वे साधक आते हैं जिन्हें संसार का अनुभव प्राप्त हो चुका है जो कई प्रकार के शास्त्रों आदि का अध्ययन कर चुके हैं। साथ ही किसी गुरु से दीक्षा ले चुके हैं। उन्हें गुरु कृपा और शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान का उदय होता है और वे संन्यास की तरफ प्रेरित होते हैं। सांसारिक वासनाओं के प्रति जो सदैव उदासीन रहते हैं। संसार के सुख-दुख, हानि-लाभ आदि का जिनके ऊपर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता ऐसे अनासक्त भाव से रहने वाले व्यक्ति को संन्यासी कहते हैं।
साधक- साधक का विशेष अर्थ होता है अपने आध्यात्मिक विकास हेतु साधना करने वाला। यह साधक शब्द गृहस्थ तथा संन्यास में दीक्षित प्रारंभिक अवस्थाओं के लिये व्यक्त होता है।
योगी- वह व्यक्ति जो योगाभ्यास करता है। यह उपाधि साधारणतः उस व्यक्ति को दी जाती है जो अपनी आत्म चेतना से युक्त हो। यह शब्द गृहस्थ और संन्यासी दोनों के लिये व्यक्त होता है।
संत- जिसके अन्दर समता का भाव विद्यमान हो। गुरु- अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला वह महापुरूष जिसको आत्मज्ञान की सिद्धि प्राप्त हो चुकी है और जो दूसरों को आध्यात्मिकता के रास्ते में उसकी शक्तियों के विकास हेतु मार्गदर्शन देता है तथा जिसके अधिक शिष्य हो।
ऋषि- इस शब्द का अर्थ है मंत्रद्रष्टा, ऋषि गृहस्थ भी हुआ करते है, यानी शादी करने के बाद भी संन्यासी ऋषि स्वरूप में होता है। आत्म साक्षात्कार के हेतु जंगल में निवास करते थे। इन्हीं महापुरूषों ने वैदिक ज्ञान का उद्घाटन किया। अतः वेदों में इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
महर्षि- जो मंत्र दृष्टाओं मे भी श्रेष्ठ हैं। ऋषि से भी महर्षि की उपाधि श्रेष्ठ है। वह महान आध्यात्मिक पुरूष जिसने आत्म साक्षात्कार की अनुभूति प्राप्त की हो। यह संन्यासी या असंन्यासी दोनों के लिए व्यक्त किया जाता है।
महात्मा- महान है जिसकी आत्मा, वही है महात्मा या महान पुरूष। महान संन्यासियों के लिये इस शब्द का व्यवहार किया जाता है।
परमहंस- जीवों में जो श्रेष्ठ है, वह है परमहंस। आत्म साक्षात्कार प्राप्त संन्यासी इस महान पदवी से विभूषित किया जाता है।
संन्यास है, जीवन में नये संस्कार लाने का प्रयोग, अपने आप को शुद्ध करने का प्रयोग, जिससे कि यह प्रदूषित मन स्वस्थ होकर अपनी ताजगी, अपना पूरा सौन्दर्य प्रकट करे, संन्यास अपने आपको स्वनिर्माण करने की प्रक्रिया है, जिसमें यह बन्धन नहीं है, कि आप क्या थे, संन्यास तो वह तत्व है, कि आप क्या बनने जा रहे है। संन्यास तो अन्तर्मन में नवीन ज्योति जगाने की प्रक्रिया है।
