कहा- यह लक्ष्मी कौन है? पड़ोस में रहती है? यह कहां से आई? यह नाम तो सुना नहीं। चंदूलाल ने कहा- तू शक मत कर, जगदम्बा लक्ष्मी आई थी। उसने कहा एक वरदान मांग ले। पत्नी ने कहा- हमें शादी किये अट्ठारह साल हो गये। लड़का एक भी हुआ नहीं। जैसे तुम थे ठूंठ की तरह मैं भी ठूंठ की तरह रह गई। तुम एक लड़का मांग लो। चंदूलाल ने सोचा- अब लड़का मांगें या पचास लाख मांगे? समस्यायें दो ओर लक्ष्मी ने कहा वरदान मांगो एक। चंदू लाल ने कहा- लड़के का क्या करना है? पत्नी ने कहा- तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। मरने के बाद अग्नि कौन देगा? जब लड़का ही नहीं है तो तुम पर धिक्कार है। तुम से शादी करना ही बेकार हो गया। कहीं और शादी करती तो दस बारह बच्चे होते मेरे। चंदूलाल ने कहा- अच्छा तू हल्ला मत कर, शांत से। मैंने साधना की है और मेरा दिमाग थका हुआ है। अब तू चुप रह। चंदूलाल ने सोचा- मां घर में बैठी हुई है, मां से पूछते हैं। वह अनुभवी है, सत्तर साल की है।
मां के पास गया और उसने कहा- मां! मैंने लक्ष्मी की साधना की और वह प्रकट हो गई। उसने एक वरदान मांगने के लिए कहा है। क्या मांगू? मां ने कहा-बेटा आंखे नहीं है, अंधी हो गई हूं मैं और आंखों के बिना कुछ भी नहीं है, ठोकरें खाती रहती हूं, तेरी पत्नी तो कोई सेवा करती नहीं ज्यादा। मुझे कितनी तकलीफ होती है, बाहर जाना होता है कपड़े पहनने होते हैं। तू लक्ष्मी से मेरी आंखें मांग ले। तू सपूत बेटा है। अब चंदूलाल सोचने लगा-बेटा मांगे, इसकी आंखें मांगे, क्या मांगे? इतने में कर्जदार आ गये। वे बोले- चंदूलाल क्या हुआ? पैसा देना है या नहीं देना है।
चंदूलाल ने कहा- आठ दस घंटे और ठहर जाओ। वह बैठा-बैठा सोचने लगा कि लक्ष्मी से कुछ मांगकर बहुत गड़बड़ हो गया। इससे तो पहले ही ठीक थे। रात भर सोया नहीं। फिर माइंड में आया कि गुरु जी बता सकते हैं क्या मांगें। गुरु के घर जाते ही नहीं हैं- या गुरु पूर्णिमा पर जाते है या जन्म दिन पर जाते हैं। जाते हैं और खा पीकर वापस आ जाते हैं। अब मुसीबत आ गई थोड़ी सी जाकर पूछ लेते हैं। यह साधना भी तो उन्हीं ने बताई थी या तो उन्हें बतानी नहीं चाहिए थी। मुझे क्या मालूम था सामने आकर खड़ी हो जाएगी। गुरुजी ने देना था तो ऐसी लक्ष्मी देते जिससे पन्द्रह बीस वरदान मांग लेते। हमारी कोई एक या दो समस्यायें थोड़े ही है।
वह गया और कहा- गुरुदेव आपने बहुत गड़बड़ कर दिया। क्या गड़बड़ कर दिया? मैं तो बहुत सीधा-साधा आदमी हूं भई। उसने कहा- नहीं आप गुरुजी हैं ही नहीं। अरे हुआ क्या? क्या बात हुई? चंदूलाल ने कहा- लक्ष्मी आ गई। गुरु ने कहा- फिर इसमें तकलीफ क्या हुई? साधना दी और लक्ष्मी आ गई। उसने कहा- लक्ष्मी आई वह तो कोई तकलीफ नहीं गुरुजी मगर वह फिर दो घंटे बाद आने वाली है वापस। उसने कहा है एक वरदान मांग ले। अब बस एक वरदान? गुरु ने कहा-तू एक वरदान मांग ले। तू बहुत गरीब और दरिद्र है, धन तेरे पास नहीं है। धन मांग ले। चंदूलाल बोला- धन तो मैं मांग लूंगा गुरुजी मगर घर जाते ही बस वहां एक शेरनी मुझे छोड़ेगी नहीं। शेरनी देखी है आपने? अट्ठारह साल से शेरनी पाल रहा हूं गुरुजी। अभी आपने देखी नहीं है। हुंकार करती हुई आती है और जगदम्बा का वाहन है गुरुजी। गुरु ने कहा- मैं भी भुगत रहा हूं भइया इसमें कोई नई बात नहीं है। इस मामले में तू और मैं समान है। इसकी तो कोई साधना ही नहीं है।
चंदूलाल ने कहा- पत्नी ने कहा है बेटा मांग। धन मांगूगा तो बेटा रह जाएगा गुरुजी। अट्ठारह साल हो गये गुरुजी एक भी बेटा नहीं हुआ। मैं तीन चार बेटे मांग लेता हूं। गुरुजी ने कहा- तू पागल है। उन्हें खिलायेगा क्या? तीन का पेट पाल नहीं सकता, छः हो जाएंगे तो कैसे पालेगा? मगर गुरु जी नहीं मांगूगा तो पत्नी छोडे़गी नहीं मुझे और मां कहती है उसके लिए आंखें मांगू। तो आप बताएं गुरुजी मैं क्या करूं। गुरुजी ने सोचा कुछ देर और फिर कहा- अच्छा एक तरीका है। तू ऐसा कर लेना। वह आया वापस घर। जब लक्ष्मी आई चौबीस घंटे बाद और उसने कहा कि एक वरदान मांग तो चंदूलाल ने कहा- मैं एक वरदान चाहता हूं कि डेढ़ दो साल में मेरी मां अपनी आंखो से अपने पोते को सोने के कटोरे में दूध पीता हुआ देखे। लक्ष्मी ने कहा- तू मांग क्या रहा है? चंदूलाल ने कहा- मैं गया था गुरुजी के पास यह युक्ति उनसे सीख कर आया हूं। लक्ष्मी ने कहा- मुझे बहुत लोग मिले चंदूलाल मगर तुम जैसा नहीं मिला।
अब मैं भी सोचता हूं कि शिष्यों की समस्यायें तो सैकड़ों है। एक समस्या तो है नहीं। चंदूलाल वाली समस्या है सबकी। किसी के पास धन नहीं है, किसी के पास यश नहीं है, किसी को गाड़ी चाहिए, बंगला चाहिए। कोई ऐसी साधना हो जिसके माध्यम से ये सारे कार्य संपन्न हो जाएं। जो गणपति उपनिषद् का मैंने श्लोक कहा उसमे ऐसी ही बात है। उसमें कहा है कि गणपति, लक्ष्मी और रूद्र तीनों एक ही शब्द के पर्याय हैं। हमने ही उन्हें अलग-अलग देखा हैं। हमने देवता अलग-अलग बांट लिये। कोई लड़ाई करनी हो तो बजरंग बली को याद करने लगते हैं कि जै हनुमान ज्ञान गुण सागर जै कपीश———————————- कोई ताकत का काम है तो बजरंग बली। वहां लक्ष्मी को याद करते ही नहीं। और जब पैसे की जरूरत हो तो लक्ष्मी की साधना करते हैं। तब बजरंग बली बैठे रह गये एक तरफ। जै लक्ष्मी मैया जै लक्ष्मी मैया——-। हमारे पास देवताओं की कमी है ही नहीं, तैंतीस करोड़ देवी देवता हैं।
एक बार चंदूलाल जी एक राम मंदिर मे गए। अंदर दर्शन करने गए। भगवान राम खड़े थे, लक्ष्मण खड़े थे, राम खड़े थे धनुष बाण लिये हुए। चंदूलाल ने प्रार्थना की- श्री राम चन्द्र कृपालू भजमन——-। राम ने कहा- क्या बात है? क्यों स्तुति कर रहा है? उसने कहा- बात यह है कि मेरी पत्नी गुम गई है और आज पन्द्रह दिन हो गये हैं। वह मिली ही नहीं। आप कुछ उपाय बताएं। रामचंद्र जी ने कहा- देख भई। मैं इस मामले में कुछ कर नहीं सकता। मेरी खुद की पत्नी गुम गई थी। पत्नी गुम गई मैं तो कुछ कर नहीं सका। यहां से एक मील दूर हनुमान जी का मंदिर है। वे इस मामले में एक्सपर्ट हैं, पत्नियां ढूंढने के मामले में। तू उनके पास चला जा। यह काम मेरा नहीं है। तो हमारे कोई काम है तो बहुत देवता