जीवन की शक्ति एवं क्रिया कलाप असीम है, कुछ लोग अपने जीवन को संकीर्ण बंधनों से परे उस शक्ति को पहचानने में समर्थ होते हैं, कुछ लोग अंहकार की सीमाओं को पार कर विस्तृत चैतन्य शक्ति में विचरण करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अपनी पांच कर्मेन्द्रियों आंख, कान, नाक, जिह्ना एवं त्वचा से जो प्रत्यक्ष अनुभूति होती है वहीं तक जीवन को सीमित मान लेते हैं, लेकिन जीवन का दायरा बहुत विशाल, असीमित और अनन्त है जब ऐसे लोग अपनी सीमा से बाहर आते हैं तो उन्हें अपने अज्ञान का पता चलता है, वे चेतना की गहराई में प्रवेश कर अपने और दूसरों के प्रति विचार बदलने लगते हैं। संन्यास का उद्देश्य चेतना का विकास करते हुए सही विचारधारा को स्थान देना है, संन्यास का उद्देश्य ही लोक कल्याण के लिए गुप्त देवी शक्तियों और साधनाओं से ज्ञान अर्जन की क्रियाओं से युक्त होना।
पृथ्वी पर मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने आंतरिक ज्ञान, प्रकाश एवं आनन्द को प्रकाशित करने में समर्थ होता है। वही एक मात्र ऐसा प्राणी है कि जो धीरे-धीरे अपने भीतर छिपी हुई आन्तरिक शक्तियों को जागृत कर सकता है।
सामाजिक रूप से संन्यास का उद्देश्य लोगों में समझदारी और एकता स्थापित करना है। उनकी सहायता कर पूर्णता एवं मधुरतापूर्ण जीवन बिताने की प्रेरणा देता है, गहरे अर्थ में संन्यास का अर्थ पूर्ण शांति प्राप्त करना और चेतना को जागृत करना है, इसका लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है।
संन्यासी उसी को कह सकते हैं, जो अपने स्वभाव, संस्कार, इच्छाओं को ज्ञान की अग्नि से स्वाहा कर दें, जिससे वह अपने और जीवन के विषय में पूर्ण रूप से समझ सके।
संन्यास के लिऐ घर छोड़ना आवश्यक नहीं है, भगवे कपड़े धारण करना आवश्यक नहीं है, और न ही हिमालय की गुफाओं में छिप कर बैठना है, संन्यास, गृहस्थ धर्म से जुडे़ हुए भी ग्रहण किया जा सकता है, गृहस्थ छोड़कर जाने वाला व्यक्ति अपनी अपूर्ण वासनाओं के घेरे में बन्द रहता है उसे मुक्ति नहीं मिल सकती, जब कि संन्यासी कुछ समय के लिए अलग जाकर अपनी दृष्टि से स्थितियों का अवलोकन कर सकता है, गुरु के पास आकर ज्ञान प्राप्त कर सकता है, जिससे उसे अपनी चेतना को समझने का अवसर प्राप्त हो सके, उस समय जब वह गुरु के पास बैठा हो तो एक अलग दृष्टि से सब स्थितियों का अवलोकन कर सकता है, और उसे यह ज्ञान हो सकता है, कि उसे जीवन में क्या करना है, किस प्रकार से करना है, और जो देह के भीतर पूर्ण स्वाद देने वाला, रस-अमृत बरसाने वाला, बुद्धि को जाग्रत करने वाला तत्व है-वह कैसे विकसित हो, जिससे व्यक्तित्व भीड़ से अलग बन सके, जीवन में परिपूर्णता आ सके।
जो शिष्य सद्गुरुदेव के सम्मुख उपस्थित होकर दीक्षा प्राप्त करते है, वह तो अपने आपमें अद्भुत है ही, परन्तु गुरु अपने शिष्य को किसी भी स्वरूप में किसी भी स्थान पर दीक्षा प्रदान कर सकते है, गुरु-कृपा से जब शक्ति जाग्रत होती है, तो शिष्य को आसन, प्राणायाम, मुद्रा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती, कुण्डलिनी प्रबुद्ध होकर ऊपर ब्रह्मरन्ध्र में जाने के लिए छटपटाने लगती है, और इस महाक्रिया में कुछ क्रियायें अपने आप हो जाती है, और यही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है, शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद ये सब क्रियायें अपने आप होती है, और चित्त को अधिक से अधिक स्थिरता प्राप्त होने लगती है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,