है, हनुमान जी है, भैरव जी है, लक्ष्मी है, हमने देवताओं को अलग-अलग टुकड़ों में बांट लिया है। वे अलग-अलग है ही नहीं, एक ही चिंतन है और अगर मैं कहता हूं कि गणपति, लक्ष्मी और रूद्र एक ही हैं तो आपको यह समझ आ नहीं रही है बात। आप कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। आप कहते हैं कि लक्ष्मी की अलग प्रतिमूर्ति है, रूद्र की अलग प्रतिमूर्ति है और गणपति की अलग प्रतिमूर्ति है। यह संभव कैसे हो सकता है कि सब एक हैं।
मगर तीनों का कार्य एक है। रूद्र का अर्थ है महामृत्युंजय, हम रोग मुक्त हो, हमारे देह में रोग नहीं रहें, जीवन में अभाव नहीं रहे, पीड़ा नहीं रहे, कष्ट नहीं रहे, समस्यायें नहीं रहे, बाधायें नहीं रहे। उनके लिए रूद्र की साधना को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हम अपनी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकें। हम ही नहीं हमारी पत्नी भी, पुत्र भी, बंधु बांधव भी। घर में अकाल मृत्यु नहीं हो, पीड़ा नहीं हो। हम जो भुगत रहे हैं वह भुगते नही और इसके साथ ही घर में दरिद्रता भी नहीं रहे। धन रहे, ऐश्वर्य रहे। यह सब कुछ हो, सम्पन्नता हो, प्रभुता हो, श्रेष्ठता हो, धन-यश, सम्मान पद, प्रतिष्ठा, ये सब कुछ हो और इसके साथ ही साथ समस्त आने वाले विघ्नो का नाश होता रहे। आने वाली बाधायें पहले से ही दूर हो जाये। हमारे जीवन में समस्या आये ही नही, कष्ट आये और हम एक दम पूर्णता के साथ जीवन में सफलता प्राप्त कर सकें।
ऐसा ही एक प्रयोग या साधना केवल गणेश चतुर्थी को सम्पन्न हो सकती है। साल में और कभी भी नहीं हो सकती। इसलिए शास्त्रों में गणेश चतुर्थी का अपना एक बहुत बड़ा महत्व है। यह जीवन का सौभाग्य होता है कि गणेश चतुर्थी हो और गुरु सामने हों और उनसे ऐसा प्रयोग प्राप्त हो जाये। यह अलग बात है कि हमारी बुद्धि या तर्क इस बात को स्वीकार नहीं करे। मगर मैं कहता हूं आप एक बार साधना के पथ को आजमा कर देखें, एक बार कोई साधना करके देखें आप। ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप बिल्कुल शुद्ध भाव से करें और सफलता नहीं मिल पाये।
गणपति तो अपने आपमें ऐसे देवता हैं जो सभी विघ्नों का नाश करते ही हैं। मुझे अपने संन्यासी जीवन में एक संन्यासी मिले थे। अत्यंत ही उच्चकोटि के संन्यासी। आज भी वे जीवित हैं और उनमें विशेषता यह थी कि वे बैठे रहते थे और एक छोटी सी लाल कपड़े की झोली थी उनकी, बगल में लटकी रहती थी। मुश्किल से छः उंगल लंबी, छः उंगल चौड़ी और आप उनसे जो भी मांगे उसमें से निकाल कर दें देते थे। रूपये मांगे तो रूपये, लड्डू या कोई और चीज मांगे तो कोई और चीज उस झोली से निकाल कर देते ही रहते थे। मैं उनके साथ कोई सात-आठ महीने रहा और उन्होंने बताया कि यह गणपति की साधना का परिणाम है। उन्होंने अपनी आंख में एक छोटे से पारद गणपति को स्थापित कर रखा था। आंख की पुतली के अंदर! वे उसे रोज बाहर निकालते, उनकी पूजा करते और वापस अंदर स्थापित कर देते। यह मेरी आंखों की देखी घटना है।
इसका मतलब गणपति की साधना जीवन में समस्त पूर्णता देने वाली है। मगर साथ ही साथ पारद गणपति की साधना तो अपने आप में अद्वितीय है। पारद को अपने आप में ठोस बनाना तो बहुत कठिन है। उनका दर्शन करना ही जीवन का एक बहुत पुण्यदायक घटना है। यदि ऐसे गणपति घर में स्थापित हो तो वह तो आने वाली पीढि़यों के लिए एक पुण्यदायक बात होती है। वह दर्शनीय चीज होती है। जो हमारे प्रधान मंत्री हैं वे स्वयं पारद गणपति के साधक हैं, दक्षिण में गणपति साधना का बहुत प्रचलन है। मुंबई में तो गणपति की ही पूजन होता है। महाराष्ट्र में जितना गणपति का पूजन चिंतन होता है उतना कहीं पूरे भारत वर्ष में होता ही नहीं।
और उस श्लोक के अनुसार गणेश चतुर्थी का दिन गणपति साधना का श्रेष्ठतम दिन होता है, लक्ष्मी को भी स्थापित करने और प्राप्त करने का दिन होता है, लक्ष्मी को सामने प्रत्यक्ष करने का दिन होता है। अपने जीवन में लक्ष्मी अनुकूल बनी रह सके, अभाव रहें ही नहीं, जो चीज चाहें वह प्राप्त हो और पारद शिवलिंग भी हमारे सामने हो क्योंकि उन तीनों का अपने आपमें पूर्ण संबंध है। उन तीनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। मेरे हाथ का मात्र पूजन करने से गुरु पूजन नहीं हो सकता, केवल ललाट के पूजन से गुरु का पूजन नहीं हो सकता। गुरु तो पूरा शरीर है, किसी अंग विशेष पूजन करने से उसका पूरा गुरु पूजन नहीं हो सकता।
इसीलिए इन तीनों को स्थापित करें-पारद गणपति, पारद शिवलिंग और पारद लक्ष्मी और फिर मैं जो मंत्र दूं उस मंत्र की साधना आप सम्पन्न करें क्योंकि वह मंत्र अपने आप मे गणेश उपनिषद् से प्राप्त है, अपने आप में अद्वितीय है। जिस संन्यासी की मैंने बात कही कि जो आंख में गणपति की छोटी सी मूर्ति रखते थे, उन्होंने मुझे मंत्र बताया था उसी मंत्र से फिर साधना सम्पन्न की जाये तो पूर्णता प्राप्त होगी ही।
यह भी मेरे जीवन का कर्त्तव्य है कि मैं अपने शिष्यों के जीवन के अभाव, परेशानियों और बाधाओं को दूर करूं। जब आपकी बाधाएं दूर हो पाएंगी तो फिर आप उच्च कोटि की साधनाएं कर सकेंगे और साधनाओं के द्वारा ही आप में चैतन्यता पैदा हो सकेगी। परन्तु साधनाओं में सफलता के लिए श्रद्धा भाव आवश्यक है। श्रद्धाभाव अगर जाग्रत है तो फिर कोई भी साधना कठिन है ही नहीं। साधना तो इतनी आसान है कि आप सफलता प्राप्त करते ही है अगर आप में और गुरु के बीच में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है। मंत्र के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए।
जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसा ही फल मिलता है। हम जब हरिद्वार जाते हैं तो बहुत पवित्र अनुभव करते हुए गंगा में डूबकी लगाते हैं और जो हरिद्वार में रहते हैं वे महीनो-महीनो तक स्नान करते ही नहीं गंगा में जा कर के। वे नल के नीचे स्नान करते हैं। यह तो भावना है। आपकी भावना कैसी है, श्रद्धा कितनी है उस पर निर्भर है। आवश्यकता है कि आपका कितना विश्वास है उस मंत्र के प्रति, उस देवता के प्रति, उस गुरु के प्रति और जिस साधना का मैं उल्लेख कर रहा हूं, वह कोई साधारण साधना नहीं हैं, अपने आप में अद्वितीय साधना है उस संन्यासी की दी हुई साधना है जिसने वह सिद्ध की थी और उस संन्यासी से प्राप्त होने के बाद मैंने खुद उस साधना को करके देखा है, अनुभव किया है कि वह साधना गणपति की साधना होते हुए भी, रूद्र की साधना भी है, लक्ष्मी की साधना भी है।
एक अद्वितीय साधना है। मैंने उनसे कहा भी कि गणपति की साधना में यह पारद शिवलिंग का क्या महत्व है। उन्होंने कहा कि गणपति का तात्पर्य है कि हम समूह के अधिपति बनें, श्रेष्ठ बनें। अगर आयु ही नहीं होगी तो श्रेष्ठ क्या बनेंगे? आप चाहते हैं कि सम्पन्न तो तब होंगे जब आपकी आयु होगी। जब आयु होगी ही नहीं, आप जर्जर होंगे, आप बीमार होंगे, खाट से उठ नहीं पायेगे, चार घंटे पालथी मारकर बैठ नहीं पायेंगे, आप मंत्र उच्चारण कर नहीं पायेगे तो वह गणपति, वह धन, वह संपत्ति, वह ऐश्वर्य कैसे प्राप्त हो सकेगा? क्या लाभ हो पायेगा? सबसे पहला आधार तो जीवन है, लंबा जीवन हमारा, पत्नी का, पुत्र का, संबंधियों का और लंबे जीवन के लिए भगवान शिव की साधना ही श्रेष्ठ है और उसके बाद जीवन में सम्पन्नता हो, भोग हो, ऐश्वर्य हो, सुख हो, सुविधाएं हो और उसके बाद कोई विघ्न न हो। जीवन में तो राज्य की ओर से बाधा आ सकती है, समस्याएं हो सकती है, अफसर की समस्या हो सकती है, नौकरी व्यापार की समस्या हो सकती है। समस्याओं की कोई कमी नहीं। उन सभी समस्याओं का निपटारा गणपति की साधना के माध्यम से हो सकता है।
मगर यह साधना केवल गणेश चतुर्थी को ही सम्पन्न की जा सकती है और गुरु के प्रवचन सुनने से ही कुछ नहीं हो पाएगा। आपको उठकर साधनाएं सम्पन्न करनी ही पड़ेंगी और मैं तो चाहता हूं कि जो मुझे साधनाओं का अद्वितीय ज्ञान मिला है वह मैं आपको दूं और आप वे साधनाएं कर सकें। कई-कई ग्रंथों में इसे सर्वार्थ सिद्धि कारक प्रयोग भी कहा गया है। यह तांत्रिक प्रयोग भी है और मांत्रिक प्रयोग भी है। सर्वार्थ सिद्धि का अर्थ है कि सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो, सब प्रकार की इच्छाएं पूरी हों और यह प्रयोग गणेश चतुर्थी को ही सम्पन्न हो सकता है। और इस साधना का मंत्र भी अपने आप में अद्वितीय है क्योंकि वह बीज मंत्र युक्त हैं अगर आप एक पेड़ को देखें तो वह इतना विशाल दिखाई देता है। मगर वह पूरा पेड़ एक दिन एक छोटे बीज के अंदर समाया हुआ था, छोटा सा बीज था। इस हथेली में भी रख सकते थे। एक हजार वैसे बीज हथेली में आ सकते थे। उनमें से केवल एक बीज के माध्यम से इतना बड़ा पेड़ बना। ठीक इसी प्रकार बीज मंत्र होते हैं और दस पेज का मंत्र भी एक बीज मंत्र में समाहित हो सकता है यदि बीज मंत्र सही हो तो।
बीज मंत्र का उच्चारण सही होना चाहिए और पूरी क्षमता के साथ मंत्र का उच्चारण करते हैं तो सफलता मिलती ही है। मगर मंत्र बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना चाहिए। बहुत तेज मंत्र उच्चारण करने से कोई जल्दी सफलता नहीं मिल जाएगी। उससे तो आप आधा मंत्र बोलेंगे और आधा छूट जाएगा और इतना धीरे-धीरे भी जप न करें कि आपकी गाड़ी स्टेशन से आगे चले ही नहीं। एक ही जगह खड़ी रहे। ऐसा भी नहीं हो। शुद्धता के साथ उच्चारण करें और इतना जोर से बोलें कि आपके कान को सुनाई दे। मंत्र स्फुट हो, स्फुट का अर्थ है कि आपके कानों को सुनाई दे। जोर से चीखने की जरूरत नहीं है। ऐसे भी शिष्य मैंने देखे हैं। एक से एक बढ़कर एक हैं। छाती पर मुक्का मार मार मंत्र बोलते हैं ऐसे भी मिले हैं शिष्य। एक था शिष्य उसे मंत्र बताया तो उसने चीख कर मंत्र बोला ‘ऊँ गं—–’ और अपनी छाती पर मुक्का मारा। मैंने कहा-भई क्या कर रहा है? गम तो होगा, मैं अभी बीमार हो जाऊंगा, इतनी जोर से मुक्का तू मार रहा है। ऐसे चीखने चिल्लाने की जरूरत नहीं है।
मैं कुछ साल पहले हैदराबाद गया किसी कार्य से। मेरा दुर्भाग्य था जो मैं हैदराबाद चला गया। कभी-कभी दुर्भाग्य के क्षण भी आ जाते हैं। वहां तेज नारायण भी एक शिष्य हैं मेरा। आपने उस मूर्ति, महान विभूति को देखा नहीं है! अब शिष्य है तो शिष्य है उसने दीक्षा ली हुई है और बड़ा ही उसमें भाव है। गुरु के प्रति भावना है, उसकी श्रद्धा है, हैदराबाद में उसकी कपड़े की दुकान है। तो जब मैं जोधपुर से रवाना हुआ तो पत्नी ने कहा- आप हैदराबाद जा ही रहे हैं तो तेज नारायण से भी मिल लेना। मैंने कहा- मैं तेज नारायण से नहीं मिल सकता क्योंकि वह नहीं मिले तो ठीक हैं। पत्नी ने कहा- आप जा रहे हैं उसे नहीं मिले तो उसे बहुत दुख होगा। इसलिए आप मिल लेना। अब पत्नी की बात मैंने मान ली, मगर मैं पछता रहा हूं। आप न मानें यह अनुभव की बात बता रहा हूं। जो पत्नी कहे उसे कहने दीजिए क्योंकि वह आई इसलिए है घर में कि कहती रहे। पतिव्रता शब्द आपने सुना होगा, पतिव्रता का अर्थ है जो पति को व्रत कराती रहे। वह कहती है-आज भूखे मरना है तुझे।
वह बेचारा कहता है- अरे मैं क्यों भूखा रहूं? वह कहती है- नहीं मैं पतिव्रता हूं, तुझे व्रत करना ही है। पतिव्रता का मतलब ही यही है, जितने ज्यादा पति को व्रत कराएगी उतनी ज्यादा पतिव्रता श्रेष्ठ। मैं जब हैदराबाद पहुंचा तो सोचा चलो तेज नारायण से भी मिलकर आ जाते हैं। तो बाजार में चार मीनार से आगे बाजार हैं, वहां पर उसकी दुकान थी। मैं पटरी के ऊपर चल रहा था सामने दुकान थी पटरी के उस पार। उसने एक दम से देखा मुझे दूर से कि गुरुजी आ रहे हैं। उसने सोचा- गुरुजी एकदम से हैदराबाद में कैसे आ गए? कैसे आ गए? कोई चिट्ठी नहीं, समाचार नहीं, सूचना नहीं। पर हैं तो गुरुजी। आंख फाड़कर देखा उसने। वह वहां से उचका। तीस बत्तीस साल का था, ऐसा कोई बच्चा नहीं था। और दौड़कर दोनों हाथ मेरे पकड़ लिए, ताकतवान बहुत है और झंझोड़ा पहले मुझे और कहने लगा- आ गया, तू आ गया, तू आ गया। और एक मेरी छाती में मारा और बोला- तू कब आया, तू कब आया। छाती में एक लगा, दूसरा लगा, मैं पीछे सरका। मैंने कहा- तेज नारायण मैं मर जाऊंगा। मगर तेज नारायण तो बस भावना में मारे जाए छाती पर। लाल सुर्ख हो गई छाती और जोर जोर से मारे जाये और बोले जाये- तू कहां जा रहा है, तू कहां जा रहा है? तू कैसे आ गया, तू कैसे आ गया? तू कैसे आ गया? तू कब आया, तू कब आया?
लोग इकट्ठे हो गए कि इसकी कपड़े की दुकान है और यह आदमी शायद कपड़ा लेकर भाग रहा है। उन्होंने कहा- मारो इसको मारो। यह ठीक पकड़ में आया। यहां कई दुकानों से चोरियां हुई हैं। मैंने कहा-कपड़ा कोई चोरी नहीं किया यह तो गुरु शिष्य का मिलन है, कोई ऐसी बात नहीं है। उन्होंने कहा- ऐसा मिलन तो हमने कभी देखा नहीं। यह कैसा मिलन हैं? बड़ी मुश्किल से पांच सात लोगों ने उस तेज नारायण को खींच कर अलग किया। मेरी सारी छाती लाल सुर्ख हो गई। इतने बड़े-बड़े गूमड़ हो गए। मैंने कहा- तेज नारायण यह क्या है? उसने कहा- गुरुदेव! आप दुकान पर आइये। मैंने कहा- यहां तो लोगों ने छुड़वा दिया, यह अच्छा किया। दुकान पर मैं नहीं जाऊंगा। अभी मेरे बच्चे छोटे हैं, मैं तेरे साथ नहीं आ सकता।
तो शिष्य मेरे अनेक हैं। आप भी मंत्र जप करें तो ऐसा नहीं कि तेज नारायण की तरह मंत्र जप करने लगें। मजाल है कि कोई सामने बैठा हो जब वह मंत्र जप कर रहा हो। मंत्र इस प्रकार से बोलें कि केवल आपके कानों को सुनाई दे और मंत्र जप करते हुए हिलें नहीं निष्कंप भाव से। ऐसा नहीं कि आप झूमते रहें। मंत्र जप का अर्थ है कि निश्छल भाव से बिना हिले डुले आप जप करें। एक आसन पर बैठ कर, निष्कंप भाव से मंत्र जप करें और मंत्र जप के बीच में उठे नहीं। तभी सफलता मिल सकती है साधना में। यह साधना जिसके बारे में मैंने आपको बताया वह अद्वितीय है और मैंने स्वयं इसे सिद्ध किया हुआ है। यह साधना अवश्य ही आपको जीवन में उपयोगी सिद्ध होगी क्योंकि इससे आपके जीवन की सभी बाधाएं, समस्याऐं दूर हो सकती हैं। इसलिए यह मंत्र और यह साधना अद्वितीय है और प्रत्येक साधक को इसे जीवन में एक बार तो करना ही चाहिए। अवश्य ही इस साधना के माध्यम से हम जीवन के सारे अभाव, परेशानियों, अड़चनों, कठिनाईयों से मुक्त हो सकते हैं। आवश्यक है केवल यह कि आपमें गुरु के प्रति श्रद्धा हो, मंत्र के प्रति श्रद्धा हो, साधना के प्रति श्रद्धा हो और जिस देवी या देवता की साधना कर रहे हैं उसके प्रति श्रद्धा हो।
आप अपने जीवन में गुरु से यह अद्वितीय साधना और मंत्र प्राप्त कर सकें, आप पूर्णता के साथ इस साधना को सम्पन्न कर सके और अपने जीवन में सभी समस्याओं से मुक्त होते हुए धनवान, ऐश्वर्यवान, सुखी और सम्पन्न कहला सकें, ऐसा ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
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